वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

“संयम” Impractical क्यों सिद्ध होता जा रहा है ?

क्या “संयम” केवल स्वयं पर प्रतिबंध लगाना ही है यां स्वयं को नियंत्रित करना है ? आज के ज्ञानप्रसाद लेख में इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर ढूंढने का प्रयास किया गया है। परम पूज्य गुरुदेव की 69 पृष्ठीय दिव्य रचना “शक्ति संचय का  स्रोत-संयम” में दी गयी शिक्षा की सहायता से, अनेकों उदाहरण देकर इस विषय को समझने का प्रयास किया गया है। पूर्ण विश्वास है कि गुरुकुल की गुरुकक्षा में गुरुचरणों में बैठे सभी गुरुशिष्य इस गुरुअमृतप्रसाद को ग्रहण करके लाभान्वित होंगें, उनके द्वारा पोस्ट किये जा रहे कमैंट्स/काउंटर कमैंट्स हमारा उत्साहवर्धन करने के साथ, हमें मार्गदर्शन  भी प्रदान कर रहे हैं, सभी सहपाठिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। 

आज नवरात्रि  के चौथे दिन माँ कूष्मांडा का ध्यान करते हुए आज के लेख का शुभारम्भ करते हैं।

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मानवीय कलेवर में सन्निहित और बह रही  शक्ति का सदूपयोग न किया जाय तो वह यां तो कोई हानि पंहुचाएगी यां नीचे की ओर बह  जाएगी। पानी का गुण है, बहना, यदि वह अनियंत्रित बहने लगे तो बड़े-बड़े नुकसान कर सकता है। बाढ़ें क्या है ? वर्षा के पानी का अनियंत्रित बहाव ही तो है। यदि बांध बना कर पानी को रोक दिया जाय तो बिजली पैदा की जा सकती है, यह विकास है। उसी पानी को यदि अनियंत्रित बहने दिया जाए तो बाढ़ के रूप में विनाश का कारण बनता है। छप्पड़ में रुका हुआ पानी तो बदबू और कीड़े मकोड़ों का Breeding place बनेगा। 

उपरोक्त चर्चा एवं उदाहरणों से एक ही सन्देश निकल कर आता है कि  मनुष्य को अपनी उपलब्ध शक्ति का  सही दिशा में प्रयोग करके  ही उससे वास्तविक  लाभ उठाया जा सकता है ।

“उपलब्ध शक्तियों” की फिजूलखर्ची को रोक कर उसे कल्याणकारी कार्यों में लगाने का नाम ही “संयम” है। मनीषियों और महापुरुषों ने इसे जीवन का आवश्यक अंग बताया है। आज तक “संयम” का एकांगी अर्थ ही समझा जाता रहा है। शक्तियों के प्रवाह को कंट्रोल करना ही “संयम” समझा जाता रहा है जो कि ग़लत धारणा है। यदि शक्तियों के प्रवाह को रोका जाता रहे तो लाभ के स्थान पर हानि होने का अंदेशा अधिक होता है।

यहां एक बहुत ही प्यारा सा उदाहरण दिया जा सकता है।

नवजात शिशु ईश्वर का उत्कृष्ट वरदान है, ईश्वर की संतान है, उसका राजकुमार है। ईश्वर उसे असीम शक्तियों विभूतियों से लैस करके इस दुनिया में अवतरित करते हैं। यही कारण है कि संसार में आने के कुछ दिनों में ही शिशु आँखें खोलकर,जिज्ञासाभरी दृष्टि दौड़ाकर,अनेकों प्रश्नों के उत्तर ढूंढना आरंभ कर देता है।ज्यों ज्यों समय गुजरता जाता है, उसके जिज्ञासाभरे  प्रश्नों का भंडार बढ़ता ही जाता है। ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी असीमित ऊर्जा से वह इधर-उधर भाग कर सब कुछ जानना चाहता है, कभी सोफे के ऊपर, कभी सीढ़ियों के नीचे, न जाने यह ऊर्जा उससे क्या कुछ करवाना चाहती है। माँ का सारा समय, सारी शक्ति शिशु की नटखट गतिविधियों में ही गुज़र जाता है। यदि शिशु की शक्ति को, हरकतों को रोक दिया जाए, उन पर “संयम” लगा दिया जाए तो आने वाले समय में किस तरह का मनुष्य बनता है हम सब जानते हैं। इसी तरह का एक और उदाहरण Chained  dog का स्मरण हो रहा है। ईश्वर ने कुत्ते को मालिक की रखवाली करने के लिए, भोंक कर सतर्क करने की विशेषता देकर इस संसार में भेजा है, अक्सर देखा गया है कि “संयम” का पाठ पढ़ाने की दृष्टि से हमेशा बांधे रखे जाने वाले कुत्ते इतने खूंखार बन जाते हैं कि अपने मालिक पर ही आक्रमण कर देते हैं। 

