15 सितम्बर 2025 का ज्ञानप्रसाद- Source “गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां”
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का प्रत्येक साथी आदरणीय सुजाता बहिन जी का ह्रदय से धन्यवाद् करता है जिन्होंने पंचकोशी साधना एवं तीन शरीरों को जानने की जिज्ञासा प्रकट की। इस मंच पर अक्सर इस प्रकार के अनेकों सुझाव मिलते रहते हैं एवं सभी सुझावों का यथासंभव पालन करना हमारा परम कर्तव्य है।
374 पन्नों की गुरुदेव की उत्कृष्ट रचना “गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां” जिस पर वर्तमान लेख श्रृंखला आधारित है, इतना हाई लेवल का,विस्तृत ज्ञान लिए हुए है कि उसे समझ पाने के लिए अनेकों क्रॉस रेफरेन्सेस की आवश्यकता पड़ना कोई आश्चर्यजनक रियलिटी नहीं है। यही कारण है साधना के विभिन्न स्तरों को समझते-समझते “आत्मा के राजमहल” का विषय कहाँ आ गया। आज जब गुरुदेव मानव मस्तिष्क को दुर्ग/किला कह कर समझा रहे थे तो इस टॉपिक को समझने की जिज्ञासा उठी और ऑनलाइन रेसरच से जितना हमें समझ आ पाया साथिओं में शेयर कर रहे हैं।
मेन टॉपिक तो साधना के विभिन्न स्तर की अंतिम स्टेज उच्स्तरीय साधना ही है। जब से यह शृंखला आरम्भ हुई है लगभग सभी ने स्वयं को “किस स्तर का साधक” जानने की जिज्ञासा प्रकट की है। यह एक ऐसी जिज्ञासा है जिसका समाधान होना इन लेखों की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। “स्वयं के जानना” ही इस मंच पर प्रवाहित हो रही ज्ञानगंगा का परम उद्देश्य है, इन लेखों के अमृतपान से जो कोई भी विवेक के ज्ञानचक्षु खोलने में समर्थ हो पाएगा, वह ज्ञानगंगा में बहता ही चला जायेगा,यह ज्ञानगंगा इतनी समर्थ है, ऐसा हमारा अटूट विश्वास है।
उच्चस्तरीय साधना किसी योग्य गुरु की देखरेख में ही होनी चाहिए,इस स्टेज पर पंहुच पाना सरल नहीं है।
15 घंटे पहले पोस्ट हुई शार्ट वीडियो को फेसबुक पर लगभग 23000 दर्शक देख चुके हैं, कहीं ऐसा न हो कि हम भी सोते रह जाएँ
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परम पूज्य गुरुदेव ने गायत्री की दैनिक साधना को स्कूलों की प्राथमिक शिक्षा और अनुष्ठानों तथा पुरश्चरणों को माध्यमिक शिक्षा कह कर हम बच्चों को समझाने का प्रयास किया है। जिस प्रकार हाईस्कूल की शिक्षा को “माध्यमिक स्तर” का समझा जाता है, कॉलेज और विश्वविद्यालय की पढ़ाई को “उच्चस्तरीय शिक्षा” नाम दिया गया है,उसी तरह योग और तप की साधना को “उच्चस्तरीय साधना” कह सकते हैं। योग में मनुष्य की जीवचेतना को ब्रह्मचेतना से जोड़ने के लिए “स्वाध्याय, मनन” से लेकर “ध्यान धारणा” तक के अवलम्बन अपनी मनःस्थिति के अनुरूप अपनाने पड़ते हैं। विचारणा, भावना एवं आस्था की प्रगाढ़ प्रतिष्ठापना इसी आधार पर सम्भव होती है।
आत्मिक प्रगति के लिए प्रचलित अनेकानेक उपायों और विधानों में “गायत्री विद्या अनुपम” है। भारतीय तत्ववेत्ताओं ने, आत्मविज्ञानियों ने, प्रधानतया इसी विद्या का समर्थन किया है और सर्वसाधारण को इसी आधार को अपनाने का निर्देश भी दिया है।
