23 सितम्बर,2025 का ज्ञानप्रसाद- Source: गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां
ध्यान साधना की श्रृंखला का आज 14वां एवं समापन लेख प्रस्तुत किया जा रहा है। 374 पन्नों की गुरुदेव की उत्कृष्ट रचना “गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां” का अमृतपान करके हम से जो बन पाया,हमने समझकर साथिओं के समक्ष प्रस्तुत किया, निष्कर्ष यही निकला कि उच्चस्तरीय साधना कोई बच्चों का खेल नहीं है, इसके लिए विस्तृत ज्ञान,संकल्पशक्ति, योग्य गुरु/मार्गदर्शक, समय एवं और न जाने किन-किन साधनों की ज़रुरत है, यह कोई हथेली पे सरसों ज़माने वाली बात नहीं है की चुटकी बजाते ही सब कुछ संभव हो जाए। पर्याप्त ज्ञान प्राप्त करने के बाद, लगातार अभ्यास से ही कुछ संभव हो सकता है।
इसी स्थिति को देखते हुए हमारे गुरुदेव ने हम जैसों के लिए एक बहुत ही सरल/सामान्य साधना बताई है जिसे आजकल के लेख में समाहित किया गया है, गुरुदेव कहते हैं की यदि इतना भी कर लो तो बहुत बड़ी बात है, बिना उचित ज्ञान और अभ्यास से ऊँची छलांग मारने से टांगें टूटने का डर रहता है।
तो आइए विश्वशांति की कामना के साथ आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ करें:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
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मानव शरीर में स्थित पांच कोशों को जागृत करने के लिए साधक को कठिन उच्चस्तरीय तपश्चर्याऐं करनी होती हैं। तपाने से मनुष्य कुछ से कुछ हो जाता है लेकिन यह बातें लिखने के लिए तो ठीक हैं,जब करने को आती हैं तो बड़े-बड़ों के साहस टूट जाते हैं। परम पूज्य गुरुदेव जैसी संकल्पशक्ति, गुरु-आदेश का पालन, समाज के प्रति भाव-संवेदना शायद ही हम में से किसी के पास भी होगी। गुरुवर को अपने बच्चों का पता था, उनके संकल्प की जानकारी थी, यही कारण है कि उन्होंने इतनी सरल एवं सामान्य साधना की रचना कर दी जिसे कोई भी कर सकता है। यदि इस निम्नलिखित साधना के करने में भी कोई दिक्कत है तो फिर यही समझा जा सकता है जीभ का स्वाद, शरीर के साथ मोह, भवसागर से प्यार जैसे बंधन हमें बहानेबाज़ी की और धकेल रहे हैं:
गुरुदेव बताते हैं कि सबसे “सामान्य साधना” मात्र सीमित सन्तुलित और सात्विक भोजन करना ही है, यही “अन्नमय कोश” की साधना कही जाती है। अगर कोई मनुष्य इस प्राथमिक स्टैप को ही नहीं निभा सकता तो अगला स्टैप जिसे प्राणमय कोश कहा जाता है वोह कैसे प्राप्त होगा। कल वाले लेख में भी “जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन” का बात हुई थी, उसी सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि साहस, संकल्प, पराक्रम को कडा़ई से अपनाने को “प्राणमय कोश” की साधना कहते हैं । श्रेष्ठता की खोज, उसे ही देखना, श्रेष्ठ ही सोचना विचारणा “मनोमय कोश” की साधना के अंतर्गत आता है। इसी तरह संकीर्णता (तंगदिली) छोड़कर विशालता के साथ जुड़ जाने पर “विज्ञानमय कोश” सधता है। सादा जीवन, उच्च विचार की साधना, बच्चों जैसी निश्छलता,निष्कपट की आदत डालने पर, हार-जीत में हँसते रहने वाले प्रज्ञावानों की तरह, हर किसी अवसर में आनन्दित रहने वाली साधना को “आनन्दमय कोश साधना” कहा जाता है।
