वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

“योगक्षेमं वहाम्यहम्” का अर्थ दर्शाता गुरुदेव का एक उदाहरण 

अपने साथिओं को दिए  गए वचन का पालन करते हुए आज के लेख में स्वर्गीय कवियत्री आदरणीय माया वर्मा की चर्चा को आगे बढ़ाया जा रहा है। आज के लेख का शुभारम्भ गुरुदेव द्वारा लिखित 19 अक्टूबर वाले पत्र  से हो रहा है। हमारे साथी जानते हैं कि वर्तमान लेख श्रृंखला,अखंड ज्योति में प्रकाशित 1992 के शीर्षक  “लीला प्रसंग” कंटेंट पर आधारित है। हमारे साथी यह भी जानते हैं कि कैसे हम विषय से सम्बंधित क्रॉस रेफरेन्सेस का सहारा लेकर यथासंभव कंटेंट को जोड़ने का प्रयास करते हैं। यही कारण है कि माया वर्मा जी से सम्बंधित  अखंड ज्योति के मई 2000 एवं जुलाई 1970 अंकों में प्रकाशित दिव्य कंटेंट को जोड़ने का प्रयास किया गया है। 1970  वाले अंक में प्रकाशित कविता बहुत कुछ कह रही है, इसे पढ़कर, अंतःकरण में उतने का विशेष आग्रह किया जा रहा है। 

“योगक्षेमं वहाम्यहम्” को दर्शाता उदाहरण भी अपने में अति विशिष्ट है, इसका अर्थ भी समझने के लिए आग्रह है ताकि हम अपने गुरु को और अधिक से जानकार, समझकर लोगों को बताने योग्य बने, यही सच्ची गुरुभक्ति होगी। 

गुरुचरणों में नतमस्तक होकर,उनके मुखारविंद से प्रवाहित हो रही ज्ञानगंगा  की एक-एक बूँद का अमृतपान करना हमारा सौभाग्य है, तो आइये विश्व शांति की कामना के साथ आज के लेख का शुभारम्भ करें, गुरु की प्रार्थना को भी अंतरात्मा में उतारें:

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: 

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19-10-1967

चिरंजीव माया, आशीर्वाद 

पत्र मिला। भावनाओं के आदान-प्रदान की मंजिल का एक चरण अब पूरा हो गया। अब दूसरे उस चरण में प्रवेश करना है, जिससे आत्मा के अवतरण का लक्ष्य पूरा हो। सो अब पत्रों का विषय भी वहीं रहना चाहिए। “भावनाओं का आदान-प्रदान कौए की भांति काएँ-काएँ करके नहीं बल्कि अंतरिक्ष के माध्यम से होता रहेगा।”

गुरुदेव ने यह पंक्तियाँ मिशन की चिर-परिचित कवियत्री  स्वर्गीय माया वर्मा को लिखते हुए अपनी भावना व्यक्त की थी । गुरुदेव लिखते हैं कि अब  भावनाओं का  आदान-प्रदान मात्र पत्राचार तक  सीमित न रहे। ठीक है पत्र उसका एक माध्यम बने  लेकिन वह प्रारंभिक कक्षा थी, वहीं तक सीमित होकर न रह जाएँ। हमारे गुरुदेव ने माया जी के  भावना संपन्न अंतस्तल को सृजनात्मक मोड़ दे दिया, पत्र-लेखन भी एक माध्यम बना और  पास बिठाकर दिया गया मार्गदर्शन भी। अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर उनकी  काव्य रचनाओं  को स्थान मिला। इसी पत्र में पूज्यवर आगे  लिखते हैं:

“जनवरी 1966-67 से तुम विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचना छपने भेजते रहना। इसी वर्ष  के अंत तक तुम इस देश की मूर्द्धन्य कवियत्री  बन जाओगी । कलम तुम चलाना, कविताएँ  हम रचते चले जाएंगे। तुम्हारे शरीर और मस्तिष्क का,आत्मा का प्रयोजन/लक्ष्य क्या है, यह अक्टूबर 1967 की अखंड ज्योति में स्पष्ट है। जो बीत गया सो गया,अब शेष समय किसी महान आदर्श के लिए ही व्यतीत होना चाहिए। कविता में तुम्हारी आत्मा का निर्मल चित्रण है लेकिन अब हमारे लिए नहीं, हमारे मिशन के लिए,सर्वतोभावेन जुट जाना है। कविताएँ भी उसी के लिए लिखो ।”

