वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

मनुष्य सबसे अधिक नज़रअंदाज़ “सद्बुद्धि” को ही क्यों करता है ?

आज का दिव्य ज्ञानप्रसाद बिना किसी पृष्ठभूमि एवं भूमिका से यहीं से आरम्भ हो रहा है। 

परम पूज्य गुरुदेव की विशाल कलाकृति “गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां”, जिस पर वर्तमान लेख श्रृंखला आधरित है, आज एक अद्भुत लेख लिए हुए है जिसका शीर्षक है “मनुष्य सबसे अधिक नज़रअंदाज़ “सद्बुद्धि” को ही क्यों करता है ? हमारे साथिओं के मस्तिष्क में इस लेख की अद्भुतता को लेकर प्रश्न उठना  स्वाभाविक है कि इस लेख में ऐसा क्या विशेष है एवं इसका क्या महत्व है। सच में महत्व है !!!

सबसे बड़ा और सरल महत्व तो यही है कि जिस पंचकोशी साधना एवं तीन शरीरों की बात लेकर हम इस जटिल विषय को समझने चले थे, क्या मात्र लेख लिख कर,पढ़कर,समझकर, कमेंट करके विषय को समझ पाने में सफलता मिलना संभव हो रहा है? हमारा उत्तर होगा नहीं !! ऐसा इसलिए कहना उचित लग रहा है कि इस विषय को केवल पढ़ने से वोह लाभ नहीं मिलने वाला जो चर्चा करने से मिल सकता है, “भावना और विज्ञान” प्रैक्टिकल करके टेस्ट करने वाली प्रक्रियाएं हैं, न कि  रटने वाली प्रक्रियाएं। जिस प्रकार हम दोनों (नीरा जी और मैं) के बीच में डिस्कशन होती रहती है, उस डिस्कशन के परिणामों को इस परिवार के मंच पर सार्वजानिक किया जाता है, अन्य साथिओं के साथ संभव नहीं है। टेक्नोलॉजी की सहायता लेकर “व्हाट्सप्प वीडियो conferencing” एक विकल्प हो सकता है जिस में इच्छुक साथिओं के साथ उस दिन के लेख की चर्चा की जा सकती है। उद्देश्य केवल एक ही बात देखना है कि वर्तमान लेख श्रृंखला को एक प्रैक्टिकल रूप देते हुए “एक सीढ़ी और” ऊपर चढ़ने का प्रयास करना कितना लाभदायक  रहेगा। गुरुदेव ने बार-बार कहा है कि बहुत पढ़ लिया, अब करने का समय है। 

अब के लिए, यह धारणा बनाते हुए कि हम सब एक सूक्ष्म कक्षा में बैठे हुए हैं, पांच कोशों की एक डायग्राम तैयार की है जिसमें उनके नाम के साथ-साथ उनका महत्व भी वर्णन किया है। इस चित्र का इतना बड़ा महत्व है कि यदि इसे ध्यानपूर्वक देखा जाए तो “जैसा खाए अन्न,वैसा होवे मन” का बहुचर्चित सन्देश चरितार्थ करने में एक सेकंड भी नहीं लगेगा। अन्नमय कोष जिसे स्थूल शरीर की परिभाषा दी गयी गयी उसके पालन पोषण में जो  भी अन्न ग्रहण किया जाता है, उससे शरीर की जटिल से जटिल क्रियाएं चलती हैं। हमारा उठना-बैठना, चलना-फिरना जैसी सरल क्रियाओं के साथ-साथ मन का कण्ट्रोल भी अन्न से सम्बंधित है,यह मनोमय कोष का डिपार्टमेंट है। अन्न की प्रकार से ही “प्राण ऊर्जा” का भी कण्ट्रोल होता है, यह प्राणमय कोष का डिपार्टमेंट है,इसी तरह से विज्ञानमय और आनंदमय कोष मानव के शरीर को,व्यक्तित्व को,पर्सनॅलिटी को यहाँ तक की उसकी कार्यप्रणाली को भी प्रभावित करते हैं। भावनाओं ,इन्द्रियों आदि का कण्ट्रोल भी यहीं पर होता है, तो हुआ न महत्वपूर्ण विषय ? इन जटिल विषयों को  ठीक से समझ पाना ही इस लेख श्रृंखला की सफलता समझी जाएगी।  

