3 अगस्त 2025 का ज्ञानप्रसाद
अखंड ज्योति के जनवरी, फरवरी 1971 अंक में “हमारी जीवन साधना के अंतरंग पक्ष-पहलू” शीर्षक से दो बहुत ही महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए। यह लेख गुरुदेव के मार्गदर्शन के साथ-साथ निर्देशों का वर्णन भी दे रहे हैं।
सबसे बड़ा निम्नलिखित मार्गदर्शन बहुत महत्वपूर्ण है:
युग धर्म का निर्वाह करने के लिए जागृत आत्माओं को यह कदम उठाने ही चाहिए, उठाने ही पड़ेंगे।
इसके साथ ही गुरुदेव हम सबको अपना उदाहरण प्रस्तुत करने का निर्देश दे रहे हैं।
आदरणीय सरविंद जी द्वारा लिखे जा रहे “कभी कभार” विशेषण का भी आज के लेख में प्रयोग हुआ है, गुरूदेव ने साफ-साफ संकेत दे दिया है कि “ऐसे काम नहीं चलेगा।”
तो साथियो यहीं पर शांतिपाठ से आज के लेख का शुभारंभ होता है:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
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अखण्ड-ज्योति परिवार में प्रज्ञा परिजनों की सौभाग्यभरी दूरदर्शिता देर-सवेर में कोटि-कोटि कण्ठों द्वारा इसलिए सराही जायेगी कि उन्होंने “अँधेरे में दीपक जलाने जैसा साहस” दिखाकर अपनी विशिष्टता एवं वरिष्ठता का परिचय दिया। साहस के धनी अनेकों होते हैं। उद्दण्ड आतंकवादी, दस्यु, आततायी आये दिन दुस्साहस बरतते और दुष्टता करते देखे जाते हैं। यों तो इसे भी साहसिकता ही कहा जायेगा। लुटेरे और हत्यारे इसी स्तर के होते हैं और दैत्य दानव कहलाते हैं। इन पर लोकभर्त्सना और आत्म-प्रताड़ना ही बरसती है। समाज और शासन का दण्ड पाते हैं और ईश्वरीय कोप का नरक सहते हैं। जो तात्कालिक सफलताएँ उनके पल्ले पड़ती है, नरक जैसी घिनौनी और ज़हर जैसी विषैली सिद्ध होती हैं। ऐसे लाभ कुछ ही समय में नस-नस को बेधने वाले अभिशाप बनकर सामने आते हैं।
यहाँ उस साहसिकता की चर्चा हो रही है जो लोकप्रवाह से अलग हटकर अपना रास्ता बनाती है। सामान्यजनों से उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रियाकलाप अपनाने की बात नहीं बन पड़ती। वे प्रचलन के प्रवाह में ही बहते रहते हैं और अधिकाँश लोगों के अधिकाँश जीवनक्रम के साथ व्यावहारिक होने वाले ढर्रे को अपनाने के अतिरिक्त और कुछ सोचते/ करते नहीं बन पड़ती।
“सच्चे अर्थों में शूरवीर वे हैं जिन्होंने मानवी गरिमा को समझा और तद्नुरूप स्वतन्त्र चिन्तन और स्वतन्त्र कर्त्तव्य अपना कर महामानवों जैसी वरिष्ठता का मार्ग अपनाया। ऐसे ही लोग प्रकाश स्तम्भ, समुद्र में खड़े लाइटहाउस की तरह उफनते समुद्र में भी अपना सिर उठाते हुए अस्तित्व बनाये रखते हैं। उधर से निकलने वाले जलयानों में डूबने से बचा सकने वाला मार्गदर्शन कर सकना इन्हीं के भाग्य में लिखा होता है। मानवता ऐसे ही नर-रत्नों को जन्म देकर कृतकृत्य होती है।”
अखण्ड-ज्योति ने ऐसे ही मणि- मुक्तकों को जहाँ-तहाँ से ढूंढ़ा और हीरक हार की तरह उन्हें कलात्मक ढंग से गूँथ कर “युग देवता” की सौंदर्य सज्जा को बढ़ाया है। दूसरे शब्दों में उसे ऐसी पुष्प वाटिका की उपमा भी दी जा सकती है जिसमें एक से एक सुन्दर सुरभित फूलों को खिलते-महकते देखकर दर्शकों का मन प्रसन्न होता है। इस खिली हुई पीढ़ी का विशिष्ट सौभाग्य यह है कि उनका उपयोग वेश्याग्रहों में नहीं देवमन्दिरों में ही होता चला रहा है। आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से सामान्य होते हुए भी ऐसे परिजनों ने दृष्टिकोण, चरित्र एवं सृजन अभियान में योगदान की दृष्टि से अपने को असामान्य स्तर पर सिद्ध किया है। इस प्रतिपादन के मूल्याँकन की प्रामाणिकता यह है कि उस छोटे से समुदाय के प्रयास पराक्रम से ही युगनिर्माण योजना बनी,बढ़ी और इस स्थिति तक पहुँची कि उसे असन्तुलन को सन्तुलन में बदल सकने में समर्थ माना और विश्वमानव के भाग्य निर्धारण में इस छोटे से समुदाय का योगदान अद्भुत समझा जा रहा है।
पिछले 45 वर्षों की दृढ़ता, गतिशीलता और सफलता को देखते हुए यह आशा बँध चली है कि वर्तमान की सभी भयानक और डरावनी स्थिति से जूझने और उज्ज्वल सम्भावना मूर्तिमान करने में इस समुदाय की सुनिश्चित भूमिका होगी।
इस समुदाय द्वारा स्थापित सभी संस्थानों में न्यूनतम दो तरह के कार्यकर्ता रहेंगे, एक स्थानीय प्रवृत्तियों को चलाने के लिए दूसरे समीपवर्ती सात गाँवों के कार्यक्षेत्र में घर-घर अलख जगाने, युग साहित्य पढ़ाने,युग चेतना पहुँचाने,तथा जन्मदिनसोत्सव आदि जैसे समारोहों के माध्यम से परिवार संस्था में नवसृजन का वातावरण बनाने वाले आयोजन करते रहने के लिए। कार्यकर्ताओं का निर्वाह महिलाओं द्वारा स्थापित धर्म-घटों के मुट्ठी फण्ड से तथा दस सूत्री कार्यक्रम चलाने के लिए पुरुषों द्वारा दस पैसा नित्य वाले ज्ञानघटों की राशि से चलते रहेंगे। बूँद-बूँद से घड़ा भरने वाली उक्ति के अनुसार जनमानस में युगान्तरीय चेतना के लिए श्रद्धा समर्थन उत्पन्न कर लेने के उपरान्त प्रज्ञा संस्थानों की अर्थव्यवस्था को सुसन्तुलित बने रहने के लिए आवश्यक किन्तु बनने में कठिन देखते हुए भी क्रम सरल से सरलतम बनता चला जायेगा। जो कार्य धनकुबेर भी नहीं कर सकते, जिस भार को उठा सकना किसी सुसम्पन्न सरकार के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता वे जनसहयोग के सहारे अनायास ही पूर होते चले जायेंगे।
सभी प्रज्ञा संस्थानों में “शिक्षा संवर्धन की, दो-दो घण्टों की तीन कक्षाएँ” नियमित रूप से चलेंगी:
पहली कक्षा प्रौढ़ों के लिए दूसरी महिलाओं के लिए तीसरी बालकों के लिए होगी।सायंकाल में स्वास्थ्य शिक्षण एवं खेलकूद, आसन प्राणायाम आदि होगा। रात्रि में नवसृजन का वातावरण बनाने वाली पौराणिक ऐतिहासिक कथा-गाथाएँ होंगी। आरम्भिक दिनों में सभी छोटे बड़े प्रज्ञा संस्थानों का यही कर्तव्य रहेगा। जैसे ही उन्हें अधिक जन-समर्थन और प्रत्यक्ष सहयोग मिलने लगेगा वैसे ही उन दस सूत्री कार्यक्रमों को स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप गतिशील किया जाता रहेगा। युगसन्धि के दूसरे वर्ष में जिन दस गतिविधियों को अग्रगामी बनाया जाना है उनमें से पाँच सृजनात्मक और पाँच सुधारात्मक हैं।
सृजनात्मक कार्यों की सूची निम्नलिखित होगी:
(1) शिक्षा विस्तार, (2) स्वास्थ्य संवर्धन (3) स्वच्छता/श्रमदान (4) गृह उद्योग (5) हरीतिमा विस्तार।
सुधारात्मक कार्यों की सूची यह होगी:
(1) नशा निवारण (2)शादियों में होने वाले अपव्यय का प्रतिरोध (3) हरामखोरी/ कमजोरी का तिरस्कार (4) फिजूलखर्ची फैशनपरस्ती की रोकथाम (5) अवांछनीयताओं का उन्मूलन।
