वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परम पूज्य गुरुदेव के शब्दों में “आत्मवत् सर्वभूतेषु” की अति सरल व्याख्या।

अपने समर्पित परिवार में शेयर का रहे हैं कि हम Vancouver वापिस आ गए हैं, रेगुलर दिनचर्या का पालन करने का प्रयास करेंगें। अपने गुरु की कृपा का ही परिणाम है कि जहाँ हमें सम्पूर्ण अज्ञातवास की आशंका थी,सब कुछ लगभग रोज़  की तरह ही चलता रहा। परिवार ने चाहा तो किसी शनिवार का  स्पेशल सेगमेंट क्रूज को ही समर्पित कर देंगें।    

कल वाले लेख में हमने लिखा था कि “आत्मवत् सर्वभूतेषु” एवं “मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्” जैसे भारी भरकम शब्दों को कल ही समझने का प्रयास करेंगे तो उसी वचन का पालन करते हुए निम्नलिखित सरल व्याख्या दी गयी है जिसे समझना बहुत ही आवश्यक है। यहां एक बात फिर से लिखना उचित समझते हैं कि अखंड ज्योति के जनवरी फरवरी 1971 वाले अंक में “हमारी जीवन साधना के अंतरंग पक्ष-पहलू” शीर्षक से दो बहुत ही महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए थे । दोनों लेखों में गुरुवर की लेखनी से अवतरित हुई ज्ञानगंगा को शब्दों में बांध पाना हम जैसों के लिए लगभग असंभव ही है। हमें तो इस बात की ही समझ नहीं आ रही कि इस विशाल ज्ञानगंगा को दैनिक ज्ञानप्रसाद के लिए कहां पर रोकें। इस विशाल ज्ञानगंगा को हम सबके लिए अवतरित करने के लिए गुरुचरणों में हम सब नतमस्तक हैं । इसलिए जहां पर भी शब्दसीमा का सिक्योरिटी गार्ड हमें रोक देता है, वहीं से ज्ञानप्रसाद का शुभारंभ हो जाता है:

आत्मवत् सर्वभूतेषु” का अर्थ है “सभी प्राणियों को अपने समान देखना”। यह एक संस्कृत वाक्यांश है जो भारतीय फिलॉस्फी, खासकर हिंदू धर्म में, समानता, सहानुभूति और प्रेम का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसका मतलब है कि हर जीवित प्राणी में, चाहे वह मनुष्य हो या कोई अन्य जीव, आत्मिक रूप से समान है और उसके साथ उसी सम्मान और सहानुभूति के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए जैसे कि कोई अपनेआप से करता है।

“मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्। आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः॥” यह एक संस्कृत श्लोक है जिसका अर्थ है कि जो व्यक्ति दूसरों की पत्नी को अपनी माता के समान, दूसरों के धन को मिट्टी के ढेले के समान और सभी प्राणियों को अपने समान देखता है, वही पंडित (ज्ञानी) है। 

यह श्लोक हितोपदेश से लिया गया है और इसका अर्थ है कि हमें दूसरों के प्रति सम्मान और सहानुभूति का भाव रखना चाहिए, खासकर अपनी पत्नी के अलावा किसी अन्य महिला के प्रति, और दूसरों के धन को महत्व नहीं देना चाहिए, बल्कि उसे मिट्टी के समान समझना चाहिए। इसके साथ ही, हमें सभी प्राणियों को अपने समान मानना ​​चाहिए। यह श्लोक हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान दूसरों के प्रति दया और सम्मान रखने में है। 

इस संक्षिप्त व्याख्या के साथ, शांतिपाठ करते हुए आज के लेख का शुभारंभ करते हैं:

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥ 

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गुरुदेव बता रहे  हैं:

