वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

पंचकोशों का सम्बन्ध समूची जीवन चेतना से है।

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आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ एक सन्देश से कर रहे हैं जो निम्नलिखित है : 

आदरणीय सुजाता बहिन जी के सुझाव पर हमने पंचकोशी साधना एवं तीन शरीरों की  सरलतम जानकारी पिछले  लेखों के माध्यम से  साथिओं से समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया लेकिन  जितना विषय को जानने  का प्रयास किया, उतनी ही जिज्ञासा बढ़ती ही गयी। यह एक ऐसा महासागर है कि जिसे  समझ पाना, अपने अन्तःकरण में उतार पाना, इसकी प्रैक्टिस कर पाना कोई सरल कार्य नहीं है। यह विषय पढ़कर समझने वाला न होकर प्रैक्टिकल करने वाला विषय है और वह भी किसी शिक्षित गुरु की देख रेख में। यदि हम यह धारणा  बना लें कि  20-30 लेखों में इस जटिल विषय को जान लेंगें तो बहुत बड़ी भूल होगी। अध्यात्म के विषय को समझने के लिए फिजिक्स, केमिस्ट्री, Botany,Zoology,Medical science, Computer science,गणित विज्ञान, Material साइंस और न जाने कौन-कौन से विषयों की जानकारी होना बहुत ही आवश्यक है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि विषय बहुत ही रोचक है लेकिन उचित उपकरण न उपलब्ध होने के कारण इसे यहीं पर समाप्त करना उचित  होगा, कल इसका अंतिम लेख प्रस्तुत किया जायेगा,जितना समझ लिया वह भी याद रह जाए तो बड़ी उपलब्धि होगी। 

आज का लेख भी बहुत ही रोचक है, अनेकों उदाहरणों से समझने का प्रयास किया गया है कि सारा शरीर ही पंचकोशों से प्रभावित होता है, Energy centres की भांति इनका कोई सीमित स्थान नहीं है।

इन्हीं शब्दों के साथ, आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ करते हैं।

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आत्मा के ऊपर पाँच आवरण चढे़ हुए हैं। जिस प्रकार फूलों में जिस रंग, आकृति, गन्ध, रस, नाम आदि समग्र रूप से समाहित होते हैं, उसी प्रकार मानव की काया  में पाँचकोशों का समग्र समावेश कहा जा सकता है। केले के तने की एवं  प्याज की परतों की तरह इन्हीं आवरणों से आच्छादित रहने के कारण “आत्मा का प्रकाश” प्रत्यक्षतया प्रस्फुटित नहीं होने पाता। इन आवरणों को उतार कर फेंक दिया जाय तो मनुष्य की आत्मा में ही परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन होने लगते हैं, शायद इसी परिस्थिति को “अंदर झांकना”  कहते हैं। आत्मा का, परमात्मा के प्रति समर्पण के आधार पर “एकात्मता” स्थापित हो जाने के बाद  भक्त और भगवान एक ही लेवल  के हो जाते हैं। जिस प्रकार नाला गंगा में मिलने के बाद गंगाजल बन जाता है, ठीक वैसा ही प्रभाव दिखने लगता  है।

थियोसोफी, थियोसोफिकल सोसाइटी, मैडम ब्लावट्स्की कुछ ऐसे शब्द हैं जिनसे  “ईश्वरीय ज्ञान” के विद्यार्थी भलीभांति परिचित हैं। थिओसोफी को ही हिंदी में ईश्वरीय ज्ञान (Theosophy is Divine Wisdom) कहा गया है जो “एक रहस्यमय आध्यात्मिक प्रणाली” है जिसकी सहायता से  ईश्वरत्व ( Divinity) और आध्यात्मिक ज्ञान (Spiritual knowledge) को समझने का प्रयास किया जाता है। Theosophy, प्राचीन ग्रीक शब्द “थियोस” (ईश्वर) और “सोफिया” (ज्ञान) से बना है।  यह फिलॉसोफी 19वीं शताब्दी में रूसी प्रवासी हेलेना ब्लावट्स्की द्वारा स्थापित थियोसोफिकल सोसाइटी से जुड़ी है और विभिन्न पश्चिमी गूढ़ अध्ययनों,हिन्दू और बौद्ध धर्मों के सिद्धांतों से प्रभावित है।  

