वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

अखंड दीप और अखंड ज्योति का जन्म-इतिहास,गुरुवर के मुखारविंद से।


अखंड ज्योति के जनवरी, फरवरी 1971 वाले अंक में “हमारी जीवन साधना के अंतरंग पक्ष-पहलू” शीर्षक से दो बहुत ही महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए।दोनों लेखों में गुरुवर की लेखनी से अवतरित हुई ज्ञानगंगा को शब्दों में बांध पाना हम जैसों के लिए लगभग असंभव ही है। हमें तो इस बात की ही समझ नहीं आ रही कि इस विशाल ज्ञानगंगा को दैनिक ज्ञानप्रसाद के लिए कहां पर रोकें। इस विशाल ज्ञानगंगा को हम सबके लिए अवतरित करने के लिए गुरुचरणों में हम सब नतमस्तक हैं ।
आज के दैनिक ज्ञानप्रसाद में गुरुदेव स्वयं हम बच्चों को अखंड दीप,उसका प्रकाश, उससे मिली शक्ति एवं अखंड ज्योति पत्रिका के लिए अंतर्मन से मिले मार्गदर्शन की बात कर रहे हैं।
Princess cruise ship की 18वीं मंजिल से लिखे जा रहे इन्हीं शब्दों के साथ,विश्वशांति की कामना करते हुए आइए आज के ज्ञान गंगाजल का अमृतपान करें । विशाल नीला सागर, विशाल नीला आकाश,सूर्यदेव की कृपा जैसा प्राकृतिक दृश्य केवल अनुभव ही किया जा सकता है:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥  