साधना के तीसरे चरण में प्रवेश करते हुए “आत्मवत् सर्वभूतेषु” की किरणें फूट पड़ी।  “मातृवत् परदारेषु और परद्रव्येषु लोष्ठवत्” की साधना अपने काय कलेवर तक ही सीमित थी। दो आंखों में पाप आया तो तीसरी विवेक की आँख ने खोलकर उसे डरा कर भगा दिया। शरीर पर कड़े प्रतिबंध लगा दिये। जिन परिस्थितियों के बनने की आशंका रहती है उनकी जड़ काट दी तो “दुष्ट व्यवहार” असंभव हो गया। मातृवत् परदारेषु की साधना बिना किसी अड़चन से ही हो गई। शरीर ने सदा हमारा साथ दिया। मन ने जब हार स्वीकार कर ली तो वह हताश होकर गलत हरकतों से बाज आ गया। बाद में  तो वही मन अपना पूरा मित्र और सहयोगी बन गया। स्वेच्छा से गरीबी वरण कर लेने, आवश्यकताएं घटाकर अन्तिम बिन्दु तक ले जाने और संग्रह की भावना छोड़ने से “परद्रव्य (किसी दूसरे का) का आकर्षण” चला गया। जिस किसी को भी बाँटने और देने का चस्का लग जाता है, जो उस अनुभूति का आनन्द लेने लगता है उसके लिए  संग्रह कर पाना असंभव हो जाता है। फिर तो एक ही भावना उभर कर सामने आती है: परद्रव्य का पाप किस प्रयोजन के लिए कमाया जाय ? गरीबी का, सादगी का,अपरिग्रही ब्राह्मण जीवन अपने भीतर एक असाधारण आनन्द, संतोष और उल्लास भरा बैठा है, इसकी अनुभूति यदि लोगों को हो सकी होती तो शायद ही किसी का मन परद्रव्य की पाप पोटली सिर पर लादने को करता। 

अपरिग्रही का अर्थ  “आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना” या “गैर-अधिकार की सोच  न करना” होता है।

अपरिग्रही बन जाने पर, मनुष्य की देने की प्रतिक्रिया अन्तःकरण पर कितनी अनोखी होती है उसे कोई कहाँ जानता है ? लेकिन हमारे  को तो यह दिव्य अनुभूतियों का भण्डार अनायास ही हाथ लग गया।

गुरुदेव बताते हैं कि हमारे अंतःकरण में इस प्रवृति के आते ही अगला कदम बढ़ाने की तीसरी मंजिल आती है। इसी तीसरी मंजिल को “आत्मवत् सर्वभूतेषु” अर्थात सभी को अपने समान देखना कहा गया है। 

कहने और सुनने में यह शब्द मामूली से लगते हैं और सामान्यतया नागरिक कर्त्तव्यों का पालन, शिष्टाचार, सद्व्यवहार की सीमा तक पहुँच कर बात पूरी हो गई दिखती है लेकिन इस फिलॉस्फी की सीमा अति विस्तृत है। उसकी परिधि वहाँ पहुँचती है जहाँ परमात्म सत्ता के साथ घुल जाने की स्थिति आ पहुँचती है। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का यही मूर्त रूप है कि हम हर किसी प्राणी को अपना माने। अपने को दूसरों में और दूसरों को अपने में पिरोया हुआ, घुला हुआ अनुभव करें। 

ऐसा मनुष्य अपने तक सीमित नहीं रहता, स्वार्थी की परिधि में बंधे रहना उसके लिए कठिन हो जाता है। दूसरों का दुःख मिटाने और सुख बढ़ाने के प्रयास उसे बिलकुल ऐसे लगते हैं मानो यह सब अपने नितान्त व्यक्तिगत प्रयोजन के लिए किए जा रहे हों।

संसार में अनगणित  व्यक्ति पुण्यात्मा और सुखी है, सन्मार्ग पर चलते हुए और मानव जीवन को धन्य बनाते हुए अपना पराया कल्याण करते हैं। यह देख सोचकर हमारे मन  को बड़ी साँत्वना होती है और लगता है सचमुच यह दुनिया ईश्वर ने पवित्र उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाई है। यहाँ पुण्य और ज्ञान मौजूद है जिनका सहारा लेकर कोई भी आनन्द, उल्लास, शान्ति और सन्तोष की दिव्य उपलब्धियाँ समुचित मात्रा में प्राप्त कर सकता है। इस संसार में पुण्यात्मा, परोपकारी और आत्मावलम्बी व्यक्तियों का अभाव नहीं है। वे संख्या में कम भले ही हों लेकिन अपना प्रकाश तो अनवरत फैलाते ही हैं। धरती वीर-विहीन नहीं है। यहाँ नर-नारायण का अस्तित्व विद्यमान है । परमात्मा कितना महान्, उदार और दिव्य हो सकता है इसका परिचय उसकी प्रतिकृति उन आत्माओं में देखी जा सकती है जिन्होंने श्रेयपथ के संकल्प को अपने अंतर्मन में उतारा है और कांटों को तलुवों से रौंदते हुए लक्ष्य की ओर शान्ति, श्रद्धा एवं हिम्मत के साथ कदम बढ़ाए हैं। मनुष्यता को गौरवान्वित करने वाले इन महामानवों का अस्तित्व ही समस्त जगत को इस योग्य बनाये हुए  है कि भगवान बार-बार नर तन धारण करके अवतार लेने के लिए ललचाये। आदर्शों की दुनिया में विचरण करने वाले और उत्कृष्टता की गतिविधियों को अवलम्बन बनाने वाले यह महामानव बाहिर  से अभावग्रस्त दिखते हुए भी अन्तरंग में कितने समृद्ध और सुखी रहते हैं यह देखकर हमारा चित्त भी पुलकित होने लगा। ऐसे महानुभावों की  शान्ति हमारे अन्तःकरण को छूने लगी। महाभारत की वह कथा हमें अक्सर याद आती रही जिसमें पुण्यात्मा युधिष्ठिर के कुछ समय तक नरक जाने पर वहाँ रहने वाले प्राणी आनन्द  विभोर हो गये थे। हमें अनुभव होता रहा कि जिन पुण्यात्माओं की स्मृति मात्र से अपने को संतोष और प्रकाश मिला वे स्वयं न जाने कितनी दिव्य अनुभूतियों का अनुभव करते होगे।

