10 सितम्बर 2025 का ज्ञानप्रसाद-Source:गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां
परम पूज्य गुरुदेव द्वारा रचित 374 पन्नों के विशाल ग्रन्थ “गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां” के आरंभिक पन्नों में तीन प्रकार की “साधना स्तर” का वर्णन है। गुरुदेव ने इन तीनों साधना स्तरों को शिक्षा के तीन स्तर की भांति: “बाल साधना”, “माध्यमिक साधना” और “उच्स्तरीय साधना” में Classify किया है। जिस प्रकार नर्सरी, प्राइमरी,मिडिल,हाई स्कूल,कॉलेज और फिर यूनिवर्सिटी शिक्षा में एडमिशन होती है ठीक उसी तरह साधना की कक्षाओं में भी एडमिशन होती है। जिस प्रकार ग्रेजुएशन की परीक्षा पास करने के बाद ही पोस्ट ग्रेजुएशन में एडमिशन मिलती है,ठीक उसी प्रकार साधना में भी मूल्यांकन और पात्रता की परीक्षा ली जाती है।
आज और कल के ज्ञानप्रसाद लेख में जिस ज्ञानगंगा का अवतरण हुआ है/होगा उसका अमृतपान करके पाठक स्वयं ही Self-assessment कर लेंगें कि हम किस स्तर के साधक हैं- बाल-साधक,माध्यमिक साधक या फिर उच्स्तरीय-साधक।
कल वाले लेख में भी लिखा था आज भी लिख रहे हैं कि धीरे-धीरे, एक-एक कदम चलते हुए यदि हम गुरुदेव के इस ज्ञान को समझ पाएं,औरों को समझा पाएं, स्वयं को बदल सकें तो ही आदरणीय सुजाता बहिन जी का सुझाव कारगर सिद्ध होगा।
तो साथिओ विश्वशांति की कामना एवं गुरुवर के आग्रह (आद बड़ी बहिन जी ने भी इसके लिए आग्रह किया था) के साथ आज की ज्ञानकक्षा का शुभारम्भ करते हैं:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
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गायत्री क्या है, उसकी उपासना में क्या दृष्टि रहे और किन गुणों का समावेश अपनी मनोभूमि में होना चाहिए, जिस व्यक्ति को इन सब बातों का ध्यान रहेगा उसकी थोड़ी भी साधना बहुत फलदायक होगी।
“सामान्य साधना” जिसे छोटे स्तर की बाल-साधना कहते हैं, क्रियाकाण्ड भर की होती है। ऐसे कितने ही व्यक्ति हैं जो केवल जप को ही सब कुछ समझते हैं। जप, हवन,अनुष्ठान पूजन आदि बाहरी प्रतीक उपचार ही उनकी समझ में सब कुछ होता है। उन्होंने तो जप की संख्या पूरी करनी है,फिर चाहे उनके मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह के कुविचार कितनी ही अनुशासनहीन गति से क्यों न उठते रहें। जगजननी की छवि को देखने का ध्यान करना ही उनके लिए सब कुछ होता है। श्रद्धा, प्रेम,आत्मीयता एवं तन्मयता का भाव भी साथ में है या नहीं इस बात पर वे लोग ध्यान नहीं देते। “मानवोचित जीवन”(आगे देखें) क्या है ? इससे उनका कोई लेना देना नहीं है। परम वंदनीय माता जी अपने उद्बोधनों में ब्राह्मणोचित जीवन के बारे में बार-बार बता चुकी हैं।
गुरुदेव कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि जप का कोई लाभ नहीं होता है,जप करने में जो शरीरिक श्रम किया जाता है, वह कुछ तो उपयोगी है ही लेकिन भावना के अभाव में वह एक प्रकार से निर्जीव (Lifeless) ही बना रहता है।