अपनी अध्यात्म साधना की दो मंजिलें 24 वर्ष में पूरी हुई। “मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्” आदर्शों का उल्लंघन प्रायः युवावस्था में ही होता है। 
“मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्” जैसे भारी भरकम शब्दों को कल ही समझने का प्रयास करेंगे,उचित रहेगा कि आज के लेख की चर्चा अखंड दीप और अखंड ज्योति तक ही सीमित रखी जाए।
आइए आगे चलें: 
काम और लोभ की प्रबलता के वही दिन होते हैं, सो 15 वर्ष की आयु से लेकर 40 वर्ष तक पहुंचते-पहुँचते वह उफान ढल गया। कामना, वासनायें, तृष्णा, महत्वाकांक्षायें प्रायः इसी आयु में आकाश और पाताल के सिरे मिलाती हैं। यह अवधि स्वाध्याय, मनन, चिन्तन से लेकर आत्म-संयम और जप ध्यान की साधना में लग गई। इसी आयु में बहुत से मनोविकार प्रबल रहते हैं। आमतौर पर यही समझा जाता है कि परमार्थ प्रयोजनों के लिए ढलती आयु ही उपयुक्त होती है। उठती आयु के लोग अर्थव्यवस्था से लेकर सैन्य चालन तक अनेक महत्वपूर्ण कार्यों का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाते हैं और उन्हें उठाने भी चाहिएं। इस आयु में महत्वाकाँक्षा की पूर्ति के लिए बहुत अवसर मिलता है। सेवाकार्य में भी अधिकतर नवयुवक ही योगदान दे सकते हैं/देते हैं। लोकमंगल के लिए नेतृत्व करने की वह अवधि उचित नही समझी जाती। लेकिन शंकराचार्य, दयानन्द, विवेकानन्द, रामदास, मीरा, निवेदिता जैसे थोड़े से ही Exception ऐसे हैं जिन्होंने उठती उम्र में ही लोकमंगल के नेतृत्व का भार कंधों पर सफलता से वहन किया हो। आमतौर से कच्ची उम्र गड़बड़ा ही जाती है। यश, पद की इच्छा, धन का प्रलोभन, आकर्षण के बने रहने के कारण उल्टे खराबी ही पैदा करते हैं। अच्छी संस्थाओं का भी सर्वनाश इसी स्तर के लोगों द्वारा होता है।
यों तो बुराई भलाई किसी आयु विशेष से बंधी नहीं रहती लेकिन प्रकृति की परम्परा कुछ ऐसी ही चली आती है जिसके कारण “युवावस्था महत्वाकांक्षाओं की अवधि” मानी गई है। ढलती उम्र के साथ-साथ सम्भवतः मनुष्य कुछ ढीला पड़ जाता है तब उसकी भौतिक लालसाएं भी ढीली पड़ जाती है। मरने के अटल सत्य को याद आने से उस समय मनुष्य लोक-परलोक, धर्म-कर्म में भी रुचि दिखाने लगता है इसलिए तत्व वेत्ताओं ने वानप्रस्थ और संन्यास के लिए उपयुक्त समय आयु के उत्तरार्द्ध को ही माना है।
न जाने क्या रहस्य था कि हमें हमारे मार्गदर्शक ने उठती आयु में तपश्चर्या के कठोर प्रयोजन में लगा दिया और देखते-देखते उसी प्रयास में 40 वर्ष की आयु पूरी हो गई। हो सकता है वर्चस्व और नेतृत्व के अहंकार का, महत्वाकांक्षाओं और प्रलोभनों में बह जाने का खतरा समझा गया हो। हो सकता है आन्तरिक परिपक्वता,आत्मिक बलिष्ठता पाये बिना कुछ बड़ा काम न बन पड़ने की आशंका की गई हो। हो सकता है महान् कार्यों के लिए अत्यन्त आवश्यक संकल्पबल, धैर्य, साहस और संतुलन परखा गया हो। 
अपनी उठती आयु उस साधन क्रम में बीत गई जिसकी चर्चा हम अपने परिजनों से अनेकों बार कर चुके हैं।
उस अवधि में सब कुछ सामान्य चला लेकिन असामान्य केवल एक ही था और वह था  हमारा गौघृत से अहर्निश जलने वाला अखण्ड दीप। पूजा की कोठरी में वह निरन्तर जलता रहता। इसका वैज्ञानिक या आध्यात्मिक रहस्य क्या था कुछ ठीक से कह नहीं सकते। गुरु सो गुरु, आदेश सो आदेश, अनुशासन सो अनुशासन, समर्पण सो समर्पण। एक बार जब ठोक बजा कर देख लिया और समझ लिया कि इसकी नाव में बैठने पर डूबने का खतरा नहीं है तो फिर आँख मूँदकर बैठ ही गये। फौजी सैनिक को अनुशासन प्राणों से भी अधिक प्यारा होता है। हमारे समर्पण को कोई  अन्धश्रद्धा कहे तो कोई बात नहीं। अनुशासन प्रियता या जीवन की जो दिशा निर्धारित कर दी गई, कार्य पद्धति जो बता दी गई उसे सर्वस्व मानकर पूरी निष्ठा और तत्परता के साथ करते चले गये। साधना कक्ष में अखण्ड दीप की स्थापना भी इसी प्रक्रिया के अंतर्गत आती है। जो साधना हमें बताई गई उसमें अखण्ड दीप का महत्व है इतना बता देने पर उसकी स्थापना कर ली गई और पूरी अवधि तक ठीक उसी तरह जलाये रखा गया। बाद में तो वह प्राणप्रिय ही बन गया। 24 वर्ष बीत जाने पर उसे बुझाया जा सकता था लेकिन यह कल्पना भी ऐसी लगती थी कि हमारा प्राण ही बुझ जायेगा सो उसे आजीवन चालू रखा गया। हम अज्ञातवास गये थे,अब फिर जा रहे हैं तो उसे हमारी धर्मपत्नी संजोये रखेंगी। यदि एकाकी रहे होते पत्नी न होती तो और कुछ साधना बन सकती थी, अखण्ड दीप संजोये रखना कठिन होता। अखण्ड दीप स्थापित करने वालो में से अनेकों के जलते बुझते रहते हैं, वे नाममात्र के ही अखण्ड होते होंगे। अपनी ज्योति अखण्ड बनी रही इसका कारण बाहरी सतर्कता नहीं बल्कि अंतर्निष्ठा ही समझी जानी चाहिए जिसे अक्षुण्ण रखने में हमारी धर्मपत्नी ने असाधारण योगदान दिया है।
हो सकता है अखण्ड दीप अखण्ड यज्ञ का ही स्वरूप हो। धूप बत्तियों का जलना, हवन सामग्री की, जप मंत्रों को धारण की और दीपक घी होमे जाने की आवश्यकता पूरी करता हो और इस तरह अखण्ड हवन की ही कोई स्वसंचालित प्रक्रिया बन जाती हो। हो सकता है जल भरे कलश और ज्वलन्त अग्नि की स्थापना में कोई अग्नि जल का संयोग रेल इंजन जैसी भाप शक्ति का सूक्ष्म प्रयोजन पूरा करना हो। हो सकता है अंतर्ज्योति जगाने में इस ब्राहा ज्योति से कुछ सहायता मिलती हो, इसी ज्योति से हमें अखण्ड ज्योति पत्रिका के लिए  भावनात्मक प्रकाश, अनुपम आनन्द, उल्लास मिलता रहा हो। बाहर चौकी पर रखा हुआ यह दीपक कुछ दिन तो बाहर जलता दिखा,बाद में अनुभूति बदली और ऐसे अनुभव हुआ कि हमारे अन्तःकरण में यही प्रकाश ज्योति ज्यों की त्यों जलती है। हमें अनुभव हुआ कि जिस प्रकार पूजा की कोठरी प्रकाश से आलोकित होती है वैसे ही अपना समस्त अन्तरंग इस ज्योति से ज्योर्तिमय हो रहा है। शरीर, मन और आत्मा में, स्थूल सूक्ष्म और कारण कलेवर में हम जिस ज्योतिर्मयता का ध्यान करते रहे हैं सम्भवतः वह इस अखण्ड दीप की ही प्रतिक्रिया रही होगी। सर्वत्र प्रकाश का समुद्र लहलहा रहा है और हम तालाब की मछली की तरह उस ज्योति-सरोवर में क्रीडा-कलोल करते विचरण कर रहे हैं। इन अनुभूतियों, आत्मबल, दिव्य दर्शन और आंतरिक उल्लास को विकासमई बनाने में इतनी सहायता पहुँचाई जिसका शब्दों में  उल्लेख नहीं किया जा सकता। हो सकता है यह हमारी कल्पना ही हो लेकिन  सोचते जरूर हैं कि यदि यह अखण्ड ज्योति न जलाई गई होती तो पूजा की कोठरी के धुँधलेपन की तरह शायद अंतःकरण भी धुँधला ही बना रहता। अब तो वह दीपक दीपावली के दीप की तरह हमारी नस-नाड़ियों में जगमगाता दिखता है। अपनी भाव भरी अनुभूतियों के प्रवाह में ही जब 32 वर्ष पूर्व यह पत्रिका प्रारम्भ की तो संसार का सर्वोत्तम नाम जो हमें प्रिय लगा,पसन्द आया “अखण्ड ज्योति” रख दिया। हो सकता है उसी भावावेश में प्रतिष्ठापित पत्रिका का छोटा सा विग्रह संसार में मंगलमय प्रगति की प्रकाश किरणें बिखरने में समर्थ और सफल हो सका हो।


तो साथियो अगले लेख तक मध्यांतर यहीं पर होता है।
जय गुरुदेव,धन्यवाद


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