वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

हमारी कितनी ही रातें रोते सिसकते बीती हैं 

सारे विश्व को अपने स्नेह,अपनत्व,प्यार में बांधने वाला गुरु भी कभी इतना कमज़ोर हो सकता है कि उसे सिसकते हुए रातें बितानी पड़ें ?आज इस लेख को पढ़ते समय यदि हमारे नेत्रों से अश्रुधारा का प्रवाह नहीं छलकता तो समझ लेना चाहिए कि अभी हमें इस यात्रा में बहुत प्रयास करना है। हम स्वयं का व्यक्तिगत अनुभव बता सकते हैं कि जितनी बार भी इन बहुचर्चित शब्दों को पढ़ा  हम अपनी अश्रुधारा को रोक पाने में असमर्थ रहे हैं। गुरुदेव के संरक्षण में पल रहे गुरुकुल की ही समर्पित छात्रा,हमारी अपनी ही जीवनसंगिनी, जो सदैव हमारे पास है, उससे इन लेखों के सम्बंधित भी बातचीत होती ही रहती है। एक बार तो उन्होंने हमें भावुकता के प्रबल प्रवाह से निकलने के लिए यही कहा था, “ इतनी भावुकता से कैसे काम चलेगा?”

तो साथिओ, आज के लेख को पढ़कर आप अपना स्वः मूल्यांकन कर सकते हैं, Self-evaluation कर सकते हैं, Grading (Grade A,B,C आदि) कर सकते हैं और कमेंट करके बता सकता हैं कि आप कहाँ स्टैंड करते हैं।

आज के लेख में इतना कुछ हाईलाइट किया गया है कि आने वाले दिनों में इस कंटेंट से कितने ही दैनिक दिव्य सन्देश प्रस्तुत किये जा सकते हैं।   

कल से जिस लेख का शुभारम्भ हो रहा है उसके  शीर्षक “हमारी शक्ति का पांचवां भाग” ने हमें इतना प्रभावित किया कि हम कितने ही दिनों से इस लेख में गुरुवर द्वारा समझाया गया गणित एवं उसका अध्यात्म से साथ समन्वय को समझने का प्रयास कर रहे हैं। हमें कितना समझ में आया और उस ज्ञान को हम समर्पित विद्यार्थिओं की  गुरुकक्षा में  कितनी सफलता पूर्वक रख पायेंगें, हमारे लिए एक बहुत बड़ा चैलेंज है।

आइए शांतिपाठ के साथ आज की  ज्ञानगंगा के एक-एक कतरे का अमृतपान करें, दुर्लभ मनुष्य जीवन को सार्थक करें: ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:

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हमारे गुरुदेव अपनी अप्रतक्ष्य अनुभूति को प्रकट करते हुए कह रहे हैं :  

हमारी कितनी रातें रोते सिसकते बीती हैं,कितनी बार हम बालकों की तरह बिलख-बिलख कर,फूट-फूट कर रोये इसे कोई कहाँ जानता है ? लोग हमें संत,सिद्ध,ज्ञानी मानते हैं। कोई लेखक,विद्वान,वक्ता,नेता समझते हैं लेकिन किसने हमारा अन्तःकरण खोल कर पढ़ा समझा है? यदि कोई उसे देख सका होता तो उसे इस हड्डियों के ढाँचे में बैठी,मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करुण कराह से हाहाकार करती हुई, एक उद्विग्न आत्मा भर बिलखती ही दिखाई पड़ती। एक तरफ तथाकथित आत्मज्ञान की निश्चिंतता,निर्द्वंदता और दूसरी तरफ हमारी करुण कराहों से भरी अन्तरात्मा,दोनों में कोई तालमेल नहीं। 

सो जब कभी सोचा यही सोचा कि अभी वह ज्ञान हमसे बहुत दूर है। शायद वह कभी मिले ही नहीं क्योंकि इस दर्द में ही जब भगवान् की झाँकी होती है,पीड़ितों के आँसू पोंछने में ही जब कुछ चैन अनुभव होता है तो उस निष्क्रिय मोक्ष और समाधि को प्रयास करने के लिए कभी मन चलेगा ऐसा लगता नहीं। जिसकी इच्छा ही नहीं वह मिला भी किसे है ?

पुण्य परोपकार की दृष्टि से कभी कुछ करते बन पड़ा हो सो याद नहीं आता। ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए कोई साधन बन पड़ा हो ऐसा स्मरण ही नहीं आता। आत्मवत् सर्वभूतेषु (सब प्रणियों को अपने समान देखना) के आत्मविस्तार ने सर्वत्र अपना ही आपा बिखरा दिखलाया तो वह मात्र दृष्टिदर्शन न रह गया। दूसरों की व्यथा वेदनायें भी अपनी बन गई और वे इतनी अधिक चुभन, कसक पैदा करती रही कि उन पर मरहम लगाने के अतिरिक्त और कुछ सूझा ही नहीं। 