सही अर्थों में सच्ची उपासना वही है जो “आत्मा के कल्याण” के लिए, जीवनस्तर को उत्कृष्ट बनाने के लिए, मनोभूमि में दुर्बुद्धि हटा कर सद्बुद्धि की स्थापना के लिए, श्रद्धा और भावना से ओतप्रोत होकर की जाती है। भांति-भांति के लौकिक,सांसारिक प्रयोजनों की पूर्ति का लक्ष्य रख कर,भगवान के साथ शर्तें पूरी करने के लिए,अनेकों व्यक्ति जप-तप करते हैं और यह हिसाब लगाते रहते हैं कि इतना जप हो जाने पर यह प्रयोजन पूरा हो जाना चाहिए,यह सिद्धि मिल जानी चाहिए। ऐसे लोग भगवान के साथ केवल प्रयोजन पूरा होने तक ही जुड़े रहते हैं। यदि उनका प्रयोजन पूर्ण हो गया तो उस भगवान को छोड़कर दूसरे की मिन्नतें करने में जुट जाते हैं,फिर तू कौन मैं कौन। यदि प्रयोजन पूरा नहीं हुआ तो भी उसको त्याग ही देते हैं।
इसी संदर्भ में एक वैद्य और रोगी की कथा स्मरण हो रही है। वैद्य के पास रोगी तब तक ही जाता है जब तक उसे कष्ट रहता है। कष्ट दूर होते ही रोगी, वैद्य से रिश्ता तोड़ लेता है । इसी प्रकार यदि रोग अच्छा न हो तो भी रोगी उस वैद्य से मुंह मोड़ लेता है और उसकी बुराई करने लगता है। आखिर Second opinion का ज़माना है, कोई किसी पर (यहाँ तक कि भगवान, वैद्य, शिक्षक, गुरु पर) विश्वास क्यों करेगा ? आज के युग की सबसे बड़ी भटकन,अनंत पाने की लालसा और अविश्वास ही है।
किसी इच्छा या लक्ष्य (जैसे संतान, धन, नौकरी) की प्राप्ति के लिए की गई इस “सकाम उपासना” द्वारा भगवान से प्रार्थना करना और पूजा-पाठ या भक्ति करना मात्र एक दिखावा है। जो व्यक्ति मनोकामना को पूरा करने के उद्देश्य से ईश्वर की आराधना करता है, वह एक प्रकार की कर्म-केंद्रित भक्ति करता है। इस प्रकार की भक्ति में जहाँ भक्त अपनी भौतिक या सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्वर से जुड़ता है, ऐसी उपासना का मुख्य आधार कोई न कोई इच्छा या कामना होती है। “सकाम उपासना” के माध्यम से भक्त किसी विशेष फल या वस्तु की आशा रखता है,इसके विपरीत “निष्काम उपासना” होती है, जिसमें भक्त ईश्वर से कुछ भी नहीं चाहता, केवल उनका सुख चाहता है। “सकाम उपासना” वालों का लेवल इतने तक ही सीमित रहता है कि यदि किसी तप से अभीष्ट लाभ हो गया तो फिर उसे करने की जरूरत नहीं रहती और चाही हुई अवधि में मनोकामना पूर्ण न हुई तो भी उसे व्यर्थ समझकर छोड़ दिया जाता है।
ऐसी उपासना को साधना कहना ही नहीं चाहिए, यह तो कोरी सौदेबाजी हुई, वह तो किसी “लौकिक प्रयोजन” को पूरा करने के लिए “एक लौकिक माध्यम मात्र” थी।
आत्म-कल्याण के लिए लौकिक कामनाओं से रहित होकर की गयी साधना ही फलित होती है। गुरुदेव द्वारा दिया गया सूत्र, “अपना सुधार-सबका सुधार”, “हम सुधरेंगे,युग सुधरेगा” इसी विचारधारा के बीजमंत्र है। यही आत्म-कल्याण है,अपनी आत्मा का परिष्कार है।
गुरुदेव के विचार क्रांतिकारी बीज बनकर सारे विश्व में एक ऐसी पौध लगा रहे हैं, जिनसे विकसित होने वाले उपवन की शीतल छाया सभी के हृदयों में ठंडक पैदा करेगी। युगतीर्थ शांतिकुंज से प्रसारित हुए आज ही के सन्देश में शांतिकुंज को क्रान्तिकुंज कह कर सुशोभित किया गया है।
