वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

भोग-विलास से केवल भौतिक सुख ही प्राप्त होता है 

गुरुवार को साथिओं को वचन दिया था कि असंयमित जीवन में “लिप्सा”, “भोगेच्छा” का क्या योगदान है एवं गीता में इस स्थिति का क्या उपदेश है,सोमवार को जानने का प्रयास करेंगें। तो साथिओ,उसी वचन का पालन करते हुए  आज का दिव्य ज्ञानप्रसाद लेख प्रस्तुत है। परम पूज्य गुरुदेव की 69 पृष्ठीय दिव्य रचना “शक्ति संचय का  स्रोत-संयम” पर आधारित वर्तमान लेख श्रृंखला का एक ही सन्देश है “गुरुज्ञान को अंतःकरण में उतारना,अपने ऊपर Apply करना,समझना और प्राप्त हुए परिणामों को आधार बना कर जनसाधरण को प्रेरित करना।” यदि यह सन्देश लोगों के ह्रदय में उतर जाता है, ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार तभी संतुष्ट हो पायेगा। 

इसी सन्देश के साथ, विश्वशांति की कामना करते हुए आज के दिव्य ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ होता है: 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: 

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लिप्सा (Lust) ही असयंम का मुख्य कारण है। इसे भोगेच्छा (भोग विलास की इच्छा- Desire for enjoyment)  भी कहा जाता है। महापुरुषों ने इसे जीतने के लिए अनेकों प्रकार से सचेत किया है और समझाया है कि भोगों में मनुष्य को सुख नहीं मिल सकता। 

गीताकार ने तो कहा है:

सांसारिक वस्तुएं प्राप्त होने पर सुख की अनुभूति अवश्य होती है।  “मन” जो छठी इन्द्रिय है, उसे सम्मान, प्रशंसा और सफलता आदि में सुख की अनुभूति होती  है। शरीर और मन के इन सभी सुखों के भोग को लौकिक सुख के रूप में जाना जाता है लेकिन गीता-उपदेश यह भी कहता है कि सांसारिक सुख निम्नांकित कारणों से “आत्मा को संतुष्ट नहीं कर सकते”,निम्नलिखित उदाहरण संतुष्टि को समझने में सहायक हो सकते हैं: 

1.सांसारिक सुख सीमित है इसलिए इनमें स्वाभाविक रूप से “कुछ कमी तो है”  की प्रतीति बनी रहती है। कोई व्यक्ति लखपति होने में प्रसन्न रहता है लेकिन वही लखपति जब करोड़पति को देखता है तो असंतुष्ट हो जाता है और सोचता है कि यदि उसके पास एक करोड़ रूपये होते तो  वह और भी सुखी होता। इसके विपरीत “ईश्वर का सुख असीम है” और उससे पूर्ण संतुष्टि प्राप्त होती है।

2.सांसारिक सुख अस्थायी होते हैं क्योंकि एक बार जब यह समाप्त हो जाते हैं तब पुनः दुःख की अनुभूति करवाते हैं। मदिरापान करने वाला व्यक्ति मदिरा का सेवन कर आनन्द प्राप्त करता है लेकिन सुबह जब नशे की खुमारी उतर कर सिरदर्द के रूप में फूटती है तो न पीने की तौबा तो करता है लेकिन शाम होते ही फिर तलब उठना शुरू हो जाती है। ऐसा आनंद किस काम का ? ईश्वर का सुख शाश्वत है और एक बार प्राप्त होने पर सदा के लिए रहता है, ऐसे सुख की खुमारी की अनुभूति तो वही बता सकते हैं जो प्रभुप्रेम में डूबे हैं।  

3.सांसारिक सुख जड़ हैं  और इसी कारण उनका निरन्तर बदलाव और नाश  होता रहता है। जब हम फिल्म अकादमी द्वारा पुरस्कृत किसी सुपरहिट मूवी को देखते हैं तब वह अत्यंत आनन्द प्राप्त कराती है किन्तु जब उसी मूवी को दूसरी बार देखते हैं तो आनन्द की मात्रा कम हो जाती है, तीसरी बार देखने का आग्रह तो खिन्नतापूर्वक यही उत्तर देता है  कि इस मूवी को  देखने के स्थान पर कोई दंड दे दिया जाये। भौतिक पदार्थों से प्राप्त होने वाले सुखों का जैसे-जैसे उपभोग किया जाता है वैसे-वैसे उनमें निरन्तर कमी आती जाती है।