“शिखा और यज्ञोपवीत”,भारतीय धर्म के दो प्रतीक हैं। दोनों को गायत्री की ऐसी प्रतिमा कहा जा सकता है जो भारतीय धर्म के अनिवार्य चिन्ह हैं। मनुष्य के मस्तिष्क को “दुर्ग” कहकर सुशोभित किया गया है और इसके सर्वोच्च शिखर पर गायत्री-रूपी विवेकशीलता की “ज्ञानध्वजा ही शिखा” के रूप में प्रतिष्ठापित की जाती रही है। इस ज्ञानध्वजा का वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक परिचय जानने के लिए निम्नलिखित संक्षिप्त विवरण सहायक होगा, ऐसा हमारा विश्वास है।अगर इस तथ्य की समझ आ जाती है तो साधना और भी सरल हो सकती है:
मस्तिष्क को “दुर्ग” (किला) कई कारणों से कहा जाता है :
1.संरक्षण (Protection):
जिस प्रकार एक किले की दीवारें भीतर के राजमहल और खजाने की रक्षा करती हैं, वैसे ही मानव मस्तिष्क, खोपड़ी (Skull) और मस्तिष्क के तीन आवरण जिन्हें हम Meninges कहते हैं, से सुरक्षित रहता है। मस्तिष्क में दौड़ रहा Cerebrospinal fluid इसे अतिरिक्त संरक्षण प्रदान करता है।
2.नियंत्रण केन्द्र (Control Center):
जिस प्रकार किले में बैठा राजतन्त्र पूरे राज्य का संचालन करता है, उसी प्रकार मस्तिष्क पूरे शरीर का संचालन और नियंत्रण करता है। मस्तिष्क ही विचारों,भावनाओं, स्मृति,अंगों के संचालन एवं न जाने कौन-कौन सी क्रियाओं का केंद्र है।
3.रणनीति और निर्णय (Strategy & Decision):
जिस प्रकार पार्लियामेंट में बैठकर, चर्चा करके बड़े-बड़े निर्णय लिए जाते हैं, योजनाएं बनाई जाती हैं उसी तरह मस्तिष्क भी निर्णय लेने, समस्याओं को हल करने और जीवन की रणनीति बनाने का स्थान है।
4.सुरक्षित और न पंहुच पाने वाला (Vital & Inaccessible):
किले के बाहिर सख्त पहरा होने के कारण इसे सबसे सुरक्षित और पहुँच से कठिन माना गया है। मस्तिष्क भी शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण और सबसे सुरक्षित रखा गया हिस्सा है।
तो साथिओ,मस्तिष्क को दुर्ग कहने का यह तो हुआ वैज्ञानिक पक्ष लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से भी मस्तिष्क को दुर्ग कहने के निम्नलिखित गहरे कारण हैं :
1. चेतना का केन्द्र:
योग और वेदांत के अनुसार, आत्मा (चैतन्य) शरीर रूपी राज्य में विराजमान होती है। मस्तिष्क अर्थात सहस्रार चक्र को आत्मा का “मुख्य आसन” माना गया है। जिस प्रकार राजा दुर्ग में बैठकर राजकाज देखता है, वैसे ही आत्मा “दुर्ग रुपी मस्तिष्क” से शरीर एवं उससे सम्बंधित सभी क्रियाओं को संचालित करती है।
2. इन्द्रियों का नियंत्रण
Five gateways of knowledge यानि पांच ज्ञान-इन्द्रियां (देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, स्पर्श करना) सभी मस्तिष्क में ही आकर जुड़ते हैं। मस्तिष्क ही, किसी किले के द्वारपाल की भांति निर्णय लेता है कि किस अनुभूति को,इन्द्रिय को भीतर आने देना है और किसे नहीं, द्वारपाल को ही शत्रु और मित्र का ज्ञान होता है।
3. आत्मज्ञान का मार्ग
“ध्यान और साधना” में निरत मनुष्य जब अपने “भीतर” प्रवेश करता है तो उसे इस “दुर्ग” को पार करना ही होता है। मन, बुद्धि और अहंकार की परतें ही मस्तिष्क की भीतरी दीवारें हैं। इन दीवारों को फांद लेने के बाद ही मनुष्य “आत्मा के वास्तविक राजमहल” तक पहुँचता है।
