27 अगस्त 2025 का ज्ञानप्रसाद
https://youtube.com/shorts/WqOmLYa8Qm… (गुरुदेव हमसे प्रार्थना कर रहे हैं)
पिछले कुछ दिनों से ज्ञानरथ परिवार के मंच से लगातार “चमत्कार” विषय पर लेख प्रस्तुत किये जा रहे हैं। पाठकों के समक्ष अनेकों संस्मरण प्रस्तुत किये गए जिनमें कइयों के कभी समाप्त न होने वाले कष्ट मिटे हैं तो कईयों को अप्रत्याशित सहायता उस समय मिली है,जब सहायता के सभी द्वार बन्द हो चुके थे, कईयों को सूक्ष्म सत्ता के दर्शन के साथ पर्याप्त मनोबल के रूप में अनुदान मिला तो कईयों को अनुदान के रूप में सदबुद्धि प्राप्त हुई है जिसके द्वारा अन्धकार भरे जीवन में नया प्रकाश मिला है।
यह सारे घटनाक्रम अद्भुत एवं अलौकिक हैं व इनसे परोक्ष जगत की दिव्य सत्ता पर हम सबका विश्वास और दृढ़ होता है।
इन्हीं घटनाक्रमों के समापन का समय निकट आ रहा है,कल वाले (एक बहुत ही छोटे) लेख से इस विषय को पूर्णविराम देने का समय आ गया है। यह पूर्णविराम केवल ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच के लिए ही है, गुरुदेव जैसी अवतारी सत्ता के चमत्कार-विवरण से साहित्य भरा पड़ा है,उसका रेफेरेंस हम अनेकों बार दे चुके है, फिर से रिपीट करने का कोई औचित्य नहीं होना चाहिए।
आओ चलें गुरुचरणों में समर्पित होकर, आज के ज्ञानामृत की एक-एक बूँद से ऊर्जावान होकर इस जगत के कल्याण में अपनी सार्थक भूमिका निभाएं, गुरुदेव हमसे प्रार्थना कर रहे हैं, विचारक्रांति योजना में सहयोग देना हमारा कर्तव्य है, कमैंट्स की शक्ति से हम सब भलीभांति परिचित हैं।
हमेशा की तरह शांतिपाठ के साथ आज के लेख का शुभारम्भ करते हैं:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
******************
भारतवर्ष अवतारों की भूमि है। अवतार विशिष्ट चेतनसत्ता को समाहित कर अवतरित होते हैं व मानवमात्र का मार्गदर्शन करने के लिए शाश्वत तत्वदर्शन सूत्र रूप में दे जाते हैं।
आज हम जिन क्षणों में यह चर्चा कर रहे हैं, यह बड़ा विलक्षण समय है। जितनी आवश्यकता इस समय इस धरा को अवतार की है, उतनी संभवत: पहले कभी नहीं रही।
अवतार कौनसा ?
श्रुति के अनुसार ईश्वरीयसत्ता के अवतार कई रूपों में होते हैं,आवेशावतार, चेतनावतार,सिद्धावतार इत्यादि। ऐसे भिन्न-भिन्न रूपों में हमारे समक्ष विगत 150-200 वर्षों में कई सत्ताएँ आयीं व अपने लीला संदोह द्वारा अनेकों विभूतियों को अपना सखा अनुचर बनाकर, उनको गढ़ती हुई, उनसे असंभव सा दिख पड़ने वाला पुरुषार्थ भी सपन्न करा गयीं। भगवान बुद्ध से लेकर आद्यशंकराचार्य तक तथा चैतन्य महाप्रभु व संत कबीर से लेकर संत ज्ञानेश्वर, समर्थ रामदास, छत्रपति शिवाजी एवं रामकृष्ण परमहंस से लेकर स्वामी विवेकानन्द, योगीराज अरविन्द तक ये सभी अवतारी सत्ताएँ ही थीं जिनके लीला सहचर बनकर देवतत्व अंशधारी आत्माएँ निहाल हुई व जगत को धन्य बना गयीं ।
परम पूज्य गुरुदेव के “लीला प्रसंग” के संदर्भ में जब हम चर्चा करते हैं तो सहज ही किसी के मन में प्रश्न उठ सकता है कि क्या किसी की बीमारी दूर होने, नौकरी लग जाने जैसे असंभव काम होते चले जाने से ही उनके लीला पुरुष,अवतारी सत्ता होने की पहचान की जा रही है ? तार्किक यह भी सोच सकता है कि क्या कर्म का कोई महत्व नहीं है ?
यह कैसे पहचान की जाय कि जिसे जो कुछ मिला, वह इस योग्य था भी कि नहीं ?