मनुष्य को एक बात गांठ बाँध लेनी चाहिए कि ईश्वर ने उसे जो कुछ भी दिया है वह कम नहीं है। उसे दूसरों के साथ तुलना करना बंद करनी चाहिए क्योंकि उसे अपने में जो कमी दिखती है वह उसके प्रयत्न और पुरुषार्थ की त्रुटियों के कारण है। माता-पिता की सभी संतानों को एक जैसे अवसर प्रदान कराए जाते हैं लेकिन अपने पुरुषार्थ/ परिश्रम/बुद्धि के कारण एक संतान आकाश की ऊंचाइयों को छूने में समर्थ होकर स्वर्गतुल्य जीवन व्यतीत करती है जबकि दूसरी नरकीय जीवन के कारण ईश्वर को कोसते-कोसते जीवन की गाड़ी खींचती रहती है।
यदि मनुष्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव के दोषों का सुधार करते हुए अपने व्यक्तित्व को सुव्यवस्थित करे तो प्रत्येक उचित कामना अपनेआप ही पूर्ण हो सकती है। भगवान उसे ऐसी सिद्धियों से लाद देते हैं कि वह कुछ भी करने के योग्य बन जाता है। यदि मनुष्य अपनी त्रुटियों को ज्यों का त्यों रखा रहे, दोष और दुर्गुणों को ज्यों-का-त्यों रहने दिया जाय,तृष्णा और कामना की परिस्थितियों के साथ तालमेल रखकर लम्बी-चौड़ी कामना करते हुए उनकी पूर्ति के लिए,थोड़े से पूजापाठ को साधना मान लिया जाय तो यह उसकी बहुत बड़ी भूल है। गुरुदेव बताते हैं कि “कर्म और पुरुषार्थ का उचित मूल्य चुकाने पर पात्रता के अनुसार जो सफलतायें मिलती हैं उन्हें थोड़े से पूजापाठ के द्वारा चुटकी बजाते, प्राप्त करने का लालच करना बहुत ही अनुचित और अनुपयुक्त बात है।”
मनुष्य को लौकिक प्रयोजनों की पूर्ति अपने गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार करते हुए, पुरुषार्थ एवं परिश्रम द्वारा ही करना चाहिए। ईश्वर ने मनुष्य को उन सभी क्षमताओं से पूरी तरह सम्पन्न करके भेजा है जिनसे वह अपनी आवश्यकतायें,अपने बाहुबल,बुद्धि एवं कौशल से सरलतापूर्वक प्राप्त कर सकता है। शुभ अशुभ कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख की परिस्थितियाँ आती जाती रहती हैं। इन्हें धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिए। “कर्मफल का सिद्धान्त अमिट है। हमारी करनी हमें ही भरनी पड़ेगी। इसके लिये ईश्वर को या किसी दूसरे को दोष देने से क्या लाभ?” कर्म की गति ने तो भगवान को भी नहीं छोड़ा तो मनुष्य किस खेत की मूली है।
रामचरित मानस की दिव्य शिक्षा “कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।जो जस करहि सो तस फल चाखा।।सकल पदारथ हैं जग मांही। कर्महीन नर पावत नाहीं।” से भला कौन अपरिचित है। यह जगत, यह विश्व कर्म प्रधान है, जो व्यक्ति जैसा करता है उसे वैसे ही फल की प्राप्ति होती है। अगर आपने अच्छा कर्म किया है तो उसका शुभ फल आपको हर हाल में मिलेगा लेकिन अगर आपके कर्म बुरे हैं तो उसके बुरे परिणामों से भी आप स्वयं को बचाकर नहीं रख सकते।
मनुष्य का संपूर्ण जीवन इसी बात पर आधारित है कि वह जीवन में किस तरह के कर्म करता है। कर्महीन व्यक्ति के लिये इस जगत में कुछ भी नहीं है। अगर उद्यम नहीं किया गया तो व्यक्ति को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता।
कर्मयोगी व्यक्ति धैर्य और साहसपूर्वक बुरी परिस्थितियों का भी मुकाबला कर सकता है। ईश्वर की न्याय व्यवस्था को बिगाड़ कर उनसे अपने लिए पक्षपात का व्यवहार मांगना किसी सच्चे साधक को शोभा नहीं देता। यदि हमने पाप किया है तो हमारे अंदर उसका दण्ड हँसते हुए भोगने का साहस भी होना चाहिए, इसी को “मानवोचित दृष्टिकोण” कह सकते हैं।
मानवोचित दृष्टिकोण क्या है ?