गायत्री उपासना का भावनात्मक और वैज्ञानिक दोनों ही दृष्टियों से बहुत बड़ा महत्त्व है। भावना की दृष्टि से विचार किया जाय तो इस उपासना को मानव जीवन के “चरित्र उत्कर्ष (Character excellence) का बीजमन्त्र” कहा जा सकता है। सामान्यतया मनुष्य सबसे अधिक नज़रअंदाज़ “सद्बुद्धि” को  ही करता है। सद्बुद्धि ही वह औज़ार है जिससे उसने अपने व्यक्तित्व, चरित्र आदि का न केवल निर्माण करना है बल्कि समाज में एक Role model भी बन कर स्वयं को प्रस्तुत करना है। सद्बुद्धि को नज़रअंदाज़ करने के पीछे मनुष्य का अहम( Ego) ही है जिसने उसके मस्तिष्क में एक कीड़े को बिठाकर कर रखा हुआ है कि उससे समझदार,बुद्धिमान कोई हो ही नहीं सकता। यही वह मूढ़-धारणा है जो उसे कुछ सीखने ही नहीं देती और वह इसी धारणा के कारण दुर्लभ मनुष्य जीवन को नर्क जैसा व्यतीत करके इस संसार से कूच कर जाता है। इस भूल के फलस्वरूप,ईश्वर द्वारा सद्बुद्धि जैसे महत्वपूर्ण औज़ार प्रदान किये होने के बावजूद उसे “जीवन लक्ष्य” से वंचित रहना पड़ता है। यह तो वही बात हो गयी कि हमें किसी अपने ने अनेकों लेटेस्ट  फीचर्स से लैस बेस्ट क्वालिटी का फ़ोन (आई फ़ोन) तो गिफ्ट कर दिया लेकिन हमें उसका प्रयोग करना तो दूर, चार्ज करना तक नहीं आता, हम तो उसे Recharge करवाना भी भूल जाते हैं और फिर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर अनवरत बहानेबाज़ी का रोना और सहानुभूति का दौर चलना आरम्भ हो जाता है।हमारे साथी इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि यह मंच, बिना कोई समय नष्ट किये, गुरुदेव के सार्थक विचारों को जन-जन तक पंहुचाने का कार्य कर रहा है  

यही है सद्बुद्धि, यही हमें ठीक मार्गदर्शन देती है,मानवीय उत्कर्ष का बेसिक औज़ार सद्बुद्धि ही है। सैनिक को अपनी बन्दूक, शिक्षक को अपनी पुस्तकें/नोट्स,उद्योगपति को एकाउंट्स की बैलेंसशीट, गायक को अपने कंठ,गृहिणी को घर का बजट आदि सभी का ध्यान सद्बुद्धि से ही रखना पड़ता है। जहाँ भी सद्बुद्धि को नकारा गया है,प्रतक्ष्य विनाश ही देखा गया है, गुरुदेव का दिव्य साहित्य न जाने कितनों को इस दिशा में मार्गदर्शन दे चुका है, दे रहा है और अनवरत देता रहेगा। लेकिन यह सौभाग्य केवल उन्हीं को मिलेगा जो अपनी पात्रता विकसित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगें।       

सृष्टि के समस्त प्राणियों की तुलना में, ईश्वर ने सबसे श्रेष्ठ “साधना शरीर” मनुष्य को ही प्रदान किया है। बोलने, सोचने, लिखने, करने, मिल-जुल कर रहने एवं अन्वेषण आदि की जो विशेषतायें मनुष्य को प्राप्त हैं वोह शायद ही किसी अन्य प्राणी को मिली हों। ईश्वर द्वारा  प्रदान किये गए वरदानों की यह लिस्ट तो बहुत ही संक्षिप्त है, यदि सभी का विवरण देना आरम्भ कर दें तो हम उसी में उलझ कर रह जायेंगें। 

मनुष्य ने ईश्वर के इन्हीं उपहारों एवं वरदानों के बलबूते पर उन्नति के उच्चत्तम  शिखर पर पहुँचने में सफलता पाई है,इतना कुछ प्राप्त करने के बावजूद मनुष्य अभी भी रुका नहीं है क्योंकि Quest for knowledge, ज्ञान की जिज्ञासा असीमित है, उसकी कोई सीमा नहीं है।   

ईश्वर ने अपने राजकुमार को जितनी सुविधायें प्रदान की हैं उसका हजारवाँ भाग भी सृष्टि के अन्य प्राणियों को प्राप्त होता तो वे भी अपने को धन्य मानते लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि इतनी सुविधायें रहते हुए भी अधिकतर लोग दुःखी क्यों हैं? क्यों वह निरन्तर चिन्तित, खिन्न, उदास, क्षुब्ध और अशान्त रहते हैं? जिससे बात करो एक ही निष्कर्ष निकलता दिखता है, ईश्वर ने हमारे साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है, पड़ोसी बिना कुछ किये कहाँ से कहाँ पहुंच गया है, अब इस जीवन में कुछ भी नहीं रह गया है आदि आदि 

परम पूज्य गुरुदेव इसका एक ही कारण बताते हुए कहते हैं कि ऐसे मनुष्यों की “विचारणा का, प्रज्ञा का, सद्बुद्धि का परिष्कार नहीं हुआ है।” ऐसे मनुष्य यदि सोचने का, विचार करने का तरीका सही बना लें  तो आज दिख रही अगणित समस्याओं और कठिनाइओं में से एक भी दृष्टिगोचर नहीं होती। गुरुदेव का “विचार क्रांति अभियान Thought revolution campaign” केवल पोस्टर प्रिंट करवा कर दीवारों पर चिपकाने से, नारेबाज़ी से, नन्हें मुन्नों  से वीडियोस बनवा कर सोशल मीडिया पर विज्ञापनबाजी से नहीं सार्थक होने वाला, इसके लिए निष्पक्ष होकर, पूर्ण श्रद्धा से गुरुदेव को लोगों के ह्रदय में स्थापित करना होगा। यदि सकारात्मक सोच का तरीका सीख लिया जाय, अपने विचारों को परिष्कृत कर लिया जाये तो इसी “जीवन में स्वर्ग की अनुभूतियाँ बिखरी हुई दिखाई पड़ने लगेंगी।”  

ज़्यादा दूर जाने की ज़रुरत नहीं, अपने आसपास इसी परिवार में, ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में ही स्वर्गीय जीवन व्यतीत करते अनेकों साथी मिल जायेंगें।  

इस तथ्य में बिलकुल भी संदेह नहीं है कि “विचारणा की अशुद्ध प्रणाली” ने ही मानव को स्वर्गीय सुविधाएँ  प्रदान होने के बावजूद  नारकीय परिस्थितियों में पड़े रहने के लिए विवश किया है। यदि सुख- शान्ति की स्थिति सचमुच अभीष्ट हो तो उसके लिए एकमात्र  उपाय “अपनी विचार पद्धति का संशोधन” ही है। 

गायत्री महामन्त्र में इसी धर्म-रहस्य का उद्घाटन किया है। मानव जाति को सन्देश दिया है कि कोल्हू के बैल बने फिरने एवं मृगतृष्णा में भटकते रहने के बजाए मूल तथ्य (Basic fact) को समझो। सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्न अवश्य करो लेकिन  प्रयत्न से पूर्व इस तथ्य को अवश्य समझ लो कि “सुख कहाँ से और कैसे मिलेगा?” ईश्वर ने बुद्धि तो सभी प्रणियों को दी है लेकिन सद्बुद्धि केवल मनुष्य को ही दी है, बुद्धि का सदुपयोग किये बिना जो मनुष्य कार्य करता है वह किसी गधे से कम नहीं है जो बिना किसी प्रतिक्रिया के जीवनभर अपने ऊपर भार  लादे रहता है, चाबुक खाता रहता है।    

गायत्री मन्त्र बताता है कि विचार संशोधन, भावनात्मक परिष्कार वह आवश्यक तत्व है, जिसे प्राप्त किए बिना न किसी को आज तक सुख- शान्ति मिली है और न आगे मिलेगी। वस्तुयें/पदार्थ क्षणिक सुख दे सकती हैं। वासना और तृष्णा की मदिरा में कुछ ही क्षण डूबा रहा जा सकता है लेकिन इस मदिरा का परिणाम तो दुगनी अशान्ति,हानि और असफलता में ही होती है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मानसिक संस्थान  को शुद्ध करने का सबसे अधिक प्रयत्न करे, अपनी एक-एक प्रवृत्ति का बहुत ही बारीकी से सूक्ष्म निरीक्षण करे और उन पर चढ़े हुए कुसंस्कारों का साहसपूर्वक परिष्कार करे। इस दिशा में किये गए प्रयास का नाम ही “साधना” है, इसी प्रयास एवं पुरुषार्थ को साधना का केंद्र-बिंदु कहा गया है। गायत्री मन्त्र का अनेकों बार  उच्चारण करते  सद्बुद्धि प्रज्ञागीत हुए ईश्वर से यही प्रार्थना की जाती है कि प्रभु हमें आपने मानव शरीर देकर असीम अनुकम्पा की है,अब हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करके हम पर उपकार करें ताकि हम सही  अर्थों में मनुष्य कहला सकें और मानव जीवन के आनन्द का लाभ उठा सकें। 

गायत्री के चौबीस अक्षरों में सवितुः,वरेण्यं, भर्गः और देवता (देवस्य) जैसे  गुणों का चिन्तन करते हुए उन्हें अपने जीवन में धारण करने की आस्था बनाते हुए, यह संकल्प लिया जाता है कि ईश्वर के अनुग्रह एवं वरदान की एकमात्र वस्तु “सद्बुद्धि (Wisdom)” को हम प्राप्त करते रहेंगे, अपने जीवन को उस ढाँचे में ढालेंगे, जिसमें कि “सद्बुद्धि सम्पन्न महामानव” स्वयं को ढालते चले आए हैं। उसी संकल्प को बार- बार पूरी निष्ठा और भावना से दोहराते समय जो मनुष्य गायत्री जप का सच्चा स्वरूप समझते हुए उपासना करता है,उसी को  अनिर्वचनीय लाभ प्राप्त होता है । ऐसे मनुष्य  इस अमृत को पीकर  अमर हो  जाते हैं और संसाररूपी  मृत्यु लोक में रहते हुए भी पग-पग पर दिव्य एवं स्वर्गीय आनन्द का अनुभव करने लगते हैं।

कल तक के लिए यहीं पर मध्यांतर होता है, जय गुरुदेव 


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