11 सितम्बर 2025 का ज्ञानप्रसाद-Source: गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां
गायत्री साधना की वर्तमान लेख शृंखला में निम्नस्तरीय से उच्स्तरीय, सभी स्तरों की चर्चा की जा रही है हमारे विवेकशील पाठक स्वयं ही इस Classification को समझने में समर्थ हैं, ऐसा हमारा विश्वास है।
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शास्त्रकारों के अनुसार, गायत्री साधना के केवल दो ही स्तर होते हैं:
1)निम्न
2)उच्च
निम्नस्तरीय साधना कम फल देती है,जबकि उच्चस्तरीय साधना से ही शास्त्रों में वर्णित गायत्री महात्म्य का वास्तविक फल प्राप्त होता है लेकिन वर्तमान लेख श्रृंखला में हर प्रकार के साधना स्तर एवं उनसे मिलने वाली प्राप्तियों की चर्चा की जा रही है
गायत्री की “माध्यमिक स्तर” की साधना एक ऐसी आध्यात्मिक प्रक्रिया है जो उच्चस्तरीय साधना का ही एक भाग है। इसमें गायत्री माता को केवल एक देवी नहीं, बल्कि सत्-चित्-आनंद स्वरूप, सत्य व ज्ञान का प्रतीक मानकर, मन, बुद्धि और आत्मा में दिव्य ऊर्जा समाहित करने की भावना के साथ मंत्र जाप और ध्यान किया जाता है। इसके लिए एक अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में विशिष्ट आसन, वातावरण और संयमित नियमों का पालन आवश्यक है, जो निम्नस्तरीय साधना से प्राप्त होने वाले सीमित परिणामों से आगे बढ़कर व्यक्ति को दिव्यता की ओर ले जाता है।
माध्यमिक साधना के मुख्य पहलू:
दिव्य चेतना का अनुभव:
यह साधना गायत्री माता को ब्रह्मचेतना के रूप में देखने पर केंद्रित है, जो दिव्य ज्योति बनकर साधक के रोम-रोम में समाहित होती है। कायाकल्प और आत्म-विकास:
साधना के दौरान साधक यह भावना करता है कि दिव्य प्राण उसके शरीर और आत्मा में प्रवेश कर रहा है जिससे कायाकल्प होता है और व्यक्ति नर से नारायण तथा अणु से विभु बन रहा है।
उच्चस्तरीय अनुशासन:
सामान्य जप के बजाय, इस स्तर पर सिद्धासन जैसे विशिष्ट आसनों का प्रयोग किया जाता है और इसके लिए एक अनुभवी मार्गदर्शक का होना अत्यंत आवश्यक है।
साधना में ध्यान रखने योग्य बातें:
गुरु का मार्गदर्शन:
किसी योग्य और अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में ही मध्यमस्तरीय साधना करनी चाहिए क्योंकि वातावरण,स्थान और नियमों का सही ज्ञान महत्वपूर्ण है।
सच्ची श्रद्धा व भावना:
साधना में सच्ची श्रद्धा और भावना का होना आवश्यक है। साधक को चाहिए कि वह स्वयं को उस परम सत्ता से मिलाने का प्रयास करे जिसके लिए वह साधना कर रहा है।
संयमित जीवन:
साधना के लिए उचित वातावरण के साथ-साथ संयमित जीवन और नियमों का पालन भी आवश्यक है।
संक्षेप में, गायत्री की माध्यमिक स्तर की साधना एक गहरा आध्यात्मिक अनुभव है जो व्यक्ति के अस्तित्व के हर स्तर पर सकारात्मक बदलाव लाने के लिए एक प्रबुद्ध मार्गदर्शक की देखरेख में किया जाता है।
निम्नस्तरीय साधना क्या होती है ?