गुरुदेव ने अक्टूबर 1967 की अखंड ज्योति के पृष्ठ 39 पर प्रकाशित “विशेष प्रयोजन के लिए, विशिष्ट आत्माओं का विशेष अवतरण” शीर्षक वाले लेख में विशेष आत्माओं को आमंत्रण एवं प्रेरणा दी थी। अखंड ज्योति का मात्र 39 पृष्ठों का यह अंक भी अपने में एक ऐसी  प्रेरणा लिए हुए है कि जो भी कोई इसे पढ़ेगा,प्रेरित हुए बिना नहीं रह सकेगा ,उसी समय अपनी प्रतिभा से युगकल्याण के लिए उठ खड़ा हो जायेगा।

परमपूज्य गुरुदेव का समस्त लेखन गद्य,पद्य, पत्र,अपनत्व भरा मार्गदर्शन मिशन के सभी सहभागियों  को समर्पित था एवं यही अपेक्षा वे अपने अनुयायियों विशेषतः विभूतिवान् समीपवर्तियों से भी रखते थे। अखण्ड ज्योति पत्रिका का लेखन विशुद्धतः लोकमंगल के लिए हुआ,मनोरंजन के लिए कतई नहीं । यही कारण है कि आज यह पत्रिका  लाखों-करोड़ों की मार्गदर्शक बनी हुई है। इस तथ्य को स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने जनवरी 1977 की अखण्ड ज्योति पत्रिका में इस तरह लिखा है:

अखण्ड ज्योति को संक्षेप में इतना ही समझाया जा सकता है कि यह हिमालय के देवात्मा क्षेत्र में निवास करने वाली ऋषिचेतना का समन्वित अथवा उसके किसी प्रतिनिधि का सूत्र-संचालन है।

माया वर्मा जी के संस्मरण को उनकी एक उत्कृष्ट रचना के साथ यहीं पर रोकना उचित रहेगा,नहीं तो वर्तमान विषय से भटकन का अंदेशा  रहेगा। जुलाई 1970 की अखंड ज्योति के पृष्ठ 65 पर प्रकाशित यह रचना गुरुदेव की भावनाओं को दर्शा रही है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर हमने इस रचना का स्क्रीनशॉट ही प्रकाशित करना उचित समझा है। साथिओं से अनुरोध है कि इस रचना के  एक-एक शब्द को अपने अंतःकरण में उतारना  इस महान कवियत्री को श्रद्धांजलि तो है ही साथ में गुरु की भावना का आदर सम्मान भी है।    

गुरुदेव की शक्ति का वर्णन करता अगला अंक 1968-69 का निम्नलिखित प्रसंग है:  

परम पूज्य गुरुदेव को गुजरात के आनंद नामक स्थान पर 108  कुण्डी गायत्री महायज्ञ में जाना था । साथ जाने वाले परिजन ट्रेन छूटने के ठीक 2  घण्टे पहले उनके पास घीयामण्डी आ गए। ठीक उसी समय जब जाने का समय था, पूज्यवर को एकाएक बुखार चढ़ना आरंभ हुआ, जो क्रमशः 104 डिग्री तक पहुँच गया। आधे घण्टे में उत्पन्न हुई इस स्थिति को देखकर सब परेशान थे। तुरंत पारिवारिक चिकित्सक डाक्टर अरोड़ा को खबर दी गयी । इस बीच बढ़ते तापमान के बावजूद परमपूज्य गुरुदेव निश्चिन्त लेटे हुए थे। बार-बार घड़ी पर निगाह डाल लेते थे। इसी बीच उन्होंने  वदनीय माताजी से पूछा कि जयपुर से कोई पत्र या तार  तो नहीं आया ? इस प्रश्न का उस समय कोई प्रसंग था नहीं, न ही ऐसा कोई तार उस समय आया था। पेट में पत्थरी  के दर्द की वेदना, एवं चढ़ता बुखार एकाएक कम होना शुरू हुआ। डा. अरोड़ा की दवा तो निमित्त बन गयी लेकिन  तबियत लगभग सवा घण्टे में सामान्य हो गयी । ट्रेन का समय हो गया था । वंदनीय माताजी के रोकने के बावजूद वे चलने के लिए तैयार  हो गए। घीयामण्डी कार्यालय में ही रहने वाले  एक कार्यकर्ता से यह कहकर कि जयपुर से तार आते ही उसे आनंद  भेज दिया जाय, गुरुदेव स्टेशन व वहाँ से आनन्द के लिए रवाना हो गए। उधर गुरुदेव  रवाना हुए इधर उनके नाम तार आया कि माँ  को तेज बुखार है।पत्थरी  की डायग्नोसिस है, हम सब चिन्तित हैं, कृपया आशीर्वाद भेजें। तार भेजने वाली पूज्यवर की एक परम भक्त महिला  थी। तार तुरंत आनंद भेज दिया गया । आश्चर्य यह कि जो कष्ट पूज्यवर को हुआ था, ठीक वैसा ही उस महिला को हुआ जिसका भार पूज्यवर ने अपने ऊपर लिया था। पूज्यवर के ट्रेन में बैठते  ही सब ठीक हो गया। पत्र द्वारा यह सब विस्तार से ज्ञात हुआ एवं  आनंद का कार्यक्रम प्रसन्नतापूर्वक सम्पन्न हुआ ।