वस्तुतः इन लीला प्रसंगों के माध्यम से एक ही बात समझाने का प्रयास किया जाता रहा है कि उस दिव्य सत्ता से जुड़े, हम सब परिजन, प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में असाधारण रूप से सौभाग्यशाली हैं। किसी बच्चे को प्रलोभनवश टॉफी मिल जाय और वह फिर भी काम न करे तो उस बच्चे पर नाराज़ नहीं हुआ जाता। गुरुदेव जैसी क्षमाशील,उदारचेता सत्ता एक विराट हृदय वाले पिता की तरह है तथा बहिरंग के अलौकिक प्रसंगों के मूल में उसका एकमात्र उद्देश्य यही होता रहा है कि उस व्यक्ति विशेष की चेतना में आमूल चूल हेरफेर,बदलाव किया जाए। यह क्षमाशील चेतना यह काम सतत् करती रहती है। भगवान राम के,योगीराज कृष्ण के युग में भी यही हुआ व आगे भी यही होता रहेगा।
हम सब परिजन जिन दिनों यह लीला प्रसंग पढ़ रहे हैं, उन दिनों सृष्टि पर “एक अभूतपूर्व प्रयोग” संपन्न होने जा रहा है। ऐसा विश्व के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। वह प्रयोग है “सामूहिक मन पर,सूक्ष्म जगत से एक ऐसी प्रक्रिया, जिसके माध्यम से व्यक्ति की चेतना का रूपान्तरण किया जा सके।
परम पूज्य गुरुदेव के अभी तक के सभी चमत्कार सूक्ष्म क्षेत्र में ही हुए हैं व आगामी 10-15 वर्षों में बड़ी संख्या में संपन्न होते दिखेंगे। एक विराट स्तर पर, चेतना जगत के धरातल पर,व्यक्ति का पुनर्निमाण होना,अपने में एक विलक्षण घटना है।महर्षि अरविंद कह गए हैं कि
“अतिमानसिक दिव्यता नीचे आकर मानवी प्रकृति का सामूहिक रूपान्तरण करना चाहती है।”
यही बात परम पूज्य गुरुदेव ने अपने शब्दों में इस प्रकार कही है,
“इन दिनों मनुष्य का भाग्य और भविष्य नये सिरे से लिखा और गढ़ा जा रहा है। ऐसा विलक्षण समय कभी हजारों-लाखों वर्षों बाद आता है। इन्हें चूक जाने वाले सदा पछताते ही रहते हैं और जो उसका सदुपयोग कर लेते हैं वे स्वयं को सदासर्वदा के लिए अजर-अमर बना लेते हैं ।”(प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया पृष्ठ 27 )
विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से इस स्तम्भ द्वारा एक ही तथ्य का प्रतिपादन किया जाता है कि यह परोक्ष जगत में छाई चेतना है जो भिन्न-भिन्न रूपों में अपने प्रभाव दर्शा रही है, जिन्हें हम “चमत्कार” के रूप में जानते हैं। एक “चमत्कार” यह भी हो सकता है कि अगणित व्यक्तियों की प्रतिभा उस क्षेत्र में कार्य करने के लिए प्रेरित कर दी गयी हो, जिसके विषय में न उनकी योग्यता थी, न उन्होंने स्वयं कभी चिन्तन किया था कि ऐसा भी कुछ हो सकेगा। एक चमत्कार यह भी है कि एक बहुत बड़ा वर्ग औरों की तरह भौतिक जगत के प्रवाह में न बहकर श्रेष्ठता की ओर ले चलने वाले प्रवाह से जुड़ने की सोचने लगा, न केवल सोचने बल्कि छोटे-छोटे दीपयज्ञों, ज्ञानयज्ञों द्वारा सत्प्रवृत्ति-संवर्धन के कार्यक्रमों में जुट गया। एक चमत्कार यह है कि नये जन्म लेने वाले बालक-बालिकाओं का एक बड़ा वर्ग भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों को जीवन में उतारने लगा और बौद्धिक व भावनात्मक दोनों ही क्षेत्रों में उसकी बहुमुखी प्रतिभा दृष्टिगोचर होने लगी।
क्या यह सभी चमत्कार नहीं हैं ?
