वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

तीन शरीर एवं पांच कोशों का संक्षिप्त सा विवरण 

हम अपने साथिओं के बहुत ही आभारी हैं कि साइंस की बेसिक बैकग्राउंड तक न होने के बावजूद Brain waves को समझने में कोई  कसर नहीं छोड़ी, इनके कमैंट्स इस तथ्य के साक्षी हैं। यदि हम सब मिलजुल कर, एक दूसरे की सहायता करते हुए गुरु के ज्ञान को समझने का प्रयास करें तो कोई समस्या नहीं कि हम इस ज्ञान को अपने अंतर्मन में न उतार पाएं। ऐसा हम इसलिए कहना उचित समझते हैं कि हमारा उद्देश्य केवल लेखों को पढ़ना ही नहीं है, मशीन की तरह गायत्री मन्त्र का जाप नहीं करना है,दिखावे के लिए यज्ञ/अनुष्ठान आदि करना नहीं है। हमारा उद्देश्य इस सारे कार्य से अपना एवं संसार का कायाकल्प होते देखना है, अनुभव करना है। ऐसा तभी संभव हो पायेगा जब हम गुरु की आत्मा के साथ सम्बन्ध स्थापित कर पायेंगें। 

आज के लेख के साथ एक चित्र संलग्न किया गया है जिसे समझने के लिए एक ऑडियो क्लिप का गूगल ड्राइव लिंक भी अटैच किया है। हमारे असफल प्रयास के कारण हमें ऑडियो फाइल का सहारा लेना पड़ा जिसके लिए हम साथिओं से क्षमाप्रार्थी हैं। चित्र में पांच कोशों और तीन शरीरों के सम्बन्ध में दी गयी जानकारी लेख से कुछ अलग दिख रही है जिसके लिए हम कुछ भी करने में असमर्थ हैं। इसका कारण इस विषय पर उपलब्ध  विशाल और विस्तृत कंटेंट तो है ही, साथ में इस विषय की रोचकता के कारण,अनेकों शोधकर्ता भी इस में संलग्न है जिसके कारण ऐसी स्थिति होना स्वाभाविक तो है लेकिन बेसिक ज्ञान में कोई समस्या नहीं है। 

तो साथिओ इसी भूमिका के साथ,विश्वशांति की कामना के साथ,संलग्न वीडियो में गुरुदेव के निर्देश का पालन करते हुए,हम आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ करते हैं:

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:       

जब हम परमपूज्य गुरुदेव श्रीराम शर्मा आचार्य जी के जीवन पर एक दृष्टि डालते हैं तो निम्नलिखित सारे प्रसंग उनके 80 वर्षीय लम्बे जीवन में चरितार्थ होते दिखाई देते हैं:

नीरोग, दीर्घायुष्य भरा जीवन न केवल उन्होंने स्वयं  जिया बल्कि अपने जीवनक्रम से अनेकों को प्रेरणा दी व रोगी स्तर के व्यक्तियों से लेकर मृत्यु के मुख में जा पहुँचे परिजनों को भी प्राणदान देकर उन्हें नया जीवन दिया। यह एक ऐसी “सिद्धि” है जो गिने चुने विकसित स्तर के देवमानवों से लेकर अवतारी स्तर की सत्ता में ही पायी जाती है।

परमपूज्य गुरुदेव का जीवन खुले पृष्ठों  की एक किताब के रूप में हम सबके समक्ष रहा है। अर्थ से लेकर समय तक एवं जिव्हा से लेकर विचारों के संयम तक उनका जीवन एक  समग्र आदर्श रूप हो सकता है,जो हम सबको  देखने को मिला। प्रत्यक्ष जीवन से तो उन्होंने प्रेरणा दी ही, लेखनी से भी यही शिक्षण दिया। उनके जाने के बाद भी उनका साहित्य अनेकों लोगों का जीवन बदल चुका है, इस तथ्य के प्रतक्ष्य साक्षी हम स्वयं तो हैं ही,ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का एक-एक साथी गुरुदेव की इस विशेषता पर मोहर लगा सकता है। गुरुदेव का  व्यावहारिक अध्यात्म यही था। 

गुरुदेव ने अकारण ही हर किसी पर सिद्धि चमत्कारों की वर्षा व उनका खुला प्रदर्शन जीवन भर नहीं किया बल्कि वह इसके विरुद्ध ही लिखते रहे। उनकी “साधना से सिद्धि” के कथन का अर्थ था: 

व्यक्ति यदि संकल्पबद्ध होकर पुरुषार्थ करे तो “सिद्धियाँ” स्वयं उस पर आकर बरसती हैं, गुरुदेव ने  जीवन भर इसी वाक्य को प्रतिपादित किया।

