वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

इन्द्रियों का उपभोग अर्थात अधिक भोग ही असंयम है।

कैसी विडंबना है कि दैनिक ज्ञानप्रसाद लेखों के अमृतपान से जितना लाभ युवापीढ़ी को होने वाला है,उतना शायद ही किसी अन्य Age group को हो, लेकिन उनके पास तो समय ही नहीं है। हमारे वरिष्ठ, आदरणीय सहयोगी जीवन के उस पड़ाव पर पंहुच चुके हैं जहाँ उन्होंने जीवन-यात्रा में ऐसे-ऐसे अनुभव प्राप्त कर लिए हैं कि “संयम आधारित” वर्तमान लेख शृंखला में उनके लिए कुछ भी नया न हो, उनके कमैंट्स ही बहुत कुछ कह जाते हैं। लेकिन क्या करें युवापीढ़ी न तो लेख पढ़ती है, न कोई सार्थक कमेंट करती है,न ही ज्ञान से भरपूर कमेंट देखती है, उसके पास तो 60 सेकंड की वीडियो को देखकर, समझकर, उसमें बताई गयी शिक्षा से  प्रेरित होकर अपनी भावना व्यक्त करने का समय भी नहीं है। 

हमें विश्वास है कि यह पंक्तियाँ भी हमारे रेगुलर पाठक ही देखेंगें।  जिनके लिए लिख रहे हैं वह शायद ही पढ़ें। तो क्या लिखना छोड़ दें ? कदापि नहीं, गुरूजी कान खींचेंगें,उन्हें सब पता है। 

इन्हीं भावनाओं के साथ आज के लेख का शुभारम्भ विश्वशांति की कामना से हो रहा है : 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:   

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हमारे मन की स्थिति हमारी इन्द्रियों को सदैव ही प्रभावित करती रहती हैं। ऐसा भी कहा जा सकता है कि इन्द्रियां हमारे मन को प्रभावित करती हैं, दोनों का परस्पर सम्बन्ध है।  यदि मन की स्थिति किसी भय, चिन्ता,शोक, क्रोध उद्वेग, के आवेश से ग्रस्त हो रही हो तो उस समय शरीर के अंग  निरोग और समर्थ होते हुए भी उपस्थित भोगों में रुचि लेना मात्र छोड़ ही नहीं  देते बल्कि उनसे घृणा भी करते हैं। किसी व्यक्ति को पुत्र की मृत्यु का शोक समाचार मिले, उस समय उसका पेट खाली भी हो तो सामने स्वादिष्ट पदार्थों की सुसज्जित थाली रखे होने के बावजूद भूख भाग जाती है। थाली को छूने के लिए न तो मन करेगा और न ही एक ग्रास भी मुँह में जायेगा। यही बात अन्य इन्द्रियों के बारे में भी है,दुःख की स्थिति में वे सभी अपने विषय-विकारों  से विमुख हो जाती हैं।

मनुष्य, मन से प्रेरितहोकर कई तरीकों से अपनी शक्तियों का नाश करता रहता है। मानसिक, शारीरिक, आर्थिक आदि विभिन्न स्रोतों से हमारी शक्तियां अनुचित और अनचाहे ढंग से खर्च  होती रहती है । मानसिक दृष्टि से हमारे विचार,भावनाएं और चिन्तन इतना अस्तव्यस्त, दिशाहीन और व्यर्थ कायों में उलझे रहते हैं कि उनके सदुपयोग की बात ही नहीं सूझती। मनुष्य की अधिकांश मानसिक शक्तियां व्यर्थ के चिंतन में ही नष्ट होती  जाती है। ऐसी स्थिति में रचनात्मक उपलब्धि के मानसिक सामर्थ्य बचता ही नहीं है। इस सम्बन्ध में आवश्यकता इस बात की है कि अपनी मानसिक शक्तियों को व्यर्थ के चिन्तन और गलत दिशाओं से रोक कर ऐसे कार्यों में उन्हें लगाया जाय जिससे कोई रचनात्मक उपलब्धि प्राप्त की जा सके।

स्मरण रखा जाना चाहिए कि “इन्द्रियों का उपयोग असंयम” नहीं है । शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन्द्रियों का उपयोग करना आवश्यक है परन्तु असंयम तब होता है जब उनका उपयोग आवश्यकता की दृष्टि से नहीं किया जाता है। उपभोग अर्थात अधिक भोग की प्रधानता ही असंयम है। सभी जानते हैं कि आहार तो शरीर की बड़ी आवश्यकता है, आहार न मिले तो जीवित रहना मुश्किल हो जाय। यह शरीर के लिये अत्यन्त आवश्यक धर्म है किन्तु शरीर रक्षा के लिये “स्वाद की उपयोगिता” समझ में नहीं आती । केवल स्वाद- स्वाद की लालसा में ही पेट खराब हो जाता है। स्वास्थ्य गिर जाना इसी स्वाद-स्वाद की लालसा  के कारण ही होता है। 