4. सुरक्षा और मायाजाल
किसी भी राज्य के किले को बड़ी-बड़ी मज़बूत दीवारों से बहुत ही शक्तिशाली और सुरक्षित बनाया जाता है। इन दीवारों को पार कर लेने के बाद भी भीतर प्रवेश करना आसान नहीं होता क्योंकि भीतर के बारे में ज्ञान न होने के कारण भटकने की आशंका रहती ही है। ठीक उसी प्रकार “मानव मस्तिष्क का दुर्ग” मनुष्य को विचारों, भावनाओं और वासनाओं के मायाजाल में भटकाता भी है। मायाजाल अर्थात माया का जाल, A network of illusions, मनुष्य को अनेकों मकड़ी के जालों में उलझाए रखता है, इसी माया से अंधे हुए मनुष्य के जीवन का देखते ही देखते अंत भी हो जाता है।
जो साधक विवेक और ध्यान से इस दुर्ग का रहस्य खोल लेता है, वही “सच्चे आत्मज्ञान, परम शांति” तक पहुँच पाता है।
भारतीय धर्म का दूसरा प्रतीक यज्ञोपवीत है जिसमें गायत्री का कर्मपक्ष,यज्ञ का संकेत है। उसकी तीन लड़ें गायत्री के तीन चरण और नौ धागे इस महामंत्र के नौ शब्द कहे गये हैं।
उपासना में “संध्या वन्दन” नित्य कर्म है। वह गायत्री के बिना सम्पन्न नहीं होता। चारों वेद भारतीय धर्म और संस्कृति के मूल आधार हैं और उन चारों की जन्मदात्री वेदमाता गायत्री है। वेदों की व्याख्या अन्य शास्त्र पुराणों में भी हुई है। इस प्रकार आर्ष वाङ्मय के सारे कलेवर को ही गायत्रीमय कहा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में गायत्री को बीज और भारतीय धर्म-संस्कृति को वृक्ष की उपमा दी गयी है।
गायत्री के 24 अक्षरों में, बीज रूप में भारतीय तत्वज्ञान (Indian philosophy) के समस्त सूत्र सन्निहित हैं। इस महामन्त्र के विविध साधना उपचारों में “तपश्चर्या को श्रेष्ठतम” कहा जा सकता है। बाल, वृद्ध, रोगी, नर-नारी, शिक्षित-अशिक्षित आदि सभी के लिए छोटे-बड़े प्रयोग मौजूद हैं। सरल से सरल और कठिन से कठिन ऐसे विधानों का उल्लेख है जिन्हें हर स्थिति का व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत स्थिति एवं पात्रता के अनुरूप अपना सकता है।
“उच्चस्तरीय गायत्री उपासना” के दो पक्ष हैं। एक गायत्री, दूसरी सावित्री अथवा कुण्डलिनी। गायत्री की प्रतिमाओं में पांच मुख चित्रित किए गये हैं। यह मानवी चेतना के पांच आवरण हैं जिनमें आत्मा का असली रूप प्रकट होता है। इन्हें पाँच कोष,पाँच खजाने भी कह सकते हैं। अन्तः चेतना में एक से एक, बढ़ी-चढ़ी विभूतियाँ प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में छिपी पड़ी हैं। इन्हें जगाने पर अन्तर्जगत् के पाँच देवता जग पड़ते हैं और उनकी विशेषताओं के कारण मानवी सत्ता देवोपम स्तर पर पहुँची हुई, जगमगाती हुई, दृष्टिगोचर होने लगती है। चेतना में विभिन्न प्रकार की उमंगें उत्पन्न करने का कार्य प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान यह पाँच प्राण करते हैं। शरीर पाँच तत्व देवताओं (अग्नि, जल, वायु,आकाश और पृथ्वी) के समन्वय से बना है,यही पांच तत्व, पांच देवता काय-कलेवर का और सृष्टि में बिखरे पड़े दृश्यमान पदार्थों और अदृश्य प्रवाहों का संचालन करते हैं। समर्थ चेतना इन्हें प्रभावित करती है।