विश्व मानव की तड़पन अपनी तड़पन बन रही थी, सो पहले उसी से जूझना था; अन्य बातें तो ऐसी थी जिनके लिए अवकाश और अवसर की प्रतीक्षा की जा सकती थी। हमारे जीवन में क्रियाकलापों के पीछे उसके प्रयोजन को कभी कोई ढूंढ़ना चाहे तो उसे इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि संत और सज्जनों की सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों का जितने क्षण स्मरण दर्शन होता रहा उतने समय चैन की साँस ली। लोकमंगल,परमार्थ,सुधार, सेवा आदि के प्रयास यदि हमसे कुछ बन पड़े तो उस संदर्भ में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि यह हमारी विवशता भर थी। हृदय में उठ रहे दर्द और उसे मिटाने की अग्नि ने क्षण भर भी चैन से न बैठने दिया तो हम करते भी क्या ? जो दर्द से छटपटा जा रहा हो, वह हाथ,पैर न पटके तो क्या करे ? हमारे अब तक के समस्त प्रयत्नों को लोग कुछ भी नाम दें,किसी भी रंग में रंगें, असलियत यह है कि विश्ववेदना की आन्तरिक अनुभूति ने करुणा और संवेदना का रूप धारण कर लिया और हम विश्ववेदना को आत्मवेदना मानकर उससे छुटकारा पाने के लिए बेचैन, घायल की तरह प्रयत्न प्रयास करते रहे। भावनायें इतनी उग्र रही कि स्वयं को  तो भूल ही गये। त्याग,संयम,सादगी, आदि की दृष्टि से कोई हमारे कार्यों पर नजर डाले तो उसे इतना भर समझ लेना चाहिए कि जिस ढांचे में अपना अन्तःकरण ढल गया उसमें ऐसा होना नितान्त स्वाभाविक था। अपनी समृद्धि,प्रगति सुविधा,वाहवाही हमें नापसंद हो ऐसा कहा नहीं जा सकता। उन्हें हमने जानबूझ कर त्यागा हो सो बात नहीं है। वस्तुतः विश्वमानव की व्यथा अपनी वेदना बन कर ऐसी बुरी तरह अन्तःकरण पर छाई रही कि अपने बारे में कुछ सोचने/करने की फुरसत ही न मिली, वह प्रसंग सर्वथा भुलाए जैसा  ही बना रहा। इस विस्मृति को कोई तपस्या संयम कहे तो उसकी मर्जी लेकिन जब स्वजनों को अपनी जीवन पुस्तिका के सभी उपयोगी पृष्ठ खोलकर पढ़ा रहे हैं तो सही स्थिति बता देना ही उचित है।

हमारी उपासना और साधना साथ-साथ मिल कर चली है। परमात्मा को हमने इसलिए पुकारा कि वह प्रकाश बनकर हमारी आत्मा में प्रवेश करे और “तुच्छता को महानता में बदल दे।” उसकी शरण में इसलिए पहुँचे कि उसकी विशालता में अपनी तुच्छता विलीन हो जाये। वरदान केवल यह माँगा कि हमें वह सहृदयता और विशालता मिले जिसके अनुसार “अपने में सब को और सब को अपने में अनुभव किया जा सकना संभव हो सके।” 24 महापुरुषचरणों का जप, ध्यान, तप, संयम सब इसी परिधि के इर्दगिर्द घूमते रहे हैं।

इसका प्रत्यक्ष उदाहरण ढूंढ़ना हो तो हमारी जीवनयात्रा बहुत मार्गदर्शन कर सकती है। हमने एक प्रयोगात्मक (प्रैक्टिकल) जीवन जिया है। आध्यात्मिक आदर्शों का व्यावहारिक जीवन में तालमेल बिठाते हुए आन्तरिक प्रगति के पथ पर कैसे चला जा सकता है,उसमें बिना भटके कैसे सफलता पाई जा सकती है, हम इसी तथ्य की खोज करते रहे हैं ओर उसी के प्रयोग में अपनी चिन्तन प्रक्रिया और शारीरिक गतिविधि केन्द्रित करते रहे हैं। इस दिशा  में हमारे मार्गदर्शक का पूरा-पूरा सहयोग रहा है।  सो अनावश्यक जाल-जंजालों में उलझे बिना सीधे रास्ते पर, सही दिशा में चलते रहने की सरलता उपलब्ध होती रही है। इन पंक्तियों में उसी सीधे रास्ते की चर्चा  कर रहे हैं कि जिन्हें इस मार्ग पर चलने की, सुनिश्चित सफलता प्राप्त करने का प्रत्यक्ष उदाहरण ढूंढ़ने की आवश्यकता हो, उन्हें अनुकरण के लिए एक सामाजिक आधार मिल सके।

आत्मिक प्रगति के पथ पर एक सुनिश्चित एवं क्रमबद्ध योजना के अनुसार चलते हुए हमने एक सीमा तक अपनी मंजिल पूरी कर ली है और उतना आधार प्राप्त कर लिया है जिसके बल पर यह अनुभव किया जा सके कि परिश्रम निरर्थक नहीं गया, प्रयोग असफल नहीं रहा। क्या विभूतियाँ या उपलब्धियां प्राप्त हुई इसकी चर्चा हमारे मुंह शोभा नहीं देती। इसको जानने, सुनने और खोजने का अवसर हमारे चले जाने के बाद ही आना चाहिए। उसके इतने अधिक प्रमाण बिखरे पड़े मिलेंगे कि किसी अविश्वासी को भी विश्वास करने के लिए विवश किया जा सकेगा कि न तो आत्मविद्या का विज्ञान गलत है और न उस मार्ग पर सही ढंग से चलने वाले के लिए सफलता प्राप्त करने में कोई कठिनाई है। इस मार्ग पर चलने वाला आत्मशान्ति,आन्तरिक शक्ति और दिव्य अनुभूति की परिधि में घूमने वाली अगणित उपलब्धियों से कैसे लाभान्वित हो सकता है, इसका प्रमाण ढूंढ़ने के लिए भावी शोधकर्त्ताओं को हमारी जीवनप्रक्रिया बहुत ही सहायक सिद्ध होगी। समयानुसार ऐसे शोधकर्ता उन विशेषताओं और विभूतियों के अगणित प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण ढूंढ़ निकालेंगे जो आत्मवादी प्रभुपरायण जीवन में हमारी ही तरह हर किसी को उपलब्ध हो सकना संभव है।

समापन,जय गुरुदेव  


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