3 सितम्बर 2025 का ज्ञानप्रसाद
अखंड ज्योति के जनवरी 1971 अंक में “चमत्कार कोई अवैज्ञानिक तथ्य नही” शीर्षक से प्रकाशित लेख शृंखला हमारे पाठक पहले भी पढ़ चुके है लेकिन आज और कल का लेख उस लेख से विभिन्न है। किसी Technical error के कारण एक ही शीर्षक के अंतर्गत दो अलग-अलग कंटेंट प्रकाशित हुए, दोनों ही अपने में अद्वित्य हैं।
वर्तमान कंटेंट में ध्वनि के स्तर यानि Volume की चर्चा करने का प्रयास रहेगा। अभी कल वाले लेख में ही हमने मंत्रों की गति एवं वॉल्यूम पर कितना ही कुछ लिख दिया था, सभी ने कमेंट करके अपने-अपने विचार भी रखे जिसके लिए हम सदा आभारी रहेंगें। हमारे साथिओं को स्मरण तो होगा ही कि हम हैडफ़ोन (वोह भी अच्छे वाले) लगा कर साधना करने की भी बात करते आ रहे हैं लेकिन जहाँ यह प्रक्रिया एकाग्रचित होने में, आसपास के शोर शराबे से बचने के लिए लाभदायक है वहीँ High volume में लगातार हैडफ़ोन सुनना हानिकारक भी हो सकता है।
ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी अनेकों शक्तियों में से प्रमुख शक्तियों (ताप, प्रकाश, विद्युत) के भौतिक रूपों का वर्णन करने के लिए “शब्द” की आवश्यकता होती है। हम टेम्परेचर को फील करके, थर्मामीटर से देख करके शब्दों की सहायता से लिख कर बता सकते हैं कि कितना बुखार है। जैसे हम शब्द लिख कर बता सकते हैं उसी बात को हम बोल कर ध्वनि के माध्यम से भी बता सकते हैं। ध्वनि (Sound) को समझना ही आज के ज्ञानप्रसाद लेख का विषय है जिसे हम आज और कल, दो अंकों में पूरा करेंगें जिनमें अनेकों जिज्ञासाओं के निवारण होने की आशा है।
तो बस चलते हैं विश्वशांति की कामना के साथ गुरुकक्षा की ओर:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
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भारतीय फिलॉसॉफी की सामान्य अवधारणा के साथ श्रीमद्भगवत गीता भी मानती है कि मनुष्य के पास 5 ज्ञानेन्द्रियां (Sense organs) और 5 कर्मेन्द्रियां(Organs of action) हैं। रूप, शब्द, गंध, स्पर्श और रस पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं और हाथ, पैर, वाणी, मल विसर्जन और प्रजनन आदि के Organs कर्मेन्द्रियां हैं
मन को 11वीं इन्द्रिय माना जाता है, जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच रेगुलेटर का काम करता है। ये इन्द्रियां और मन, हमारे ज्ञान और कर्म के साधन मात्र न होकर इस संसार को भोगने के भी साधन हैं। संसार का सुख भोगने में मन, विचार और कल्पना के द्वारा भी सहायता करता है।
“मन” के बारे में अनेकों बार लिख चुके हैं, आज एक बार फिर से घोषणा करना अनुचित नहीं होगा कि
“मनुष्य का मन संसार की सबसे अशांत वस्तु है। उसे कभी भी शांति प्रार्प्त ही नहीं होती,इसी अशांति के कारण मनुष्य संसार में अपनी इच्छाओं की पूर्ति के साधनों की तलाश में भटकता रहता है, नए-नए आविष्कार करता रहता है। सदैव कुछ नया करने की जिज्ञासा उसे कभी भी शांति से बैठने नहीं देती। जैसे ही मनुष्य को अपनी इच्छा की एक वस्तु मिलती है उसका अशांत मन तुरंत किसी दूसरी वस्तु की तलाश में दौड़ने लगता है।”
मनुष्य में जानने की जिज्ञासा, ज्ञानप्राप्ति की जिज्ञासा ऐसे स्तर की होती है कि संसार में कदम रखते ही अपनी चीख, रुदन से अपना अस्तित्व बताना शुरू कर देता है कुछ ही दिनों में आँखें घुमा-घुमा कर देखना आरम्भ कर देता है। हाथ-पाँव हिला कर अपने आस-पास के वातावरण को फील करना शुरू कर देता है। अगले Step में अपनी तोतली सी वाणी में Communicate भी करना आरम्भ कर देता है और प्रकृति का विधान भी देखो कि First time mother जिसके लिए यह एक नर्सरी की क्लास होती है, सब कुछ स्वयं ही सीख जाती है, स्वयं ही Communicate भी कर लेती है, नवजात शिशु की सभी बातें ऐसे समझते जाती ही जैसे वर्षों से परिचित हो।