संभवतः इन सबका मूल्यांकन अभी न होकर बाद में हो,अतः फिलहाल हम यहां उन प्रसंगों की चर्चा यहाँ कर रहे हैं जिनसे स्थूल बहिरंग जगत में दृष्टिगोचर हो रहे प्रसंगों के बारे में अनिश्चितता बनी हुई है एवं उसी पर तर्क-वितर्क किया जा रहा है।
अनिश्चितता की ऐसी स्थिति एवं समय में एक बात तो निश्चित है कि जो कोई भी अवतारी सत्ता के काम में स्वयं को समर्पित कर देता है, अवतारी सत्ता उसका सदा-सर्वदा ध्यान रखती है। “योगक्षेम” अर्थात सहायता को वहन करने का दायित्व अवतारी सत्ता पूरी तरह निभाती है। कर्मक्षेत्र में अग्रसर होने की प्रेरणा भी हमेशा देती रहती है । निम्नलिखित घटना ऐसे ही एक और चमत्कार को चरितार्थ कर रही है:
सीकर (राजस्थान) के श्री बंशीनारायण जी 26 फरवरी 1992 को भेजी अपनी अनुभूति में लिखते हैं कि वे 7 से 11 जनवरी 1974 की अवधि में चलने वाले प्राण-प्रत्यावर्तन सत्र में भागीदारी करने शांतिकुंज आए तो विदा के समय पूज्यवर ने एक ही पंक्ति में अपनी बात कही “बेटा मृत्यु को याद रखना।” उस समय उन्होंने यही अर्थ निकाला कि जीवन में जो दोष-दुर्गुण हैं उनको समाप्त करने का ही निर्देश दिया गया है। शांतिकुंज से आते ही डेढ़ माह बाद उनके सिर में भयंकर दर्द शुरू हो गया। दर्द इतना असहाय था कि वे फूट-फूट कर बच्चों की तरह रोते थे। खूब दवाई/चिकित्सा आदि की लेकिन कोई आराम नहीं मिला। उन्हें लगा कि गुरुदेव की कही बात (मृत्यु को याद रखना) सही होने जा रही है, द्वार पर मृत्यु दस्तक दे रही है, शायद गुरुदेव ने पहले से सावधान कर दिया था। यदि मृत्यु होनी ही है तो गुरु के चरणों में शांतिकुंज में ही क्यों न हो। यह सोचकर शांतिकुंज रहने के इरादे से बंशीनारायण जी सब सामान आदि लेकर, पेंशन आदि की कार्यवाही पूरी करके,पत्नी व बच्ची को लेकर 17 अप्रैल 1974 को प्रातः हरिद्वार पहुँच गए। पहुँचते ही ऊपर से बुलावा आ गया। कुंभ का पर्व था,खूब भीड़ थी। गुरुदेव ने पूछा,”बेटा, कैसे आये हो? दर्शन के लिए? अच्छा दर्शन कर लिए तो अब वापस लौट जाओ” बंशीनारायण ने जब असली बात कही कि वे तो सामान व बच्ची सहित शांतिकुंज रहने की दृष्टि से आए हैं तो पूज्यवर गर्म होकर कहने लगे कि “तू सारी मर्यादाएँ तोड़कर, बिना कुछ काम किए यहाँ रहना चाहता है। रहना है तो जा काली कमली वाले के यहाँ जाकर रह। तेरे लिए यहाँ कोई जगह नहीं है “।
बंशीनारायण ने पूज्यवर के श्रीचरण पकड़ लिए व कहा कि इन्हें छोड़कर कहीं जाना नहीं है ।
पूज्य गुरुदेव लीला पुरुष हैं। वे तो देखते ही समझ गए थे कि इन सज्जन का आगमन हुआ क्यों हुआ है, वह भी जीवनदानी बनकर। गुरुदेव ने बंशीनारायण जी की धर्मपत्नी से पूछा,”यह तो कुछ बताता नहीं, तू ही बता क्या बात है।” उनकी पत्नी ने सिर की पीड़ा वाली बीमारी व मौत के भय का पूरा विवरण सुनाया। बताया कि कहीं आराम नहीं मिला। आपको पत्र लिखा तो जवाब नहीं मिला। फिर यही सोचा कि अब यहीं शरण मिलेगी तो पेंशन की कार्यवाही करके यहीं पर रहने आए हैं। कहते हैं कि जीवनदान मिल गया तो यहीं रहकर सेवा करेंगे नहीं तो यहीं मृत्यु वरण करेंगे। इतना कहकर वे रोने लगी। गुरुदेव ने कहा कि “अभी नौकरी के काफी वर्ष बाकी हैं। पेंशन लेने की क्या जरूरत है। बच्ची छोटी है। नौकरी करो, काम करो । हम तुम्हारी आयु बढ़ा देंगे। यहां एक माह का सत्र अटेण्ड कर लो और नौकरी फिर से ज्वाइन कर लो। प्रशिक्षण के बाद हम जहां भेजें कार्यक्रम करने जाना लेकिन नौकरी मत छोड़ना। जिम्मेदारियाँ पूरी करके फिर समाज का पूरे समय काम करना ।” इतना कहकर गुरुदेव ने आशीर्वाद देकर विदा किया। नीचे उतरते ही सिरदर्द तो समाप्त हो गया था, एक विलक्षण प्रकार की हल्केपन की अनुभूति हो रही थी। उसके बाद वह सिर दर्द पुनः कभी नहीं हुआ,पूरे 18 वर्ष बीत चुके हैं। सभी दायित्व स्वतः ही निभते चले गए। सारा परिवार प्रसन्न चित्त से मिशन के कार्यों में लगा है। वे स्वयं एक समर्पित कार्यकर्ता हैं ।
आज के ज्ञानप्रसाद का, कल तक के लिए यहीं पर मध्यांतर होता है,कल वाला लेख बहुत ही छोटा है। जय गुरुदेव, धन्यवाद्