इस कुरूप दुनिया में जो कुछ सौंदर्य है वह इन पुण्यात्माओं का ही अनुदान है। असीम अस्थिरता से निरन्तर प्रेत पिशाचों जैसा हाहाकारी नृत्य करने वाले अणु परमाणुओं से बनी-भरी इस दुनिया में जो स्थिरता व शक्ति है वह इन पुण्यात्माओं द्वारा उत्पन्न की गई है। प्रलोभनों और आकर्षणों के जंजाल के बंधन काटकर जिन्होंने सृष्टि को सुरभित और शोभामय बनाने की ठान ली उनकी श्रद्धा ही इस धरती को धन्य बनाती रही है। जिनके पुण्य प्रयास लोकमंगल के लिए निरन्तर गतिशील रहे, इच्छा होती रही इन नर-नारायणों के दर्शन और स्मरण करके पुण्यफल पाया जाय। जिन्होंने आत्मा को परमात्मा बना लिया, उन पुरुष पुरुषोतमों  में प्रत्यक्ष परमेश्वर की झाँकी करके लगता रहा, अभी भी ईश्वर साकार रूप में इस पृथ्वी पर निवास करते विचरते दिखते पड़ते हैं। इन पुण्यात्माओं का सान्निध्य प्राप्त करने में स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि आदि सबसे अधिक आनन्द पाया जा सकता है। इस सच्चाई के अनुभवों ने कठिनाइयों से भरे जीवनक्रम के बीच इसी विश्व सौंदर्य का स्मरण कर उल्लसित रहा जा सका।

आत्मवत् सर्वभूतेषु की यह सुखोपलब्धि एकाँगी न रही, उनका दूसरा पक्ष भी सामने अड़ा खड़ा रहा। संसार में दुःख कम नहीं। कष्ट और क्लेश, शोक और सन्ताप,अभाव और दारिद्रय से अगणित व्यक्ति नारकीय यातनाएं भोग रहे हैं। समस्याएँ, चिंतायें और उलझने लोगों को खायी जा रही है। अन्याय और शोषण के कुचक्र में असंख्यों को बेतरह पिसना पड़ रहा है। दुर्बुद्धि ने सर्वत्र नारकीय वातावरण बना रखा है। अपराधों और पापों के दावानल में झुलसते, बिलखते, चीत्कार करते लोगों की नारकीय यातनाएं ऐसी हैं जिन्हें वह सब सहना पड़ता है उनका क्या कहा जाए। सुख, सुविधाओं की साधन सामग्री इस संसार में कम नहीं है, फिर भी दुःख और दैन्य के अतिरिक्त कही कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। एक दूसरे को स्नेह सद्भाव का सहारा देकर व्यथा वेदनाओं से छुटकारा दिला सकते थे, प्रगति और समृद्धि की संभावना प्रस्तुत कर सकते थे लेकिन किया क्या जाय जब मनोभूमि ही बिगड़ गई हो, सब कुछ उलटा सोचा और अनुचित किया जा रहा हो तो विषवृक्ष बो कर अमृत फल पाने की आशा कैसे सफल होती ?

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अगले लेख तक के लिए मध्यांतर, जय गुरुदेव,धन्यवाद


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