नदिओं का पानी बांध बना कर रोक दिया जाए, न उससे  सिंचाई का काम लिया जाय और न ही बिजली पैदा की जाए तो एकत्रित होता जा रहा पानी विनाश ही प्रस्तुत करेगा। अब तक  “संयम” की  जो एकांगी व्याख्या दी  जाती रही है, उसी कारण यह अव्यवहारिक (Impractical) सिद्ध होता जा रहा है। यह Impractical इसलिए सिद्ध होता दिख रहा है क्योंकि शक्तियों को प्रवाह की दिशा तो मिलनी ही चाहिए, न मिलेगी तो वे विपरीत परिणाम उपस्थित करेंगीं। 

तो फिर क्या किया जाए ? शिशु के मन  में जो आए, उसे करने देना चाहिए,रोक-टोक बिलकुल नहीं करनी चाहिए? अगर वोह विनाश की तरफ जा रहा है/रही  है उसे संयम बरतने के लिए नहीं कहना चाहिए?

अवश्य कहना चाहिए, रोकना चाहिए क्योंकि “संयम” का  अर्थ शक्तियों के प्रवाह को निरर्थक और हानिकारक दिशा से रोक कर सार्थक और कल्याणकर दिशा में लगाना है। “संयम” के इसी स्वरूप को “जीवन धर्म कर्तव्य” बताया गया है । 

“संयम” का अर्थ अपनी इंद्रियों, इच्छाओं और वासनाओं को नियंत्रित करना है, रोकना कदापि नहीं है। “संयम”  धर्म इसलिए कहलाता है क्योंकि “संयम” ही मनुष्य को मानवता, सदाचार और उच्च आदर्शों की ओर ले जाता है। भीष्म पितामह ने आजीवन ब्रह्मचर्य का  व्रत लेकर “संयम” का ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया कि राज्य की स्थिरता बनी रही और वह पूरी राजसभा के मार्गदर्शक बने। उनका “संयम” ही उनका सबसे बड़ा धर्म और कर्तव्य था। कोई विद्यार्थी जब मोबाइल, मनोरंजन या आलस्य के आकर्षण को छोड़कर पढ़ाई में मन लगाता है, तो वह “संयम” का पालन करता है। विद्यार्थी का अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना, उन पर अंकुश लगाना, उसके भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए है, एक विद्यार्थी का यही धर्म और कर्तव्य है।

“संयम” को  धर्म इसलिए कहा गया है क्योंकि यह एक बड़ी भलाई और कर्तव्य निभाने की दिशा में जाने का राजपथ है जिसके लिए छोटी-छोटी इच्छाओं का  बलिदान करना कोई बड़ी बात नहीं  है। “संयम” एवं धर्म कर्तव्य के  अनेकों उदाहरण हमें अपने समाज में मिल जायेंगें। कोरोना काल मे  कई स्वास्थ्यकर्मी महीनों अपने परिवार से दूर रहे, यही  उनका धर्म और कर्तव्य था। सीमा पर तैनात सैनिक छुट्टियों और घर-परिवार की इच्छाओं को त्याग कर राष्ट्र की रक्षा करते हैं क्योंकि उनके लिए  “संयम” ही राष्ट्रधर्म है। परिश्रमी विद्यार्थी  मनोरंजन, मोबाइल, घूमना-फिरना सब त्याग कर “संयम” से पढ़ाई करता है, जिससे भविष्य सुरक्षित होता है क्योंकि वह जानता है कि “संयम” ही छात्र-धर्म और कर्तव्य है। माता पिता अपने बच्चों के लिए अपनी इच्छाओं को त्याग देते हैं क्योंकि यही उनका  परिवार-धर्म है।

आध्यात्मिक व्यक्ति भोजन, वाणी और नींद में “संयम” रखकर साधना करता है क्योंकि वह जानता है कि उसका “संयम” ही आत्म-धर्म और समाज के लिए प्रेरणा है। इन सभी उदाहरणों से निष्कर्ष तो यही निकालता है कि “संयम” केवल तपस्या या त्याग नहीं है। यह अपने स्वार्थ और क्षणिक इच्छाओं को दबाकर बड़ी जिम्मेदारी, धर्म और कर्तव्य निभाने का नाम है।

