7 अगस्त 2025 का ज्ञानप्रसाद
वर्तमान लेख श्रृंखला अखंड ज्योति पत्रिका के जनवरी और फ़रवरी 1971 के अंकों में “अपनों से अपनी बात” के अंतर्गत प्रकाशित हुए कंटेंट पर आधारित है। “अपनों से अपनी बात’ हमारे ह्रदय के इतने करीब है कि जब भी हम अखंड ज्योति की कोई भी प्रति खोलते हैं तो इस शीर्षक के अंतर्गत दिए गए कंटेंट को सबसे पहले पढ़ते हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि इसमें परम पूज्य गुरुदेव के साथ साक्षात् मिलन जैसा अनुभव होता है। इन पन्नों में समाहित ज्ञान, मात्र लिखित पंक्तियाँ न होकर, ज्ञानगंगा की अमृत बूँदें जैसी प्रतीत होती हैं। यदि हम कहें कि हम “अपनों से अपनी बात” पर रिसर्च कर रहे हैं तो हमारे साथी कहेंगें कि हम अपनी बढ़ाई कर रहे हैं लेकिन सत्य यही है। इस टॉपिक के अंतर्गत ज्ञानप्रसाद का संकलन करते समय हम इतना इन्वॉल्व हो जाते हैं कि कई बार तो अपनी अश्रुधारा को भी रोक पाने में असमर्थ हो जाते हैं।
आज का लेख लिखते समय जब निम्नलिखित पंक्ति को पढ़ रहे थे तो गुरु के चरणों में नतमस्तक होने से स्वयं को रोक न पाए और गुरुदेव की बहुचर्चित शार्ट वीडियो जिसमें गुरुदेव हस्पताल पंहुचाने की बात कर रहे हैं एकदम हमारे सामने आ खड़ी हुई। आज के लेख के साथ यही वीडियो अटैच की है, ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का शायद ही कोई परिजन हो जिसकी आँखों में गुरुदेव की वेदना भरी वाणी सुनकर आंसू न आये हों। इस वीडियो को हम जैसे डेढ़ मिलियन दर्शक देख चुके हैं:
“दुर्घटना में हाथ पैर टूटे बच्चे को अस्पताल ले दौड़ने की आतुरता में माँ अपने बुखार जुकाम को भूल जाती है और बच्चे को संकट से बचाने के लिए बेचैन हो उठती है।”
फरवरी 1971 के जिस लेख पर वर्तमान लेख श्रृंखला आधारित है उसका शीर्षक “अपनों से अपनी बात, हमारे दृश्य जीवन की अदृशय अनुभूतियाँ” है। शीर्षक स्वयं ही बता रहा है कि गुरुदेव के जिस जीवन को हम सब देख रहे हैं उसके पीछे छिपी अदृशय अनुभूतियाँ क्या हैं ? इन लेखों में इन्हीं अनुभूतियों को जानने का स्वर्ण अवसर मिल रहा है। जिन साथिओं को गुरुदेव के साक्षात् दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो पाया, उनके लिए लेख पढ़ने के साथ वीडियो देखने से गुरुशक्ति पर स्टैम्प लगने से कम नहीं है।
तो साथिओ यही है आज के ज्ञानप्रसाद की भूमिका जिसे पढ़कर आइए शांतिपाठ के साथ ज्ञानगंगा के एक-एक कतरे का अमृतपान करें, दुर्लभ मनुष्य जीवन को सार्थक करें: ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
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सर्वत्र फैला दुःख, दारिद्रय, शोक, संताप किस प्रकार समस्त मानव प्राणियों को कितना कष्ट हो रहा है। पतन और पाप के गर्त में लोग किस शान और तेजी से गिरते मरते चले जा रहे हैं यह दयनीय दृश्य देखे, सुने तो हमारी अन्तरात्मा रोने लगी।
“मनुष्य अपने ईश्वरीय अंग अस्तित्व को क्यों भूल गया ? उसने अपना स्वरूप और स्तर इतना क्यों गिरा दिया ?”