परमात्मा से प्रार्थना करनी हो तो धैर्य, साहस, पुरुषार्थ और सद्गुणों की अभिवृद्धि की ही करनी चाहिए। वस्तुतः प्रभु किसी पर प्रसन्न होते हैं तो उसे भौतिक वस्तुएं नहीं, प्रेरणायें देते हैं। यदि भगवान के अनुदान से मनुष्य की चिन्ता और परेशानियों से नजात मिल जाए, कष्टों से बाहिर निकलने के लिए आवश्यक मार्गदर्शन प्राप्त हो जाय और सही मार्ग पर चलने का साहस बन पड़े तो फिर मनुष्य कठिन से कठिन उलझनों को पार करने में समर्थ हो सकता है।
इसके विपरीत यदि आकस्मिक दिव्य सहायता मिल जाय तो वह तत्कालिक उलझन तो दूर हो सकती है लेकिन क्षमता और प्रतिभा के अभाव में, फिर अगले दिन वैसी ही अनेकों समस्याएँ आगे आ खड़ी होंगी।
आए दिन उलझे दृष्टिकोण के व्यक्ति कठिनाइयों के जंजाल में ही फँसे दिखते हैं। परमात्मा का सच्चा अनुग्रह यही हो सकता है कि व्यक्ति का दृष्टिकोण सही हो,सोच सार्थक हो, समस्याओं का हल करने की हिम्मत बनी रहे, गुण, कर्म, स्वभाव में ऐसी संजीदगी हो कि इस सोच से अपनी ही नहीं दूसरों की गुत्थियों को भी सरल बनाया जा सके। गुरुदेव का सूत्र “विचार क्रांति अभियान, Thought revolution” इसी ओर जाने का तो प्रयास है। गायत्री उपासक को माता का ऐसा ही अनुग्रह मिलता है, और वह भौतिक जीवन में सुख तथा आन्तरिक क्षेत्र में शान्ति अनुभव करता हुआ स्वयं को हर घड़ी आनन्द एवं उल्लास की स्थिति में पाता रहता है।
सुख समृद्धि और सम्पदा की कामना में जप, तप, का विधि विधान:
सामान्य मनुष्य के लिए आपत्तियों के निवारण, समस्याओं के हल और अभावों की पूर्ति के लिए, पूजापाठ से बेहतर कोई भी विकल्प नहीं है। सुख समृद्धि और सम्पदा की कामना में जप, तप, का विधि विधान अपनाया जाता है। मनुष्य एक अति दुर्बल प्राणी है। सुख और लाभ की इच्छाओं से प्रेरित होकर वह भांति-भांति के कर्म करता है, उन्हीं में से एक कर्म “पूजापाठ” भी माना गया है। अधिकतर लोग देवी-देवताओं की शरण में इसीलिए जाते हैं। संत-महात्माओं का आशीर्वाद भी इसीलिए चाहते हैं। गुरुदेव बता रहे हैं कि “बालबुद्धि” की स्थिति में, “बाल-साधना” में ऐसा करना बुरा नहीं है। यदि इसी बहाने भगवान का नाम स्मरण हो जाय तो अच्छा ही है लेकिन इस दृष्टि के साथ की गई उपासना को अध्यात्मिक नहीं कहा जा सकता। ऐसी साधना केवल भौतिक उद्देश्य (5 करोड़ रुपए के कॉन्ट्रैक्ट) के लिए भौतिक प्रयत्न (500 रुपए का चढ़ावा) मात्र सिद्ध होती है और उसका प्रतिफल भी छोटा सा ही बनकर रह जाता है। इसलिए इस प्रक्रिया को तत्त्वदर्शियों ने “निम्नस्तरीय (बहुत ही छोटे स्तर की) उपासना” कहा है।