वाह रे मेरे ईश्वर, तूने मनुष्य को कैसी-कैसी शक्तियों का भण्डार प्रदान करके मालामाल किया हुआ है।
“ध्वनि (Sound)” टकराव से उत्पन्न होती है और ईथर तथा वायु के सहारे अपने अस्तित्व का परिचय देती है। सामान्यतः उसे किसी घटना की जानकारी देने वाली समझा जाता है और सर्वाधिक उपयोग “शब्द गुच्छकों (Sound packets)” के माध्यम से वार्तालाप में किया जाता है लेकिन इन गुच्छकों को इतने ही छोटे क्षेत्र तक सीमित नहीं मान कर चुप बैठना चाहिए। “शब्द” की अपनी समर्था है और उसका प्रभाव एवं क्षमता प्राणिजगत एवं पदार्थजगत में समान रूप से देखा जा सकता है।
जो प्राणी किसी रूप में शब्दोच्चार कर सकते हैं वे अपनी इच्छा, आवश्यकता एवं स्थिति की जानकारी अपने सहयोगियों को शब्दों के माध्यम से ही देते हैं।अपनी जाति में उनका पारस्परिक आदान-प्रदान “शब्दों” के आधार पर चलता ही है। इस व्यवहार में “मनुष्य सबसे अधिक एक्सपर्ट” है। निजी अभिव्यक्तियों से लेकर परिवार व्यवस्था, व्यवसाय एवं समाज व्यवहार के सारे काम “वार्तालाप (Dialogue)” के माध्यम से ही सम्भव होते हैं।
विचारणाओं और भावनाओं की व्यापक अभिव्यक्ति में “लेखनी” की तुलना में “वाणी” का उपयोग हज़ारों गुना अधिक होता है। जो गूँगा,बहरा अपनी तो कह सके लेकिन दूसरे की न सुन सके तो उसे एक प्रकार से “अपंग” ही कहना चाहिए।
“ध्वनि (Sound)” का उपयोग भावनाओं और परिस्थितियों के माध्यम से उतना अधिक होता है जितना किसी अन्य इन्द्रिय के माध्यम से सम्भव नहीं है। नेत्रों के माध्यम से “दृष्टि की इन्द्रिय” को प्रमुख माना जाता है, लेकिन “वाणी” की तुलना में इस इन्द्रिय की उपयोगिता नगण्य ही रह जाती है। विरजानन्द जैसे विद्वान, सूरदास जैसे कवि, के.सी.डे जैसे गायक अन्ध समुदाय में अपना नाम बनाए हुए हैं किन्तु किसी बधिर(Deaf) और मूक(Dumb) द्वारा कोई कीर्तिमान स्थापित किया गया हो, ऐसा “केलर” जैसा उदाहरण समस्त संसार खोज डालने पर भी युगों में मात्र एकाध ही मिलेगा। यहाँ हम “केलर”, हेलेन केलर के लिए प्रयोग कर रहे हैं जो अमेरिका की पहली बधिर-अंध व्यक्ति थीं। अलबामा में जन्मी, केलर को 19 महीने की उम्र में एक बीमारी के कारण उनकी देखने और सुनने की शक्ति चली गई। उन्होंने मुख्यतः घरेलू संकेतों के माध्यम से ही Communicate किया। केलर ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रेडक्लिफ कॉलेज में प्रवेश लिया और कला स्नातक की उपाधि प्राप्त करने वाली संयुक्त राज्य अमेरिका की पहली Deaf-blind व्यक्ति बनी। जहाँ हम अमेरिका के इस कीर्तिमान की बात कर रहे हैं तो भारत की 34 वर्षीय इंदौर निवासी गुरदीप कौर वासु को कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने Deaf and dumb होने के बावजूद दृष्टिहीन होते हुए भी न केवल 12वीं की कक्षा भी पास की बल्कि कमर्शियल टैक्स डिपार्टमेंट में क्लास 4 कर्मचारी की नौकरी भी प्राप्त की।
गुरुदीप और केलर की कहानियां उन लोगों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बन सकती जो अज्ञानता के वशीभूत,अवसरों के न मिलने का बहाना बनाते हुए अमूल्य जीवन की बलि दिए जाते हैं। ऐसे लोगों को मालूम ही नहीं है कि ईश्वर ने उन्हें अनेकों विभूतियाँ देकर इस संसार में भेजा है,आवश्यकता है स्वयं को पहचानने की, यह जानने की कि “मैं क्या हूँ ?” परमपूज्य गुरुदेव की वीडियो इन्हीं विभूतियों की बात कर रही है।
आइए आगे चलते हैं :