इस सोसाइटी की मान्यता के अनुसार मानव से सम्बंधित पांच कोश उसके पाँच आवरण, पाँच शरीर या पाँच लोक हैं। इन्हें तरतीब-बार  (1) फिजिकल बॉडी,Physical body 

(2 ) ईथरीक बॉडी,Ethereal body 

(3 ) एस्ट्रल बॉडी,Astral body 

(4 ) मेण्टल बॉडी,Mental body 

 (5 ) कॉजल बॉडी,Causal body  

कहा गया है और इनमें पाँच प्रकार की विभूतियों का समावेश बताया गया है। अध्यात्म शास्त्रों में इन विभूतियों को क्रमशः 

(1 )अन्नमय कोश (2 )प्राणमय कोश (3 )मनोमय कोश (4 ) विज्ञानमय कोश (5 ) आनन्दमय कोश के नाम से सम्बोधित किया गया है। उपनिषद् के तत्त्वदर्शी ऋषि पंचकोश सम्बन्धी जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहते है कि अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय  और आनन्दमय पाँचकोश हैं। इनमें जो अन्न के रस से उत्पन्न होता है, जो अन्नरस से ही बढ़ता है और जो अंत में  पृथ्वी में ही लीन हो जाता है, उसे “अन्नमय कोश एवं स्थूल शरीर” कहते हैं। 

मानव शरीर में पांच प्रकार की वायु का समूह है  जिनके नाम 1) प्राण वायु,2) अपान वायु, 3)व्यान वायु ,4)समान वायु एवं  5) उदान वायु है।  इन पांचों ने शरीर के अलग-अलग डिपार्टमेंट संभाले  हुए है,कोई ह्रदय और मस्तिष्क के भाग से सम्बंधित है एवं किसी का डिपार्टमेंट नाभि के नीचे है। पाँचों वायुओं के समूह और पांच कर्मेन्द्रिय के समूह को “प्राणमय कोश” कहते हैं। संक्षेप में यही क्रियाशक्ति है। 

“मनोमय कोश” चिंतन मनन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के समूह के मिलने से बनता है। इसे इच्छाशक्ति कह सकते हैं। बुद्धि और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के समन्वय को “विज्ञानमय कोश” कहते है। यह “ज्ञानशक्ति” है। अविद्या में रहने वाला मनुष्य सतोगुण,रजोगुण और तमोगुण विशेषताओं से प्रभावित होने वाला कोश आनंदमय कोष है। आनंद, उत्तेजना,अन्धकार, आलस्य, भोगविलास आदि सभी आनन्दमय कोश के अंतर्गत आते हैं ।