यह प्रश्न निरन्तर मन में उठते रहे लेकिन उत्तर कुछ न मिला। इस संसार में बुद्धिमत्ता,चतुरता, समझ कुछ भी तो कम नहीं है। एक से एक बढ़कर एक चतुर,चालाक एवं कला-कौशल प्रस्तुत करते मनुष्य दिखाई देते हैं जो एक से बढ़कर एक चातुर्य चमत्कार का परिचय देते हैं। लेकिन ऐसे चतुर लोग इतना क्यों नहीं समझ पाते कि दुष्टता और निकृष्टता का पल्ला थाम कर वोह जिसे प्राप्त करने की आशा करते हैं वह मृगतृष्णा ही बनकर रह जायेगा, उनके हाथ केवल पतन और संताप ही हाथ लगेगा।
मानवीय बुद्धिमता में यदि एक और कड़ी जुड़ गई होती, समझदारी ने मात्र इतना सा ही निर्देश दिया होता कि “मानवीय गौरव” के लिए ईमान को साबित और विकसित किए रखना मानवीय गौरव के अनुरूप है, प्रगति के लिए आवश्यक है तो इस संसार की स्थिति कुछ और ही होती। ऐसी स्थिति आते ही सभी लोग सुख-शान्ति का जीवन जी रहे होते। किसी को किसी पर अविश्वास, सन्देह/शंका न करना पड़ता और कोई किसी के द्वारा ठगा, सताया नहीं जाता। ऐसा होने पर इस संसार में किसी को भी दुःख, दारिद्रय आदि का कोई अता पता भी न मिलता, हर जगह सुख-शान्ति की सुरभि फैली हुई अनुभव होती।
स्वयं को अति समझदार समझने वाला मनुष्य इतना नासमझ क्यों है? इतनी मोटी सी बात कि पाप का फल दुःख और पुण्य का फल सुख होता है, को मानने के लिये तैयार नहीं होता। इतिहास और अनुभव स्वयं इस तथ्य के साक्षी हैं कि अनीति अपनाने से, स्वार्थ संकीर्णता में बंधे रहकर मनुष्य को पतन और संताप ही हाथ लगा है। अर्पण किए बिना, निर्मल हुए बिना किसी ने भी कभी शाँति पाई है क्या? किसी भी मनुष्य को आदर्शवादी रीति-नीति अपनाए बिना सम्मान और उत्कर्ष की सिद्धि, नहीं मिली है। कुटिलता सात पर्दे भेद कर भी अपनी पोल स्वयं ही खोलती रहती है। मनुष्य पग-पग पर यह सब देख रहा है लेकिन फिर भी न जाने क्यों यही सोचता रहता है कि संसार की आंखों में धूल झोंक कर, अपनी धूर्तता को छिपाये ही रखेगा । उसके कृत्यों की भनक किसी को नहीं लगेगी और वह सदा लुक छिपकर आँख मिचौली का खेल खेलता रहेगा ऐसा सोचने वाले लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि हजारों आंखों से देखने,हजारों कानों से सुनने और हजारों पकड़ से पकड़ने वाला विश्वात्मा किसी की भी धूर्तता पर पर्दा नहीं पड़ा रहने देता। वस्तुस्थिति स्वयं प्रकट होकर ही रहती है, दुष्टता छत पर चढ़कर अपनी कलई आप ही खोलती है और दुरभि संधियां आप बखानती है।
यदि लोग इस सनातन सत्य और पुरातन तथ्य को समझ सके होते कि अशुभ का अवलंबन करने पर दुर्गति होती है, उसे अनुभव कर सके होते तो सन्मार्ग का राजपथ छोड़कर कंटकाकीर्ण कुमार्ग पर क्यों भटकते ? क्यों रोते बिलखते इस सुरदुर्लभ मानव जीवन को सड़ी हुई लाश की तरह ढोते, घसीटते- घसीटते जीवन का अंत कर देते ?