दूसरों के कष्टों को अपने ऊपर लेकर उनकी रक्षा करना ठीक उसी प्रकार भगवत् सत्ता का संकल्प है, जो योगीराज श्रीकृष्ण ने “योगक्षेम वहाम्यहम “ के रूप में अपने भक्त के समक्ष किया है। योगक्षेमं वहाम्यहम्” का अर्थ है “मैं अपने भक्तों के योग (प्राप्ति) और क्षेम (सुरक्षा) का भार उठाता हूँ।” भगवद गीता के 9वें अध्याय के 22वें श्लोक से लिए गए  प्रसिद्ध उद्धरण का अर्थ है कि भगवान अपने भक्तों की हर जरूरत का ध्यान रखते हैं और उनकी रक्षा करते हैं।  

कैसे कोई सत्ता इतनी दूर से अपने भक्त के कष्ट को पढ़ लेती है व अपने ऊपर  लेकर उसे हल्का  कर लेती है, इसके अनेकानेक दृष्टांत परमपूज्य गुरुदेव जैसे महापुरुषों के जीवन में देखने को मिलते हैं। वस्तुतः परोक्ष जगत का यह लीलासन्दोह विज्ञान का विषय  है भी नहीं, यह मात्र श्रद्धा पर ही आधारित है।  घटनाक्रम यही बताते हैं कि “अतीन्द्रिय क्षमता संपन्न साधक स्तर के महामानवों” के लिए अपने भक्त की दूरी कोई मायने नहीं रखती । वे जहाँ भी रहते हैं, उन्हें अपने हर भक्त, हर श्रद्धालु परिजन के सुख-दुख में भागीदार बनने की व्यग्रता हमेशा बनी रहती है । कुछ घटनाक्रम प्रकाश में आते हैं । अगणित ऐसे होते हैं, जिनका कोई विवरण न उपलब्ध है, न कभी मिल ही पाएगा लेकिन  एक तथ्य अपनी जगह अटल रहेगा कि ऐसी गुरुसत्ता से जिसने ऐसे दैवी स्तर के अनुदान पाए, उसके मूल में उसकी प्रसुप्त सुसंस्कारिता ही, वह अविच्छिन्न संबंध था जो दोनों के बीच सतत् बना रहा । प्रत्यक्षतः वह दिखाई न पड़ा हो लेकिन परोक्ष रूप से ऐसे  संबंध बने रहे व दोनों सत्ताएँ एक दूसरे के लिए अपना-अपना काम करती रहीं । अभी-अभी संपन्न हुए भारतवर्ष व विश्व भर के शक्ति साधना कार्यक्रमों से कई ऐसे घटनाक्रम प्रकाश में आए हैं, जिनमें ऐसे व्यक्ति जिन्होंने स्थूल नेत्रों से कभी भी परमपूज्य गुरुदेव व उनसे अविभाज्य शक्ति स्वरूपा माता भगवती देवी के दर्शन तक नहीं किए, विगत दो वर्षों में भिन्न-भिन्न रूपों में लाभान्वित हुए।


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