कई बार देखने भर से मन द्रवित हो जाता है की संसार में हो क्या रहा है, सारी दुनिया किस अंधी दौड़ में भागे जा रही है ? वह क्या प्राप्त करना चाहती है ? हंसना,मुस्कराना, प्रसन्न होना, बच्चों के साथ खेलना, बच्चों की भांति अठखेलियां मारना, सब कहाँ लुप्त हो गया है ? परिवार नुक्लिअर हुए जा रहे हैं, एक यां दो बच्चे (यां फिर वोह भी नहीं), क्या परिवार की यही परिभाषा है? एक दूसरे के साथ मिलना ही नहीं है तो भाव-संवेदनाएं का कैसे अनुभव होगा? आनंदमय कोश कैसे जागृत होगा ? सत-चित-आनंद की अनुभूति कैसे हो पायेगी? गुरुवर ने आज की स्थिति को देखते हुए ही सुगम पंचकोशी साधना का आविष्कार किया, उन्हें विश्वास था कि मेरे बच्चे इतना तो कर ही लेंगें। ऐसा गुरु कहाँ से मिलेगा जिसने अपना सब कुछ अपने बच्चों के लिए ही वसीयत में दे दिया, यही हमारे गुरुदेव की विरासत है। गुरुवर ने हमारे लिए इतना विशाल साहित्य लिख दिया,अनगनित वीडियो/ऑडियो कैसेटस रिकॉर्ड करवा दिए, अमृतवाणी का उपहार दे दिया, और न जाने हमें क्या कुछ दे दिया, साथ में अमृतपान के लिए बार-बार निवेदन भी किया। आइए आज्ञाकारी संतान की तरह गुरुवर की आज्ञा का पालन करें।
ऊपर वर्णन की गयी साधना को गुरुदेव ने “सर्वसाधारण की अतिशय सुगम पंचकोशी साधना” कहा। हमारे साथिओं ने पिछले कुछ दिनों में प्रकाशित लेखों में जाना कि उच्चस्तरीय पंचकोश साधना के लिए एकान्त मौन, स्वल्पाहार, संयम, लक्ष्य के प्रति तन्मयता जैसे अनुबन्ध अपनाने पड़ते हैं। इसके लिए ऐसी कष्ट साध्य तपश्चाऐं करनी पड़ती हैं जिसके सम्बन्ध में अनुभवी मार्गदर्शकों की सहायता से ही योजनाबद्ध कार्यपद्धति निर्धारित की जाती है। इसमें पग-पग परामर्श और मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है जिसकी पूर्ति अनुभवी सिद्ध पुरुष ही कर सकते हैं।
इस सन्दर्भ में इन तथ्यों को भी जान लेना आवश्यक है कि अन्नमय कोश का अर्थ है इन्द्रिय चेतना, प्राणमय कोश का अर्थ है जीवनी शक्ति, मनोमय कोश का अर्थ है विचार बुद्धि, विज्ञानमय कोश का अर्थ अचेतन सत्ता एवं भाव प्रवाह एवं आनन्दमय कोश का अर्थ है आत्म- बोध।