दुर्बुद्धि का ऐसा जाल-जंजाल बिखरा पड़ा है, उससे इतने निरीह प्राणी चीत्कार करते हुए फंसे जकड़े पड़े हैं कि यह दयनीय दुर्दशा लोगों के लिए मर्मान्तक पीड़ा का कारण बन गई है । “आत्मवत् सर्वभूतेषु की साधना” ने विश्व मानव की इस पीड़ा को अपनी पीड़ा बना दिया जैसे लगने लगा है। ऐसा लग रहा है मानो अपने ही हाथ पाँव को कोई ऐंठ, मरोड़ रहा हो।
“सबमें अपनी आत्मा पिरोई हुई है और सब अपनी आत्मा में पिरोये हुए हैं” गीता का ज्ञान जहाँ तक पढ़ने/सुनने से सम्बन्धित रहे वहाँ तक तो ठीक है लेकिन जब वह अनुभूति की भूमिका में उतरे और अन्तःकरण में प्रवेश प्राप्त करे तो स्थिति दूसरी हो जाती है। जिस प्रकार अपने अंग अवयवों का कष्ट मनुष्य को व्यथित/बेचैन करता है, अपने स्त्री, पुत्रों की पीड़ा मनुष्य का चित्त विचलित करती है, ठीक वैसे ही आत्म-विस्तार की दिशा में आगे बढ़ चलने पर प्रतीत होता है कि विश्वव्यापी दुःख अपना ही दुःख है और व्यथित पीड़ितों की वेदना अपने को ही नोचती/फटकारती है।
गुरुदेव कहते हैं कि पीड़ित मानवता की,विश्वात्मा की, व्यक्ति और समाज की व्यथा/वेदना हमारे भीतर उठने और बेचैन करने लगी। आँख, दाढ़ और पेट के दर्द से बेचैन मनुष्य व्याकुल फिरता है कि किसी प्रकार,किसी उपाय से इस कष्ट से छुटकारा पाया जाय ? क्या किया जाय ? कहाँ जाया जाय ? इस प्रकार की हलचल मन में उठती है एवं प्रयास किया जाता है कि जो कुछ भी संभव हो उसे करने के लिए क्षण भर का विलम्ब न किया जाए ।
गुरुदेव का मन भी ठीक ऐसे ही बना रहा। दुर्घटना में हाथ पैर टूटे बच्चे को अस्पताल ले दौड़ने की आतुरता में माँ अपने बुखार जुकाम को भूल जाती है और बच्चे को संकट से बचाने के लिए बेचैन हो उठती है। गुरुवर कह रहे हैं कि अपनी मनोदशा लगभग ऐसी ही चली आती है। अपने सुख साधन जुटाने की फुरसत किसे है ? विलासिता की सामग्री जहर सी लगती है, विनोद और आराम के साधन जुटाने की बात कभी सामने आई तो आत्मग्लानि से उस नीचता को धिक्कारा जो मरणासन्न रोगियों के प्राण बचा सकने में समर्थ पानी के एक गिलास को अपने पैर धोने की विडम्बना में बखेरने के लिए ललचाती है। भूख से तड़प कर प्राण त्यागने की स्थिति में पड़े हुए बालकों के मुख में जाने वाला ग्रास छीनकर माता कैसे अपना भरा पेट और भरे ? दर्द से कराहते बालक से मुँह मोड़कर पिता कैसे ताश शतरंज का साज सजाये ? ऐसा कोई निष्ठुर ही कर सकता है। “आत्मवत् सर्वभूतेषु” की सम्वेदना जैसे ही प्रखर हुई निष्ठुरता उसी में गल जल कर नष्ट हो गई। ह्रदय में केवल करुणा ही शेष रह गई। वही अब तक जीवन के इस अन्तिम अध्याय तक यथावत् बनी हुई है। उसमें रत्ती भर भी कमी नहीं हुई बल्कि दिन-दिन बढ़ोतरी ही होती गई।
सुना है कि आत्मज्ञानी सुखी रहते हैं और चैन की नींद सोते हैं। अपने लिए ऐसा आत्मज्ञान अभी तक दुर्लभ ही बना हुआ है। ऐसा आत्मज्ञान कभी मिल भी सकेगा या नहीं इसमें पूरा-पूरा संदेह है। जब तक इस जगत में व्यथा वेदना का अस्तित्व बना रहेगा , जब तक प्राणियों को क्लेश और कष्ट की आग में जलना पड़ेगा, तब तक हमें चैन से बैठने की इच्छा न होगी। जब भी प्रार्थना का समय आया, भगवान से यही निवेदन किया कि हमें चैन नहीं, वह करुणा चाहिए जो पीड़ितों की व्यथा को अपनी व्यथा समझने की अनुभूति करा सके, हमें समृद्धि नहीं वह शक्ति चाहिए जो पीड़ितों की आंखों के आँसू पोंछ सकने की सार्थकता सिद्ध कर सके। बस इतना ही अनुदान भगवान से माँगा और हमें लगा कि द्रौपदी को वस्त्र. देकर लज्जा बचाने वाले भगवान हमें करुणा की अनन्त संवेदनाओं से ओत-प्रोत करते चले आ रहे हैं। स्वयं को क्या कष्ट और अभाव है इसे सोचने की कभी फुरसत ही नहीं मिली ? स्वयं को क्या सुख साधन चाहिए इसका ध्यान ही कब आया है? हमारे रोम रोम में केवल पीड़ित मानवता की व्यथा वेदना ही समाई रही और यही सोचते रहे कि “अपने विश्वव्यापी कलेवर परिवार” को सुखी बनाने के लिए क्या किया जा सकता है। जो पाया उसका एक-एक कण हमने उसी प्रयोजन के लिए खर्च किया जिससे शोक संताप की व्यापकता हटाने और संतोष की साँस ले सकने की स्थिति उत्पन्न करने में थोड़ा भी योगदान मिल सके।
सोमवार के लेख तक के लिए मध्यांतर, जय गुरुदेव ,धन्यवाद्