विश्वभर में फैले गायत्री परिवार के बच्चों को ऊपर लिखे तथ्य पर अविश्वास न हो, इसलिए मार्च, अप्रैल , मई 1992 की अखंड ज्योति में “लीला प्रसंग” शीर्षक से एक लेख श्रृंखला प्रकाशित की गई। इस लेख श्रृंखला ने एक साक्षी के रूप में, जीती जागती चित्रकला के रूप में, “परमपूज्य गुरुदेव के जीवन से जुड़े उन प्रामाणिक प्रसंगों को ही सबके सम्मुख रख दिया ताकि उनके बच्चे स्वयं ही निर्णय लें कि यह सब क्यों एवं कैसे हो पाना संभव हुआ।”

अखण्ड ज्योति पत्रिका  के पृष्ठों पर, स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर की विवेचना कई बार की जा चुकी है, फिर भी “साधना से सिद्धि के सिद्धांत” के लिए, एक स्पष्टीकरण के नाते मानवीय काया के तीन शरीर एवं पांच कोष का बहुत ही संक्षिप्त निम्नलिखित विवरण पढ़ लेना अनुचित नहीं होगा।  यदि साथिओं की सहमति हुई तो किसी समय इन दोनों विषयों को भी ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर प्रस्तुत करेंगें :  

1.“स्थूल शरीर (Physical body)” तो वह है जो हमारे सामने दिख रहा है,प्रकट है,प्रतक्ष्य  है, जिसमें अन्नमयकोश व उसमें संव्याप्त प्राणसत्ता का अंश आता है। जीवनी शक्ति व विकसित शरीरबल के रूप में यह हम सबको दिखाई देता है।

2.“सूक्ष्म शरीर (Subtle body)” मन के सोये हुए  सामर्थ्यों से संबंधित है जिनकी जाग्रति मनोमयकोश व विज्ञानमयकोश की परतों को हटाकर अतीन्द्रिय क्षमताओं से  सिद्धि के रूप में प्रकट होती है। सूक्ष्म  शरीर में व्याप्त संकल्पशक्ति, प्रखर शक्ति-भरा मनोबल तथा उच्स्तरीय सामर्थ्य ही मनुष्य को इतना योग्य बना देता है कि वह  दूसरों को पढ़कर सब कुछ जान लेता है। सूक्ष्म शरीर की ही  परिधि में यह भी स्पष्ट होता है कि व्यष्टिमन, समष्टिमन का ही एक अंग है । सूक्ष्म शरीर देश-काल से परे है, वह कहीं भी आ और जा सकता है। 

आगे चलने से पहले  “व्यष्टि” और “समष्टि” शब्दों को समझना उचित रहेगा।  यह दोनों शब्द फिलोसॉफी और अध्यात्मिक साहित्य में अक्सर प्रयोग किये जाते हैं। 

व्यष्टिमन (Individual Mind), व्यक्तिगत की बात करता है जबकि समष्टिमन सभी की, सामूहिक बात करता है। प्रत्येक मनुष्य, अलग-अलग सोचने-समझने, अनुभव करने और प्रतिक्रिया देने को स्वतंत्र है, इसे  व्यष्टिमन कहते हैं। इसमें मनुष्य की  इच्छाएँ, भावनाएँ, स्मृतियाँ और निजी संस्कार शामिल होते हैं। व्यष्टिमन सीमित होता है क्योंकि यह केवल एक व्यक्ति की सीमित चेतना को व्यक्त करता है।

उदाहरण:
किसी छात्र का मन केवल अपनी पढ़ाई, खेल या करियर की चिंता करता है ,यह उसका व्यष्टिमन है।

समष्टिमन (Collective Mind / Cosmic Mind) सामूहिकता की बात करता है। यह सभी व्यक्तियों के मन का योग है, जिसे एक सामूहिक चेतना या ब्रह्मचेतना कहा जा सकता है। इसमें पूरी मानवता, समाज या यहाँ तक कि सम्पूर्ण सृष्टि की सांझी  ऊर्जा, भावनाएँ और विचारधारा समाहित होती हैं। यह व्यापक और असीमित है।

उदाहरण: जब पूरा समाज किसी संकट में एक साथ सोचता और कार्य करता है (जैसे स्वतंत्रता आंदोलन, किसी प्राकृतिक आपदा में सहायता, शांतिकुंज में प्रतिदिन हो रहा सामूहिक गायत्री यज्ञ ), तब वह समष्टिमन का प्रभाव है।

3.कारण शरीर(Causal body,for a cause) : भावसंवेदनाओं से भरे सरस अंतःकरण का समानार्थक शब्द है कारण शरीर। आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना, करुणा का मानव मात्र के लिए जागरण, तथा परहित के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर  देने की आकाँक्षा का विकास इसी स्थिति में होता है। जीव का ब्रह्म से मिलन, ईश्वर से साक्षात्कार और भव-बंधन से मुक्ति प्राप्त करते हुए समाधि के चरम सोपान की स्थिति में जा पाना “कारण शरीर” के विकास द्वारा ही संभव बन पड़ता है। यह आनन्दमयकोश के जागरण का, सहस्रारदल कमल के खिलने व विकास का संकेत देता है। 