पिछले कुछ दिनों से जिन पांच कोशों की चल रही है,इन्हीं कोशों (परतों) के अनुरूप संसार के सभी प्राणियों का जीवन विकसित होता है। मनुष्य की तुलना में देखा जाए तो कीड़े-मकोड़ों की चेतना इन्द्रियों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है, उनके लिए शरीर ही सर्वस्व होता है जो “स्व काया” की परिधि में ही सीमित रहता है। इससे आगे की न उनकी इच्छा होती है, न विचारणा, न क्रिया। यही कारण है कि जो मनुष्य सारा जीवन इस हाड-मांस के शरीर को ही सजाते-संवारते,तरह-तरह से उपकरणों से समाज में झूठी शान बनाए फिरते हैं, उन्हें कीड़े-मकोड़े की ही संज्ञा दी जाती है। इस वर्ग के प्राणियों को “अन्नमय” कह सकते हैं। खाना-पीना,ऐश करना ही उनका मुख्य जीवन होता है। पेट तथा अन्य इन्द्रियों का समाधान हो जाने पर ही वे सन्तुष्ट रहते हैं। “प्राणमय” कोश की क्षमता जीवनी शक्ति के रूप में प्रकट होती है। संकल्प-शक्ति,साहस, स्थिरता और दृढ़ता बोधक गुणों में प्राणमय कोश जाना जा सकता है। ऐसे प्राण-सम्पन्न लोग मनोबल का सहारा लेकर,अभावों और कठिनाइयों से जूझते हुए भी जीवित रहते हैं जबकि कीड़े मकोड़े, मात्र ऋतु प्रतिकूलताओं से प्रभावित होते हुए, बिना संघर्ष किए ही प्राण त्याग देते हैं। उन्हें इस तथ्य का आभास ही नहीं है कि मनुष्य जीवन कुछ कर -गुज़रने के लिए, स्वयं का एवं औरों का सहयोग/ सहायता के दिया गया है। ऐसे ही उत्साह और पराक्रम को प्राण शक्ति कहते हैं।यही विशेषता है जिसके कारण कीड़े-मकोड़ों, पशु-पक्षियों की तुलना में मनुष्य को जीव-प्राणधारियों की संज्ञा में गिना जाता है। ऐसे प्राणवान मनुष्यों के सानिध्य में ही पॉजिटिव एनर्जी, पॉजिटिव Aura की अनुभूति होती है। अद्भुत प्राणशक्ति एवं अन्य शक्तियों के कारण ही मनुष्य को पशुओं और कीड़ों से ऊँची स्थिति में माना गया है।
संकल्प-शक्ति का उपहार, प्राणशक्ति का उच्चत्तम गिफ्ट विचारशील मनुष्य को “मनोमय” स्थिति में Classify करता है। यह प्राणमय स्थिति से ऊँची स्थिति होती है। “मनुष्य” शब्द मनन (अर्थात चिंतन) के साथ जुड़ा हुआ है। जो मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदान किये गए उपहार का सदुपयोग न करते हुए, जीवन की गाड़ी को गधे की भांति दिन-रात, सालों-साल ऐसे ही गुज़ारे जा रहा है, उसे गधा न कहा जाए तो और क्या कहा जाए। कल्पना,तर्क,विवेचना,दूरदर्शिता जैसी चिन्तनभरी विशेषताओं के कारण मनुष्य को कीड़ों-मकोड़ों से, पशु-पक्षियों से ऊपर समझा गया है। अक्सर समाज में कल्पनाशील, तर्कशील, विवेकशील जैसी विशेषताओं वाले व्यक्तियों से लोग दूर भागते देखे गये हैं,उन्हें बाल की खाल उधेड़ने वालों की संज्ञा देते देखा गया है लेकिन ऐसा अनुचित है। अनुचित इसलिए है कि अज्ञान के कारण भागने वालों का स्तर ऐसा होता है जो उन्हें पल्ला छुड़ाने पर विवश करता है, हमने क्या लेना है? हमें क्या पड़ी है ? “मनोमय” कोष के खुलने की साक्षात् Indication यही है। “विज्ञानमय” कोश,मनोमय कोश से भी ऊँची स्थिति है। इसे “भाव संवेदना का स्तर” कह सकते हैं। दूसरों के सुख-दुःख में भागीदार बनना एवं सहानुभूति का आधार मनुष्य योनि में ही सम्भव है। भाव संवेदना के वशीभूत बहुत बार जानवरों की आँखों