आइए इसी सन्दर्भ में “राजा और आम का पेड़” की रोचक कहानी से इस चर्चा का Flow बढ़ाएं: 

एक बार एक राजा अपने बगीचे में टहल रहा था। वहाँ एक आम का पेड़ था जिस पर पके आम लगे हुए थे। राजा को आम खाने की इच्छा हुई, उसने अपने मंत्री से कहा: “इतने मीठे आम हैं, तोड़कर ले आओ।”

मंत्री मुस्कुराया और बोला: “राजन, यह आम का पेड़ किसी साधु का है। साधु ने वर्षों तक “संयम” रखकर इन आमों को उगाया है। वह खुद भी कम खाता है, बाकी लोगों को बाँटता है। अगर हम बिना पूछे खा लेंगे, तो यह अन्याय होगा।” राजा चौंका और बोला: “लेकिन  मैं तो  राजा हूँ, मेरे लिए क्या वर्जित है?”

मंत्री ने शांत स्वर में उत्तर दिया: “महाराज, “संयम ही धर्म है ।” जब आपके पास सब कुछ है, तो किसी और का अधिकार लेना आपका कर्तव्य नहीं, बल्कि अधर्म है। अगर आप अपनी जीभ पर “संयम” रखेंगे, तो प्रजा भी संयमी और न्यायप्रिय बनेगी क्योंकि जैसा राजा वैसी प्रजा सनातन तथ्य है।” राजा ने यह सुनकर आम नहीं खाया और साधु से आशीर्वाद माँगा। इस कहानी से भी यही शिक्षा मिलती है कि  “संयम” केवल स्वयं को रोकना नहीं बल्कि दूसरों के अधिकार और बड़े हित का ध्यान रखना भी है। राजा ने जब अपनी जीभ पर संयम रखा, तब वह अपने राजधर्म का पालन कर सका।

इस स्तर के संयम को सिद्ध करने के लिए जितने भी प्रयास किये जायेंगें  वे हमारे  व्यक्तित्व  को उत्कृष्ट और प्रखर बनाते चले जायेंगे । इस “संयम”  के अभाव में उत्कृष्ट जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती । कोई भी व्यक्ति शक्तियों के अपव्यय में जानबूझ कर प्रवृत्त नहीं होता। अनजाने या नासमझी से ही वैसी ग़लती  हो जाती है, जब तक ग़लती  समझ में आती है तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि वे ग़लतियाँ  स्वभाव बन चुकी होती हैं, तब उन आदतों  से छुटकारा पाना कठिन हो जाता है । उदाहरण के लिए बच्चा यह नहीं समझता कि क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए। उसके सामने जो भी वस्तुएं  बार-बार रखी जाती हैं वह उन्हें  ही पसन्द करने लगता है, वे वस्तुएं ही उन्हें प्रिय लगने लगती हैं, उन्हीं के लिए वे आग्रह करने लगता है । बाद में समझ आने पर जब उन वस्तुओं के गुण दोषों का पता चलता है तो मन में इतना साहस उत्पन्न नहीं होता कि उन वस्तुओं के दोषों को समझ कर उन्हें छोड़ दिया जाय। ऐसे मनुष्यों के चित्त पर स्वाद इतना हावी हो जाता है और उन्हें असंयमी बना देता है। यहाँ  तो स्वाद की बात हो रही है, हमारे आसपास कितने ही असंयमी व्यक्ति देखे जा सकते हैं जो समय एवं समाज की  बहती बाढ़ में, झूठी वाहवाही एवं सामाजिक शान में एक ऐसी आंधी में उड़े जा रहे हैं कि  उन्हें किसी भी तरह का “संयम” गवारा नहीं है, उनका तो जन्म ही “Eat, drink and be merry” के लिए हुआ है, “खाओ, पियो,ऐश करो, कल किसने देखा है”, यही उनके जीवन का Motto है। 

ऐसे असयंमित जीवन का मुख्य कारण लिप्सा है, जिसे भोगेच्छा भी कहा जाता है, सोमवार वाले लेख में देखेंगें कि गीता में इसे किस प्रकार समझाया गया है। 

तब तक के लिए मध्यांतर, 

धन्यवाद् जय गुरुदेव  


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