शिक्षा में “शब्द शास्त्र” की ही प्रमुखता है। लिपि और शब्दकोष के माध्यम से क्रमबद्ध “लेखन” की जो धारा बनती है,उसे इतना प्रभावशाली माना गया है कि प्राचीनकाल से ही इसे “कथन” के समतुल्य ही बना लिया जाता रहा है। कई बार लेखन को ऐसा समझा जाता रहा है जैसे कि आमने सामने बैठ कर बात हो रही हो। ज्ञान विज्ञान का विस्तार इसी आधार पर सम्भव होता आया है। आजकल तो वीडियोस ने लेखन का स्थान ले लिया है और वोह भी केवल शार्ट वीडियोस के रूप में, आखिर समय की ही तो समस्या है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर “समय की समस्या” अनेकों बार बाधा डाल चुकी है लेकिन हम हैं कि इस समस्या का समाधान करने के लिए कोई न कोई विकल्प ढूंढते ही रहते हैं।
मानवी प्रगति के योगदान में सर्वोपरि उपयोग “ध्वनि शक्ति (Power of sound)” के विभिन्न रूपों को ही ठहराता है। इन दिनों “ध्वनि” के असन्तुलन से उत्पन्न होने वाली विकृतियों की चर्चा ज़ोरों से चल रही है और उससे उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रिया पर समाज में चिन्ता व्यक्ति की जा रही है। कोलाहल, शोर-शराबा आज एक बड़ी समस्या बन चुकी है और उससे उत्पन्न होने वाले दुष्प्रभाव से बच सकने का उपाय गम्भीरतापूर्वक सोचना बहुत ही आवश्यक है। बढ़ते हुए शोर/कोलाहल को एक महामारी की तरह ही शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए अनिष्ट आँका गया है।
इंग्लैंड की आवाज विरोधी सभा में ब्रिटिश सैनिक सर्जन डान मेककेनसी ने अपने वक्तव्य में कहा था कि विगत युद्ध में बहुत से मनुष्य ध्वनि के प्रभाव से मरे हैं। विस्फोट की ध्वनि घातक होती है। वैज्ञानिक भविष्य में ध्वनि को युद्धों में मारक अस्त्र की भाँति उपयोग करने की सोच रहे हैं। केवल भीषण आवाज़ ही नहीं, निरंतर हो रही धीमी आवाज भी बहुत से व्यक्तियों में Neurological stress उत्पन्न कर देती है। वर्तमान में अमेरिका जैसे सभ्य देशों में मानसिक एवं पागलपन के रोगियों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। इसका एक मुख्य कारण “ध्वनि का दुष्प्रभाव” है। जो व्यक्ति ऊँची एवं अधिक आवाज़ वाले स्थानों, महानगरों में, शोर वाले वातावरण में रहते हैं , उनमें बहरेपन की बीमारी अधिकाधिक बढ़ती जा रही है। कर्कश आवाज से “मनुष्य की ध्वनि ग्रहण करने की क्षमता कम” होती जाती है। Neurons पर बुरा प्रभाव पड़ता है तथा परीक्षणों से मालूम हुआ है कि ऊँची आवाज़ नींद में बाधा डालती हैं,Neurological system में थकान उत्पन्न कर देती है एवं पाचन शक्ति को दुर्बल कर देती है।
वैज्ञानिकों ने ध्वनि को मापने के यूनिट डेसीबल (Decibel) के अनुसार उपयोगी/अनुपयोगी ध्वनियों को Classify किया है। सुप्रसिद्ध डॉ. ई. लारेंसस्मिथ ने बताया है कि 60 डेसीबल यां उससे अधिक लेवल की “ध्वनि से पाचन क्रिया पर निश्चित ही बुरा प्रभाव” पड़ता है। सामान्य रूप से बात करने की ध्वनि 40 डेसीबल के स्तर की होती है। कार्यालयों में एक-दूसरे की आवाज़ मिलाकर 50 डेसीबल हो जाती है। साधारण शोरगुल वाले स्थानों में ध्वनि का स्तर 70 डेसीबल तक पहुँच जाता है। डॉ. फोस्टर कैनेडी ने प्रमाणित किया है कि High pitch,high volume ध्वनि का मनुष्य के मन पर बहुत भयंकर प्रभाव पड़ता है। उन्होंने देखा कि हवा से भरी हुई कागज़ की थैली के फटने पर जो ध्वनि हुई उससे एक रोगी के मस्तिष्क का दबाव (Brain pressure) 2 सेकेंड तक सामान्य से चार गुना हो गया। यह दबाव मस्तिष्क को नाईट्रोग्लिसरीन (Nitroglycerine) नामक दबाव बढ़ाने वाली ड्रग्स से भी अधिक था। उनका कहना है कि इस स्तर की लगातार आवाज़ से मनुष्य की मृत्यु तक हो सकती है, पागल हो जाना तो सामान्य सी बात है।
आज के लेख का कल तक के लिए यहीं पर मध्यांतर होता है, कल इसके आगे चलेंगें। हमारा पूर्ण विश्वास है कि जब हमारे साथी ध्वनि के दुष्प्रभाव पढ़ रहे होंगें तो उन्हें सुप्रसिद्ध डायरेक्टर, नायक मनोज कुमार जी की पांच दशक पुरानी सुपरहिट मूवी “शोर” अवश्य ही स्मरण हो आयी होगी।
धन्यवाद्, जय गुरुदेव