ऊपर दिए गए तीनों उदाहरण व्यक्तिगत हैं। लखपति से करोड़पति और करोड़पति से अरबपति बनने वालों की लिप्सा कहाँ कम होती है ? मदिरापान करने वाले को सुबह की सिरदर्द कब रोक पायी है? अच्छी मूवी तो बार-बार देखी जाती है। इसलिए यही कहा जा सकता है अध्यात्मिकता और भौतिकता की तुलना हो ही नहीं सकती  

इसी विषय को एक और उदाहरण से समझा जा सकता है :  

मान लीजिए कोई व्यक्ति बहुत भूखा है। अगर उसे स्वादिष्ट भोजन मिल जाए, तो उसका शरीर संतुष्ट होगा। अगर उसे सम्मान और प्रशंसा मिल जाए, तो उसका  मन संतुष्ट होगा लेकिन अगर वही व्यक्ति किसी गरीब भूखे को खाना खिला देता है और भूखे के चेहरे पर सच्ची खुशी देखता है, तो उसे जो गहरी शांति और आनंद महसूस होता है, वह आत्मा की संतुष्टि है। यह संतुष्टि स्थायी होती है, क्योंकि यह बाहर से नहीं बल्कि भीतर से प्रस्फुटित होती है।

इन पंक्तियों से यही सन्देश मिलता है कि 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर ,वर्तमान चर्चा से सम्बंधित अनेकों Full length लेख लिखे जा चुके हैं, 2022 में इस विषय पर एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था “आंतरिक सुख ही स्थाई सुख है” इस लेख का लिंक नीचे दे रहे हैं जो पाठकों के लिए लाभदायक हो सकता है:

Economics  में Law of Diminishing Returns का सिद्धांत पढ़ाया जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार जैसे-जैसे हम किसी वस्तु का निरन्तर उपयोग करते हैं वैसे-वैसे उस वस्तु से मिलने वाला लाभ  घटता रहता है लेकिन अध्यात्म में यह सिद्धांत काम नहीं करता, यहाँ तो बिलकुल उलट सिद्धांत है, जैसे-जैसे ईश्वर भक्ति में लीन  होते जाते हैं, आत्मिक शांति बढ़ती ही जाती है। आइए इस सिद्धांत को भी उदाहरण से ही समझने का प्रयास करें।  

मान लीजिए कोई किसान खेत में खाद डालता है। खाद  की पहली बोरी से उत्पादन बहुत बढ़ा। दूसरी बोरी से भी बढ़ा लेकिन पहले  जितना नहीं। तीसरी बोरी से उत्पादन में वृद्धि और कम हो गई। यह Law of Diminishing Returns है।

अब ईश्वर भक्ति को देखें: पहली बार नाम स्मरण करने से मन थोड़ी देर शान्त हुआ। बार-बार जप करने से मन गहराई से स्थिर होने लगा, और अधिक भक्ति करने से हृदय में प्रेम, शांति, करुणा बढ़ती चली गई। आध्यात्मिकता में लाभ घटता नहीं बल्कि अनन्त बढ़ता ही जाता है, ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के अनेकों साथी इस तथ्य के साक्षी हैं। 

इसलिए भौतिक संसाधनों में Law of decreasing returns  चलता है, जबकि ईश्वर भक्ति में “Law of increasing Returns” चलता है।
भक्ति में जितना गहराई से उतरते हैं, उतना ही लाभ,आनन्द और आत्मिक संतोष बढ़ता है। यह सत्-चित्-आनन्द अर्थात् शाश्वत, चिरनूतन और दिव्य है। इस प्रकार यदि कोई भगवान का दिव्य नाम पूरा दिन जपता रहता है तब उसे आध्यात्मिक संतुष्टि और स्थाई आनन्द की प्राप्ति होती है। जब कोई मनुष्य  परम आनन्द की अनुभूति करना आरम्भ कर देता है तब मन भौतिक वस्तुओं से प्राप्त होने वाले आनंद को भुला देता है। वह Materialism, भौतिकता से दूर जाना शुरू कर देता है। ऐसे मनुष्यों को उचित और अनुचित का अंतर् समझ आना शुरू हो जाता है अर्थात वह विवेकशील बन जाते हैं, ऊपर दी गयी  लौकिक सुखों की तीनों कमियों को समझ जाते हैं और अपनी इन्द्रियों को उस ओर आकर्षित होने से रोकते हैं।