इस तरह आहार जो शरीर की आवश्यकता थी,उसका उपभोग यां बिना सोचे समझे उपयोग करना ही सभी बीमारीओं की जड़ है।  यही उपभोग हमारी शक्तियों के पतन का कारण बन जाता है । प्रत्येक “इन्द्रिय उपयोग” की एक सीमा (Upper limit) निर्धारित है। उस सीमा के अन्दर बने रहने से ही उसका ठीक  उपयोग किया जा सकता है। यदि उस सीमा को लाँघ दिया जाए  तो रोग और शोक घेर लेंगे। 

इंद्रियों का उपयोग आत्म-विकास के लिए करना ही समझदारी है,बेसमझी आत्म-विनाश ही लाती है । इन्द्रियां  हमारी शत्रु नहीं है, शत्रु तो वे तब बन जाती हैं जब वे अपने बहिर्मुखी स्वभाव के रूप में काम करने लगतो है अर्थात् जब तक इनका उपयोग बाहरी  जीवन के सुखोपभोग में किया जाता है। जब हम इन्द्रियों के उपयोग को “आत्मा के विकास” की ओर मोड़ देते हैं तो  सत्परिणाम दिखाई देने लगते हैं । यदि हम इन्द्रियों का  सदुपयोग करें तो महत्वपूर्ण आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं आवश्यकता सिर्फ इन पर अंकुश बनाये रखने की है । किसी घोड़े की लगाम खुली छोड़ दें तो वह सवार को गड्डे में गिरा कर ही छोड़ेगा। सवार की सुरक्षा इस बात पर निर्भर रहती है कि वह लगाम पर नियंत्रण रखे,उसे ढीला न होने दे। ऐसा करने से सवार  जिस दिशा में, जितनी दूर जाना चाहे, घोड़ा सुरक्षापूर्वक वहीँ  पहुँचा देगा।  यह उदाहरण इन्द्रियों पर भी लागू होता है, यदि इन्द्रियों के  नियंत्रण का अंकुश कसा हुआ रहे तो उनके द्वारा अपनी शक्तियों के सहारे कहीं भी पहुँचा जा सकता है ।

मानसिक और शारीरिक शक्तियों के दुरूपयोग की तरह ही भौतिक सम्पदाओं की फिजूलखर्ची भी असंयम है। भौतिक सम्पदा में मुख्यतः धन सम्पत्ति की ही गणना की जाती है। यदि इस सम्पदा को  व्यर्थ के कार्यों में खर्च किया जाता रहे तो एक समय में बड़ी सम्पदा भी समाप्त हो जाती है। बड़ी-बड़ी जायदादें असंयम के कारण समाप्त हो जाती है। घर में एक भी व्यक्ति को यदि फिजूलखर्ची की आदत हुई तो सारा परिवार ही बर्बाद होने लगता है। अतीतकाल में लखनऊ के करोड़पति  ताँगा हांकते देखे गये हैं ।

आज के युग में किसी  भी परिवार की सबसे बड़ी एवं महत्वपूर्ण शक्ति “आर्थिक  शक्ति” ही समझी जा रही है। रुपए-पैसे से क्या कुछ नहीं ख़रीदा जा सकता,किस पर धौंस नहीं जमाई जा सकती, हम सब इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं। हमारी माता जी कहा करती थीं “पैसा सब कुछ तो नहीं है लेकिन बहुत कुछ अवश्य है।” अन्य शक्तियों की  भांति आर्थिक शक्ति का संचय एवं सुरक्षा, इस शक्ति की फिज़ूलखर्ची न करना,सूझबूझ एवं विवेक के साथ ज़रूरी कार्यों में खर्च करना आदि कुछ ऐसे उपकरण हैं जिनके सही प्रयोग से हम आर्थिक शक्ति का सदुपयोग कर सकते हैं। सूझबूझ न होने के कारण ही अनुभवहीन व्यक्ति बिजिनेस में घाटा उठाते हैं। कई बार तो पूरा जीवन उस घाटे को चुकाने में गुज़र जाता है, सारा जीवन ब्याज चुकाते रहने में ही बीत जाता है।

गुरुदेव बता रहे हैं कि यदि मनुष्य के पास व्यापक मात्रा में धन हो, तो भी विवेकशील  होकर ही, बुद्धिमत्ता से इसका खर्च करना चाहिए। कोई पता नहीं कब  ऐसी स्थिति आ ही जाए जब पछताना ही एकमात्र विकल्प रह जाए । बॉलीवुड फिल्मों, टीवी सीरियल्स,परिवार में हो रही घटनाओं से,फेसबुक/मेसेंजर जैसी सोशल मीडिया साइट्स पर आये दिन इस विषय पर बहुत ही रोचक कहानियां पोस्ट होती रहती हैं, यदि हम इन कहानियों को केवल अंगूठा दिखाकर,पढ़ने से कन्नी काटते हुए अपने कर्तव्य की पूर्ती समझें तो हमारी बहुत बड़ी गलती होगी। इसी सन्दर्भ में अभी कुछ दिन पूर्व ही पोस्ट हुई आदरणीय चिन्मय जी की दिव्य वाणी में वीडियो शेयर करना उचित समझते हैं जिसमें पैसा कमाने के दो तरीके बताए गए हैं  : https://youtube.com/shorts/49tYDS1kcwE?si=9hBWZRupRjXNSOwb