में भी आंसू बहते देखा गया है, लेकिन हमारे आस-पास स्वार्थी मनुष्यरूपी चलती -फिरती मृतात्माओं की भी कमी नहीं है जिनकी अंतरात्मा मर चुकी है। “अन्तःकरण विज्ञानमय कोश का ही नाम है।” दयालू, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी, शालीन और परोपकार-परायण व्यक्तियों का अन्तराल ही विकसित होता है। उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रियाकलाप अपनाने की महानता विज्ञानमय क्षेत्र में ही विकसित होती है। महामानवों का यही स्तर समुन्नत रहता है। चेतना का यह परिष्कृत स्तर, सुपर ईगो,आदि नामों से जाना जाता है। इसकी गति सूक्ष्म जगत में होती है, यही वह गति होती है जिससे वह ब्रह्माण्डीय सूक्ष्म चेतना के साथ अपना सम्पर्क साध सकती है। अदृश्य आत्माओं, अविज्ञात हलचलों और अपरिचित सम्भावनाओं का आभास इसी स्थिति में मिलता है। Subconscious mind इसी कोश में सक्रीय होता है। यही वह स्टेज होती है जब मनुष्य की अंतरात्मा में जो विचार उठता है, वह सत्य होता है। Third eye, Sixth sense पाकर मनुष्य इस स्थिति में इतना संतुष्ट होता है कि वह स्वयं को भूल कर, संसार से दूर जाता हुआ दिखाई देता है। विज्ञानमय कोश से भी ऊपर का स्तर, “आनन्दमय” कोश है जो आत्मा की उस मूलभूत स्थिति की अनुभूति है, जिसे “आत्मा का वास्तविक स्वरूप” कह सकते हैं।
सामान्य जीवधारी, यहाँ तक कि अधिकांश मनुष्य भी स्वयं को शरीर मात्र ही समझ बैठे हैं, उसी के सुख दुःख में, सफलता/असफलता अनुभव करते रहते हैं। आकांक्षाऐं, विचारणाऐं एवं क्रियाऐं मात्र शरीर की छोटे से क्षेत्र तक ही सीमाबद्ध रहती हैं। इसी को “भवसागर का बन्धन” का नाम दिया गया है। इसी कुचक्र में जीव को विविध विधि त्रास सहने पड़ते हैं। आनन्दमय कोश जागृत होने पर मनुष्य स्वयं को अविनाशी ईश्वर का अंश (सत्य, शिव, सुन्दर) मानता है। यह स्थिति ही “आत्मज्ञान” कहलाती है। यह स्थिति उपलब्ध होने पर मनुष्य हर घडी़ सन्तुष्ट एवं उल्लासित पाया जाता है। मनुष्य अपनेआप को जीवन के रंगमंच पर अभिनय करता हुआ अनुभव करता है। उसकी संवेदनाऐं भक्तियोग, विचारणाएं, ज्ञान और क्रियाऐं कर्मयोग जैसी उच्चस्तरीय बन जाती हैं।
यह स्थिति प्राप्त होते ही समझ लेना चाहिए कि मनुष्य का ईश्वर से संपर्क हो गया है, इसीलिए तो “सत-चित-आनंद” में आनंद शब्द का महत्व है। ईश्वर के साथ संपर्क ही “परम सन्तोष”, “परम आनन्द” का लाभ मिलने वाली स्थिति आनन्दमय कोश की जागृति कहलाती है।
तो साथिओ, इस लेख शृंखला एवं इस लेख का समापन इस अति सरल सामान्य साधना से करें तो इससे बड़ा अन्य कौनसा सौभाग्य हो सकता है। पूज्य गुरुदेव ने अन्नमय कोश से आरम्भ करके, केवल संतुलित, सात्विक भोजन, सात्विक विचारों से आनंदमय कोष के चरम स्तर तक पंहुचा कर हम बच्चों पर जो उपकार किया है उसके लिए कोई भी शब्द नहीं हैं।
धन्यवाद्, जय गुरुदेव