मनुष्य जब सुख की खोज में वस्तुओं को साधन बनाकर प्रयत्न प्रारम्भ करता है, मन और बुद्धि को उस ओर केंद्रित करता है तो उसके लिए अनेकों दुःखों का सूत्रपात होता है । मनुष्य जब शरीर की आवश्यकता के लिए नही,जीभ की तृप्ति के लिए तरह-तरह के सूस्वादु भोजन करता है तो परिणाम रोग, शारीरिक कष्टों के रूप में ही प्राप्त होता है । यही बात जननेन्द्रिय (Sex organs) के सम्बन्ध में भी है। ईश्वर ने यह Organs संतानोत्पति के लिए प्रदान किये हैं लेकिन जब मनुष्य भोग-विलास  को प्रधान मानकर विषयों में प्रवृत्त होता है,प्रकृति की मर्यादा का उल्लंघन करता है तो उसका दण्ड उसे भयंकर रोगों एवं  जीवनी शक्ति के नाश  के रूप में भोगना पड़ता है। 

बहुत से लोग अपने जीवन की बुरी  स्थिति का दोष भाग्य को देते हैं लेकिन निष्पक्ष होकर देखा जाय तो समझ में आता है कि ऐसा है नहीं। यह तो वही बात हो गयी की यदि  कुछ अच्छा हो गया तो स्वयं को श्रेय दे दो, गलत हो गया तो ईश्वर को कठगरे में खड़ा कर दो। यात्रा पर चलते समय समझदार व्यक्ति अपने साथ उचित पैसा एवं अन्य साधन लेकर चलता है। यात्रा के दौरान यदि ठीक से खर्च न किया जाय तो साथ रखी गयी रकम बीच में ही खर्च हो सकती है और अनजान जगहों  में परेशानी खड़ी हो  सकती है। जीवन की यात्रा में भी हम निश्चित लक्ष्य बनाकर ही निरन्तर यात्रा करते रहते हैं। यदि जीवन यात्रा का व्यवस्थित क्रम सुनियोजित रीति से प्रयुक्त न किया जाय तो बीच में ही रुक जाने की स्थिति आ जाती है।

अक्सर  समझा जाता हैं कि शक्तियों की फिजूलखर्ची “इन्द्रियों” के द्वारा होती है लेकिन असंयम की जड़ हमारे “मन” के भीतर रहती है।  इन्द्रियां तो केवल “मन” की प्रेरणा मात्र से काम भर करती हैं। ईश्वर ने तो आँखे देकर, “दृष्टिरुपी इन्द्रिय (Sense of sight)” प्रदान कर मनुष्य को एक उत्कृष्ट उपहार दिया है लेकिन उसे क्या देखना है उसका निर्णय तो मनुष्य का “मन” ही करता है। किसी भी विषय को भोगने की लालसा सर्वप्रथम “मन” में ही उठती है और उसका रस भी “मन” को ही आता है। यही लालसा “निर्भयकाण्ड” जैसे दुष्कर्म कराती है। “मन की प्रेरणा” पर अवयव असमर्थ होते हुए मानव नीच से नीच और समर्थ होते हुए उच्च से उच्च कार्य कर जाता है। 

आँखे दुखने तक की स्थिति आ गयी है,उनमें पानी भी चल रहा है  लेकिन रोचक टीवी सीरियल छोड़ना बहुत ही कठिन होता है। जीभ में छाले पड़ गए हैं, पता भी है कि चटपटी चीजें खाने से छालों का कष्ट और भी बढ़ जाएगा एवं और अधिक कष्ट उठाना पड़ेगा लेकिन “मन” में उठ रही “स्वाद वासना” से विवश होकर जीभ को चटपटे पदार्थ खाना पड़ते हैं, बड़ी हैरानगी होती है जब  किसी को कहते हुए सुनते हैं कि “दुनियादारी के लिए, उसका दिल रखने के लिए, खाना पड़ा”, जैसे किसी ने कोई ज़बरदस्ती की हो !!!! 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रकाशित एवं प्रसारित हो रहा साहित्य इसी उद्देश्य को लेकर आगे ही आगे बढ़ता जा रहा है, इसके लिए परम पूज्य गुरुदेव का जितना भी धन्यवाद् करें कम  ही रहेगा। 


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