परम पूज्य गुरुदेव ने पंचकोशी साधना एवं अन्य साधनाओं से अर्जित की गई तपशक्ति को परिजनों में बांटकर यह प्रमाणित कर दिया कि एक पिता अपने परिवार को कैसे संरक्षण प्रदान करता है।

इस लेख श्रृंखला का मुख्य उद्देश्य हम सभी को समझाना है कि तपशक्ति द्वारा अर्जित की गई सिद्धियों का वितरण कोई अवैज्ञानिक नहीं है। अज्ञानि इसे चमत्कार मानते हैं लेकिन ऐसा नहीं है।

आगे चलने से पूर्व पंचकोशों का बहुत ही संक्षिप्त वर्णन समझना उचित होगा। इस विषय को विस्तार से जानने की लिए गुरुदेव की ही अनेकों रचनाएं उपलब्ध हैं। पाठकों की सुविधा के लिए हमने तीन शरीर और पांच कोश दर्शाता एक चित्र संलग्न किया है, उसे ध्यान से स्टडी करके समझना ज़रा सा भी कठिन न होगा।

अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोषों का परिचय क्या है?

मनुष्य के अस्तित्व में  प्याज के छिलकों की तरह पांच (कई जगह सात का भी वर्णन आता है) परतें हैं जिन्हें कोष या शरीर के नाम से जाना जाता है।आइए, इन कोषों का क्रमिक अध्ययन करें।

बाहर से भीतर की ओर, य़े कोष (परतें) निम्नलिखित हैं:

1- अन्नमय कोष : (Physical Body=भौतिक शरीर ) : शरीर का बाहरी रूप जो हमें दिखाई देता है और जीवन के “हार्डवेयर” के रूप में कार्य करता है, वह ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों से‌ युक्त शरीर ही हमारा “भौतिक शरीर” कहलाता है। चूंकि यह अन्न द्वारा परिपोषित होता है, इसलिए इसे अन्नमय कोष कहा जाता है।

2- प्राणमय कोष : (Vital Body=प्राण /भाव -शरीर) :
यह प्राणमय ऊर्जा की आंतरिक परत है जो शरीर के सभी कार्यों को सक्रिय करती है और इसे जीवंत बनाती है। यह आपके शरीर के हार्डवेयर की “विद्युत आपूर्ति” है। यह भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करता है इसलिए इसे भावनात्मक शरीर (भाव शरीर) भी कहा जाता है।

3- मनोमय कोष : (Astral Body=मनस/सूक्ष्म शरीर) :
मन का प्रतिनिधित्व करने वाली हमारे व्यक्तित्व की यह परत विचारों और स्मृतियों का केंद्र होती है। यह जीवन के “सॉफ्टवेयर” के रूप में कार्य करती है।

4- विज्ञानमय कोष : (Causal Body=कारण शरीर) :
यह हमारी बुद्धि का प्रतिनिधित्व करता है। “सॉफ्टवेयर” को नियंत्रित करने वाले फ़ोन के  ‘कीबोर्ड’ की भांति, निर्णय लेना ही इसका कार्य है। हम कीबोर्ड से जो कमांड देते हैं वही प्रिंट होता जाता है। इसी कोष में हमारा अहंकार (Ego) विराजमान रहता है। 

मृत्यु होने पर अधिकांश मनुष्य आत्मज्ञान (मोक्ष ) न होने के कारण अपना स्थूल शरीर तो त्याग देते हैं, किन्तु भाव-शरीर, सूक्ष्म-शरीर और कारण -शरीर से निर्मित “जीवात्मा” के रूप में अगले जन्म की यात्रा पर निकल जाते हैं।

5- आनंदमय कोष :(Spiritual Body=अध्यात्म शरीर) :
यह हमारी बुद्धि से परे अंतर्ज्ञान (Intuition) का आयाम है।यह हमारे सच्चे/आंतरिक स्व (True or Inner Self) का सूचक है, अर्थात् यह हमारा अहम्रहित केवल “होने का भाव” (Beingness)है, जो कीबोर्ड को नियंत्रित करता है अर्थात् कीबोर्ड को ‘ऑन’ या ‘ऑफ’ करता है।

अपने पांचवें यानि आध्यात्मिक शरीर से जब हमारी चेतना मुक्त हो जाती है, तब वह “पराचेतन (Superconscious) के आयाम में प्रविष्ट हो जाती है और हमारा अस्तित्व सार्वभौमिक (Cosmic) हो जाता है। यही हमारा “ब्रह्म शरीर है।” अब हमारा स्वतंत्र अस्तित्व विगलित होकर हमें समस्त सृष्टि से “एकत्व” की अनुभूति में  पहुंचा देता है।

अपने साथियों को बताना उचित समझते हैं कि शरीर की यात्रा इसके आगे भी है एवं अति जटिल है लेकिन हम इसे यहीं पर समापन करना उचित समझते हैं,कहीं लेख श्रृंखला का उद्देश्य ही न भूल जाएं।

अगले लेख तक के लिए मध्यांतर, जय गुरुदेव 


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