इस प्रकार मानव शरीर को एक ऐसी अद्भुत संरचना माना गया है जिसमें पाँच स्थूल तत्व और चेतना के पाँच प्राण मिश्रित हुए हैं। लेकिन यहाँ पर एक महत्वपूर्ण तथ्य समझने वाली बात यह है कि यह विवेचना  “दृश्यमान शरीर,प्रतक्ष्य शरीर अर्थात जो दिख रहा है” उस शरीर की हुई। शरीर के इलावा चेतना भी तो है, उस “विशेष Electrical चेतना का क्या explanation है ? अध्यात्म की भाषा में उसी को अन्नमय कोश कहा गया है। इसे ही वैज्ञानिक भाषा में Life electricity,बायो इलेक्ट्रिसिटी कहा जाता है। इसका कार्य शरीर के अनेकों क्रियाओं को सुनियोजित और सुनियन्त्रित बनाए रखना है। शरीर के  हर एक यूनिट को, हर एक Cell को Independent unit माना गया  है, हर एक Cell में चेतना है, Life है, हर Cell में एक Nucleus  होता है, हर एक Cell बहुमुखी कार्य संपन्न करता है, यहीं पर RNA/DNA वास करते हैं। हमें विश्वास है कि पाठक DNA शब्द के अत्यधिक प्रचलन के कारण इससे कुछ परिचित तो अवश्य ही होंगें। मानव शरीर के अनेकों कार्य, शरीर को चलाने की अनेकों क्रियाएं “अन्नमय कोश” के अन्तर्गत आती हैं। यूं तो इस कोश का स्थान मुख ही है, क्योंकि मुख से होकर ही भोजन पेट में जाता है, भोजन से ही रक्त- मांस बनता है,उसी से एनर्जी आती है, इसके बावजूद अन्नमय कोष को मुख तक ही सीमित नहीं समझा जा सकता । व्रत,उपवास, विशेष आहार,वीकेंड पार्टी डिनर, दारु-शराब वाली पार्टी का भोजन और समाज में समन्वय  कारण होने के कारण मानव शरीर का सम्पूर्ण ढांचा अन्न से ही बनता है। इसीलिए बार-बार कहा गया है: जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन। तो हुआ न “अन्नमय कोश  और मनोमय कोश का साक्षात् सम्बन्ध”, एनर्जेटिक भोजन से प्राणशक्ति बढ़ती है, तो हुआ न अन्नमय कोष का प्राणमय कोष से सम्बन्ध, मस्तिष्क के अच्छे स्वास्थ्य के लिए Omega foods (Fish,अखरोट) इत्यादि बताए जाते हैं, अखरोट को तो Brain food का ही नाम दिया गया है, चिंतन मनन का कार्य तो मस्तिष्क में ही होता है, मस्तिष्क को ही विचारों (अच्छे/बुरे), दुर्बुद्धि/सद्धबुद्धि की फैक्ट्री कहा गया है, तो हुआ न अन्नमय कोष का विज्ञानमय कोश से सीधा सम्बन्ध, अच्छा भोजन, पार्टी आदि से मन को सकून मिलता है, मन तृप्त होता है, शाररिक तृप्ति से अधिक मानसिक तृप्ति मिलती है तो हुआ न अन्नमय कोश का आनंदमय कोष से सीधा सम्बन्ध। 

इस उपरोक्त चर्चा से एक तथ्य तो साफ स्पष्ट हो रहा है कि ईश्वर द्वारा प्रदान किया गया मानव शरीर का उपहार एक Compact entity है जिसकी सभी क्रियाएं एक दूसरे से जुडी हुई हैं, सम्बंधित हैं, एक का दूसरे के बिना कोई अस्तित्व है ही नहीं।

आइए इसी चर्चा को थोड़ा आगे बढ़ाते हैं :   

उपरोक्त तथ्यों से क्लियर है कि मानवी काया का कण-कण, अन्न से ही विनिर्मित है। ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता कि मुख ही अन्न का आधार क्षेत्र है।

प्राणमय कोश एक प्रकार की “चार्जर पद्धति” है जिसका कार्य  ऐसा होता है कि अन्न में व्याप्त शक्ति एवं एनर्जी के खर्च होते रहने के बावजूद शरीर को खोखला नहीं होने देती बल्कि  बैटरी को डिस्चार्ज होने से  पहले  ही चार्ज कर देती है। इस प्रकार प्राणमय कोश  एक Dynamo सिस्टम  बन जाता है। Dynamo का उद्देश्य Mechanical energy को Electric energy में बदलना होता है। हमारे साथिओं ने अनेकों बार देखा होगा कि कई बार बिजली से मोटर न चलने पर उसे हाथ से चलाने (Mechanical) से काम बन जाता है। 