पंचकोष उपासना से चेतना और पदार्थ के दोनों ही क्षेत्रों को परिष्कृत बनाने का अवसर मिलता है, सावित्री साधना परिष्कृत करने का अवसर मिलता है। यही सावित्री साधना है। इसका देवता सविता है। सावित्री और सविता दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं । इस उपासना में सूर्य को प्रतीक और तेजस्वी परब्रह्म को, सविता का इष्ट मान कर उस स्त्रोत से ओजस्विता, तेजस्विता और मनस्विता आकर्षित की जाती है। इस तपश्चर्या से उस ब्रह्मतेजस की प्राप्ति होती है जो इस जड़ चेतन की सर्वोपरि शक्ति है।
“उच्चस्तरीय गायत्री उपासना” की दूसरी प्रक्रिया है कुण्डलिनी साधना। इसे जड़ और चेतन को परस्पर बाँधे रहने वाली सूत्र श्रृंखला कह सकते हैं। प्रकारान्तर से यह प्राणप्रवाह है जो व्यष्टि और समष्टि की समस्त हलचलों का संचालन करता है। नर और नारी अपनी जगह पर अपनी स्थिति में समर्थ होते हुए भी अपूर्ण हैं। इन दोनों को समीप लाने और घनिष्ठ बनाने में एक अविज्ञात चुम्बकीय शक्ति काम करती रहती है जिसके प्रभाव से दोनों एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं और प्रजनन क्रम चलना सम्भव होता है।
उदाहरण के लिए इसे नर और नारी के बीच घनिष्ठता उत्पन्न करने वाले चुम्बकीय धारा-प्रवाह को कुण्डलिनी की एक चिंगारी कह सकते हैं। स्त्री और पुरुष को घनिष्ठ बनाकर, उनसे सृष्टि संचार की विभिन्न हलचलों का सरंजाम खड़ा करा लेना, इसी “ब्रह्माण्डव्यापी कुण्डलिनी” का काम है। व्यक्ति सत्ता में काया और चेतना की घनिष्ठता बनाए रखना और शरीर में लिप्सा,मन में ललक और अन्तःकरण में सम्वेदनाएँ उभारना इसी कुण्डलिनी महाशक्ति का काम है। जीव की समस्त हलचलें, आकांक्षा, विचारणा और सक्रियता के रूप में सामने आती हैं। इनका सृजन एवं उत्पादन कुण्डलिनी ही करती है।
दृश्य जगत की समस्त हलचलों के बीच जो बाजीगरी और जादूगीरी काम कर रही है, उसे अध्यात्म की भाषा में “माया” कहा गया है। साधना क्षेत्र में इसी को कुण्डलिनी कहते हैं। इसे विश्व हलचलों का,मानवी गतिविधियों का,उद्गम मर्मस्थल कह सकते हैं। मनुष्य के हाथ लगते ही इस प्रमुख कुंजी द्वारा प्रगति के सभी बंद ताले खुलते चले जाते हैं। इस “स्वेच्छाचारिणी महाशक्ति” को अपने वश में करने वाले साधक,आत्मसत्ता पर नियन्त्रण करने और जगत की हलचलों को प्रभावित करने में समर्थ हो सकते हैं।
“गायत्री की उच्चस्तरीय साधना” में ऋतम्भरा प्रज्ञा उभारने के लिए पंचकोषी उपासना प्रक्रिया काम में आती है और प्रत्यक्ष सत्ता को प्रखर बनाने के लिए कुण्डलिनी साधना की कार्यपद्धति काम में लाई जाती है।
यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में तत्वदृष्टि,भावना और श्रद्धा का समावेश करना पड़ता है। जिस किसी भी मनुष्य की साधना में इन तत्वों का समावेश होगा,उसे उतना ही आत्मविकास का उत्कृष्ट लाभ प्राप्त होगा।
समापन,जय गुरुदेव
कल एक और उत्कृष्ट लेख प्रस्तुत करने की आशा है।