प्रारम्भिक साधक,जिनकी अध्यात्म के प्रति कोई रुचि नहीं, जो अध्यात्म का क,ख,ग भी नहीं जानते,आत्मकल्याण का अर्थ तक नहीं समझते, जिनके लिए भौतिकता एवं भौतिक लाभ ही सर्वोपरि है,उनके लिए प्राथमिक आकर्षण की दृष्टि से “सकाम या निम्नस्तरीय साधना” भी उपयोगी ही है। ऐसे मनुष्यों का जितना समय और श्रम साधना में लगता है उसकी तुलना में कही अधिक लाभ उन्हें निश्चित रूप से प्राप्त हो जाता है। जो कुछ माँगा जा रहा है, वह सब पूर्ण हो जाए इसकी तो गारण्टी नहीं लेकिन इतना तो दावे से कहा जा सकता है कि जितने समय आराधना की गई है उतने समय का लाभ उसकी तुलना में कहीं अधिक होगा जो भौतिक प्रयत्न करने में किया जाता।
गायत्री उपासना या किसी भी भगवान की आराधना में समर्पित किया गया समय कभी भी व्यर्थ नहीं जाता।
रामायण में तीन प्रकार की पतिव्रता मानी गई हैं:
1.पति के लिए आत्मसमर्पण करने वाली,
2.पति और अन्य लोगों में उचित अन्तर करके उनके साथ तदनुसार व्यवहार करने वाली और
3. दुराचार का अवसर न मिलने और दण्ड,भय की आशंका से सदाचारिणी बनी रहने वाली।
इन तीनों को ही यद्यपि पतिव्रता माना गया है लेकिन उनकी मानसिक स्थिति के कारण वे उत्तम, मध्यम और नीच, तीन श्रेणियों में विभक्त की गई हैं। पहली से दूसरी का और दूसरी से तीसरी का स्तर नीचा है। उनकी इस साधना का प्रतिफल भी उसी स्तर के अनुसार मिलता है। इसी प्रकार गीता में चार प्रकार के भक्त बताए गये हैं:
1. आपत्ति आने पर उसका निवारण करने के लिए भगवान को पुकारने वाले
2. जानकारी की जिज्ञासा पूरी करने के लिए परमात्मा की खोजबीन करने वाले
3. सिद्धियाँ और विभूतियाँ पाने के लालच से जप, तप, करने वाले
4. प्रभु को प्रगति के लिए सच्ची भावना से आत्म-समर्पण करने वाले विवेकशील ज्ञानी।
इन चारों का स्तर भी क्रमशः एक दूसरे से श्रेष्ठ है। मनोभूमि के अनुसार ही उपासना की श्रेष्ठता या निकृष्टता नापी जाती है।
यद्यपि बाहर से सभी तरह के भक्तों की पूजा उपासना एक समान दिखाई पड़ती है। तीन पतिव्रता महिलाओं और चार साधकों की बाहरी स्थिति में कोई अन्तर नहीं होता, सबका आचरण एक समान होता है लेकिन अन्तःस्थिति में अंतर् होने के कारण उनकी श्रेष्ठता एवं निकृष्टता का स्वरूप अलग-अलग ही रहता है और उसी आधार पर उन्हें लाभ भी कम/अधिक प्राप्त होता है। वैश्या और पत्नी के शारीरिक आचरण एक सा होने के बावजूद,दोनों की भावना के कारण प्रतिफल में भारी अन्तर रहना स्वाभाविक है।
गायत्री उपासना में भी इसी प्रकार के स्तर हैं। निम्नस्तर के साधक विपत्ति के समय, कोई भौतिक लाभ प्राप्त करने के लिए माता को पुकारते हैं, माँ का द्वार खटखटाते हैं। ऐसे लोगों को इच्छित समय में, इच्छित मात्रा का लाभ मिल गया तो अपने श्रम की सार्थकता मानकर, अपनी सफलता और चतुरता पर गर्व करते हैं। ऐसे निम्नस्तरीय साधक अपनी घटिया मनोभूमि के कारण कोई बड़ा लाभ नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि घट-घट वासिनी महाशक्ति आखिर “भावना स्तर” को भी तो देखना जानती है। बाहरी कर्मकाण्ड (ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर भक्ति का प्रदर्शन करना, घंटी/शंख बजाकर वाहवाही लूटना आदि) ही तो माँ के लिए सब कुछ नहीं है। प्रभु की प्रसन्नता “उच्चस्तरीय भावनाओं” द्वारा ही सम्भव है। प्रभु तो भावना से ही पसीजते हैं। केवट, शबरी, सुदामा, विदुर,गोपियों का साधनात्मक कर्मकाण्ड साधारण रहने पर भी उनकी भावना ने उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति कराई जब कि निकृष्ट उद्देश्य से साधना करने वाले मेघनाद, कुम्भकर्ण, रावण भस्मासुर, हिरण्यकश्यप को प्राप्त हुए वरदान भी उनके पतन में ही सहायक हुए।
ईश्वर के राज्य में व अध्यात्म के क्षेत्र में भावना का ही सबसे बड़ा महत्त्व है।
गायत्री उपासना की एक जैसी साधना पद्धति अपनाने वाले व्यक्तियों में से सब को एक जैसा परिणाम नहीं मिलता। कोई स्वल्प काल में ही आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त कर लेते हैं और कुछ को बहुत समय बीत जाने पर कोई प्रकाश दृष्टिगोचर नहीं होता।
यों उपासना का अपना लाभ तो होता ही है। उसका परिणाम तो होना ही ठहरा लेकिन किस व्यक्ति को कितना लाभ मिलेगा उसका अनुमान लगाना हो तो यही जानना पड़ेगा कि उसने किस भावना से, किस श्रद्धा और तन्मयता से साधना की। यदि श्रद्धा और तन्मयता घटिया रहे होंगें तो उसी अनुसार घटिया परिणामों की ही आशा की जा सकती है। गायत्री उपासना के महात्म्यों का शास्त्रकारों ने विशद वर्णन किया है। उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि यह साधना पारस, कल्पवृक्ष, कामधेनु और अमृत के समान उपयोगी है। हमारे गुरुदेव समेत अनेकों साधकों को वैसे ही लाभ मिले भी हैं। उनके चरित्र और उदाहरण सामने आते हैं तो विश्वास और भी बढ़ता है। प्राचीनकाल में समस्त ऋषि मुनि, राम, कृष्ण और अवतार, महापुरुष ज्ञानी मनस्वी और विचारशील व्यक्ति गायत्री उपासना ही करते रहे हैं। गुरुदेव बताते हैं कि यही हमारी एकमात्र आराधना रही है। इसी मन्त्र की शक्ति से इस देश का अध्यात्मबल बढ़ा है और हमारा इतिहास गौरवपूर्ण बना है। अभी भी ऐसे अनेक गायत्री उपासक मौजूद हैं जिनका आत्मबल इस बीते युग में भी आश्चर्यजनक कहा जा सकता है।
इन तथ्यों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि गायत्री महामन्त्र के बारे में ऋषियों और शास्त्रों ने जो कुछ कहा है वह असत्य नहीं है लेकिन जब मनुष्य अपनी निज के बारे में सोचता है,कहता है कि हमने इतने दिन, इतने घण्टे, इतने हजार जप कर लिया लेकिन हमारे मनोरथ तब भी पूरे नहीं हुए तो निराशा होने लगती है। ऐसी स्थिति में मस्तिष्क का यह सोचना स्वाभाविक है कि यदि यह महात्म्य सही होता तो हमें भी इतना लाभ क्यों नहीं मिला?
इस दुविधा का समाधान इस प्रकार करना चाहिए कि निम्नस्तरीय- क्षुद्रता की मनोभूमि में की हुई उपासना बहुत थोड़ा फल देती है। उच्चस्तरीय साधना से ही वह परिणाम मिलता है जिसके आधार पर शास्त्रों में वर्णित गायत्री महात्म्य को सत्य माना जा सके।
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