प्राणतत्व को चेतन ऊर्जा, लाइफ एनर्जी कहा गया है। ताप, प्रकाश, चुम्बकत्व, शब्द आदि ऊर्जा के अलग अलग  रूप हैं। आवश्यकतानुसार एक प्रकार की एनर्जी दूसरे प्रकार में बदलती भी रहती है। इन सबका समन्वय ही जीवन है। प्राणायाम प्रक्रिया द्वारा सविता शक्ति का प्राणाकर्षण करके मनुष्य अपने अंतर्मन  में उसको  अधिक मात्रा को प्रविष्ट कर सकता है। प्राणयाम के दौरान यों तो नासिका द्वारा खींची गई वायु शरीर में प्रवेश करती  है लेकिन  उसके साथ “संकल्प और चुम्बकत्व” भी जुडा़ होता है,संकल्प और चुम्बकत्व के समन्वय से ही प्राण की मात्रा बहुलता के साथ शरीर में पहुँचती है और टिकती है। यह प्राणवायु  ही विभिन्न अंगों  द्वारा फूटता है। नेत्रों से, वाणी से, भुजाओं से, व्यवहार से प्राण की न्यूनता एवं बहुलता परिलक्षित होती है। इस प्रकार प्राणऊर्जा को नासिका द्वारा प्रवेश करने पर भी किसी एक क्षेत्र में सीमित नहीं किया जा सकता। वह समस्त शरीर-व्यापी है।

वैसे तो कल्पनाऐं, विचारणाऐं, इच्छाऐं, गतिविधियाँ मस्तिष्क में विनिर्मित होती हैं लेकिन वह केवल मस्तिष्क  तक ही  सीमित नहीं रहतीं। पांचों ज्ञानेन्द्रियों (Five gateways of knowledge)  की अपनी-अपनी भूख है। किसी की भूख शरीर से सम्बंधित है तो किसी की मन से, इसलिए कल्पनाएं भी आत्मसत्ता के हर क्षेत्र में संव्याप्त माना जाता है। मस्तिष्क की ही तरह हृदय को भावनाओं का उद्गम  माना जाता है। सहृदय, हृदयहीन शब्द बताते हैं कि भावनाओं का केन्द्र हृदय होना चाहिए, किन्तु बात इतने छोटे क्षेत्र तक सीमित नहीं है। अपनी आवश्यकताऐं, दूसरे का व्यवहार और परिस्थितियों का तकाजा मिलकर भावनाओं का निर्माण करते हैं। देशभक्ति, समाज सेवा, दुखियों के प्रति सहानुभूति, प्रतिशोध, ईर्ष्या आदि भी सारे शरीर की  है, यही कारण है को ह्रदय को मात्र रक्त संचार की थैली तक सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता। आनन्दमय कोश का स्थान यों तो  मस्तिष्क के  मध्य सहस्त्रार चक्र को माना गया है, जिसे कैलाश मानसरोवर की, शेष शैय्या और क्षीर सागर की, कमल पुष्प पर तप करते ब्रह्मा की उपमा दी गई है लेकिन यह आनन्द भी दृष्टिकोण से  सम्बन्धित है। कई व्यक्ति जटिल परिस्थितियों में भी हँसते- हँसाते रहते हैं और कई सब कुछ मिला होने के बावजूद भी खिझते- खिझाते रहते हैं। यह सुसंस्कारिता और कुसंस्कारिता की प्रतिक्रिया है।

आज के लेख का समापन इस शिक्षा को अंतर्मन में उतारने  के साथ किया जाना चाहिए कि पांच कोशों का सम्बन्ध “समूची जीवन चेतना” से है। उनका स्थान षट्चक्रों, मानव शरीर के चक्रों से, एनर्जी केंद्र  की तरह मेरूदण्ड, मूलाधार, सहस्त्रार की परिधि तक सीमित नहीं है। पाँचों कोश दिव्य शक्तियों के भाण्डागार हैं। जिस प्रकार पंच रत्न, पंच देव, पंच गव्य, पंचाग आदि की वातावरण के पंच आयाम एवं ब्रह्माण्डीय सूक्ष्म पंचकणों आदि में  गणना होती है, उसी प्रकार पंचकोशों की महत्ता समझी गयी है।

कल तक के लिए मध्यांतर ,धन्यवाद् जय गुरुदेव 


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