मानवोचित दृष्टिकोण एक ऐसी फिलॉसफी और विचारधारा है जो मानवीय मूल्यों, आवश्यकताओं और क्षमताओं पर केंद्रित है। यह फिलॉसफी अलौकिक या धार्मिक हठधर्मिता के बजाय मानव तर्क और विवेक को, नैतिक और निर्णय लेने को आधार मानती है। यह व्यक्ति के सर्वांगीण विकास, उसकी स्वतंत्र इच्छाशक्ति, और समाज व दूसरों के प्रति जिम्मेदारी पर बल देती है। इस फिलॉसफी का लक्ष्य मानव को वास्तविक रूप से सुखमय बनाना,उसके मूल्यों को गरिमा प्रदान करना और सार्वभौमिक बंधुत्व एवं न्याय (Universal brotherhood and justice) को बढ़ावा देना है।
इस दृष्टिकोण की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :
मानव-केंद्रितता:
यह दृष्टिकोण मनुष्य को संसार का केंद्रबिंदु मानता है और उसके सर्वांगीण (शारीरिक, नैतिक, आध्यात्मिक) विकास को महत्व देता है। तर्क और विवेक:
मानवतावाद दैवीय या अलौकिक विश्वासों के बजाय मानव की तर्कसंगत सोच, बुद्धि और विवेक पर भरोसा करता है।
नैतिक स्वतंत्रता और जिम्मेदारी:
यह व्यक्ति की नैतिक स्वतंत्रता और उसके निर्णय लेने की क्षमता पर ज़ोर देता है, साथ ही दूसरों के प्रति जिम्मेदारी भी सिखाता है। सार्वभौमिक बंधुत्व:
इसमें जाति, धर्म, वर्ग या किसी भी भेदभाव से ऊपर उठकर सभी मनुष्यों के कल्याण और विश्व-बंधुत्व की भावना निहित है।
मानवीय मूल्यों को प्रोत्साहन:
दया, प्रेम, परोपकार, अहिंसा और उदारता जैसे मानवीय गुणों के विकास को प्रोत्साहित किया जाता है.
आत्म-खोज और क्षमता:
यह व्यक्ति को अपनी पूरी क्षमता हासिल करने, आत्म-खोज करने और एक व्यक्ति के रूप में स्वयं को विकसित करने के लिए प्रेरित करता है।
महत्व:
यह आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के युग में मानवीय भावनाओं और मूल्यों के पतन को रोकने में सहायक है।
यह धर्मान्धता और उत्पीड़न के खिलाफ एक सशक्त माध्यम है, जो बोलने और लिखने की आजादी का समर्थन करता है।
यह शिक्षा का एक ऐसा दृष्टिकोण है जो बच्चों में नैतिक और सामाजिक मूल्यों के विकास पर ध्यान केंद्रित करता है।
कल तक के लेख के लिए मध्यांतर
धन्यवाद्, जय गुरुदेव