ऐसे अनेकों व्यक्ति हुए हैं  जिन्होंने देखते-देखते अपनी सारी सम्पत्ति फिजूलखर्ची में बर्बाद कर दी और सिर पर कर्ज लाद लिया। अव्यवस्थित ढंग से खर्च करने के कारण उन पर सूद-दर-सूद का क़र्ज़ बढ़ता ही गया और उससे छुटकारा पाना मुश्किल हो गया। अपनी आर्थिक शक्ति को अदूरदर्शिता (Un-farsightedness)  और अविवेकपूर्ण (Un-intelligently) ढंग से खर्च करते रहने पर एक ऐसी  स्थिति आ जाती है कि जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की  पूर्ति के लिए कामचलाऊ पैसा तक भी नहीं बचता। ऐसी स्थिति आने पर ही यह विचार आता है कि उस समय फिजूलखर्ची में पैसा न गंवाया होता  तो अच्छा रहता। ऐसी स्थिति में तो “अब पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गयी खेत” वाली बात ही फिट बैठती है। 

लेकिन क्या करें हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ किसी भी परिस्थिति में, कोई न कोई साथी संगी सहायता करने को प्रकट हो  ही जाता है। जिस मनुष्य का, उसकी ही गलती (दुरूपयोग)के कारण   नुकसान हुआ है, वोह तो रो ही रहा है, साथिओं की हमदर्दी भी बटोर रहा है लेकिन शायद ही कोई इतना साहसी हो जो उसे उसकी गलती का अहसास करा सके, शायद ही कोई उसे डाँट सके। सगे-सम्बन्धी  तो उसे हल्ला-शेरी देते हुए, उसकी गलती को नकारते हुए आर्थिक सहायता करने को तैयार हो जाते हैं। ऐसा करने  में उसे और हिम्मत मिलती है और कोई बड़ी बात नहीं कि अगली बार वह और भी बड़ा नुक्सान कर दे। 

ऐसी आर्थिक स्थिति में यदि कोई सही मार्गदर्शन प्रदान कर सकता है तो वह है “परम पूज्य गुरुदेव का दिव्य साहित्य” जिसमें गुरुदेव अपने साहित्य को पढ़ाने के लिए डाँट  भी देते हैं। हमारे पूर्णतया व्यक्तिगत विचार में इस डाँट को गुरु का स्नेह और अपनत्व ही समझ कर ग्रहण करना चाहिए क्योंकि वोह हमारे भले के लिए ही डाँट रहे हैं, वोह हमारे  शुभचिंतक हैं न कि कोई शत्रु। इसीलिए हम  बार-बार गुरुवर की शार्ट वीडियो शेयर करते रहते हैं कि जिनके पास समय का बहाना है, कम से कम  इतना ही देख लें की हमारा गुरु हमें अपना साहित्य पढ़ने को क्यों कह रहा है :  https://youtu.be/qZPIS1eU3GA?si=5zXF87tX6YzCPuGE 

वोह हमें आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं, अरे भैया कब तक दूसरों की सहायता  पर, दूसरों की दया पर पलते रहोगे। आपके (विशेषकर युवा साथिओं) पास असीम शक्ति है, अगर इसका आज सदुपयोग नहीं किया तो सारा जीवन एक अपाहिज की भांति ही गुज़ार दोगे; जागो, उठो और स्वयं को पहचानो। 

आज के इस दिव्य लेख का समापन गुरुदेव के निम्नलिखित सन्देश से कर रहे हैं :        

हमारे युवासाथिओं को चाहिए कि अपने मानसिक क्षेत्र में अनचाहे और निरर्थक चिंतन को निकाल फैंकें, उनके स्थान पर उपयोगी और सार्थक विचारों का बीजारोपण करें। शाररिक दृष्टि से इंद्रियों को विषय-विकार की विकराल अग्नि में स्वाहा न होने दें,अन्तर्मुखी बनें, स्वयं को पहचानें, अपनी प्रतिभा का मूल्यांकन करें, भौतिक सम्पदा का सही उपयोग करना सीख लें तो ईश्वर द्वारा प्रदान किया गया जीवन धन्य हो सकता है। जीवन के उत्कर्ष, चरम तक पहुँचने के लिए प्रयासरत हर साधक को चाहिए कि संयम की विभिन्न धाराओं की सही ढंग से समझे तथा जीवन में उनका समावेश करें, इस से कम में कुछ भी होने वाला नहीं है। 

धन्यवाद्,जय गुरुदेव। कल तक के लिए मध्यांतर 


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