लोकसेवियों की संख्या एवं साधनों की मात्रा में परिस्थितियों के आधार पर फेरबदल किया जा सकता है। अभी दस हैं,फिर 20 होंगे और फिर वे क्रमशः 30, 40, 50, 60 होते हुए शतसूत्री योजना तक पहुंचेंगे। हर स्तर का व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत स्थिति में रहते हुए भी यह अनुभव करेगा कि वह इस शतसूत्री योजना के कार्यक्रम में कुछ न कुछ योगदान दे सकता है। जन-जन को सृजन प्रयोजनों में लगाने से ही सुविस्तृत धरातल पर फैले हुए अनाचार अज्ञान से जूझना और सद्भाव सत्प्रयास को व्यवहार में उतारना सम्भव हो सकेगा।
युगसन्धि का प्रथम वर्ष बीजारोपण वर्ष था। इस प्रथम वर्ष को “प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना का बीज” माना गया एवं उपरोक्त कार्यक्रमों की स्थापनाओं पर जोर दिया गया। जहाँ इमारतें नहीं बन सकती थी वहाँ निजी घरों में एक कमरा प्राप्त करके उसी में प्रज्ञा मन्दिर बनाने की योजना चलाई गई है। उसे सर्वत्र अत्यन्त उत्साहपूर्वक अपनाया गया है। दो वर्ष में प्रायः 2400 प्रज्ञापीठें बनी, इस थोड़ी सी अवधि में निर्माणकार्यों को देखते हुए यह आशा बँधती है कि देश के 7 लाख गाँवों के लिए हर सात गाँव पीछे एक प्रज्ञा संस्थान का बनना और उनकी संख्या का एक लाख तक जा पहुँचना असम्भव नहीं है । समय और श्रम की समस्या आना स्वाभाविक तो होगा ही लेकिन यह कार्य अनेकों समर्पित परिजनों के द्वारा पूरा हो ही जायेगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
“युग निर्माण योजना पत्रिका का पढ़ना भी उतना ही आवश्यक है जितना अखण्ड ज्योति पत्रिका को पढ़ना।” अखण्ड ज्योति और युगनिर्माण योजना, दोनों एक दूसरे के परस्पर पूरक हैं और एक दूसरे पर निर्भर हैं। गुरुदेव इन दोनों पत्रिकाओं को मँगाने, पढ़ने और पढ़ाने में पूरी तरह से उत्साह अपनाने को कह रहे हैं।
युगसन्धि का दूसरा वर्ष “परिपोषण वर्ष” है। जो बीज पिछले वर्ष बोया गया था अब वह अंकुरित हो चला है। उसे संवारने की आवश्यकता पड़ रही है। मां के गर्भ में भ्रूण स्थिति में शिशु चुपचाप बैठा रहता है लेकिन प्रसव के उपरान्त बाहर आते ही उसके लिए दूध, कपड़ा गर्म पानी, सफाई, सुरक्षा आदि के अनेकानेक साधन जुटाने पड़ते हैं। बीजारोपण के प्रथम वर्ष की स्थापनाएँ अब अपना परिपोषण चाहती है।जिन स्वप्नों को साकार करने के लिए इन प्रज्ञाकेंद्रों की स्थापना की गई है उन्हें फलता फूलता बनाने के लिए मात्र खाद, पानी जैसे साधनों की ही नहीं बल्कि कुशल किसानों और मालियों की भी जरूरत पड़ेगी। स्मरण रखने योग्य है कि पेड़ पौधों से लेकर पालतू पशु,पक्षियों, शिशुओं,परिजनों को ही नहीं सत्प्रवृत्तियों को सींचने के लिए भी समय,मनोयोग एवं श्रम की आवश्यकता पड़ती है।
“सही मायनों में देखा जाए तो सिंचाई का वास्तविक स्वरूप यही है।”
परिपोषण के लिए खाद,पानी से ही काम नहीं चलता। साधनों की तरह संरक्षकों को अपना समयदान का सहयोग भी देना पड़ता है।
अखण्ड-ज्योति परिजनों ने सदा नवसृजन के लिए नियमित रूप से योगदान दिया है। अब बढ़ती हुई आवश्यकताओं को देखते हुए उसमें अधिकाधिक अभिवृद्धि की आवश्यकता है। युगसन्धि पर्व का जागृत आत्माओं को विशेष रूप से यह आह्वान आमन्त्रण है कि वे निर्वाह और परिवार के दो उत्तरदायित्वों में एक तीसरा “नवनिर्माण” और सम्मिलित करें। नई सन्तान बढ़ने पर साधनों के विभाजनों में उस नये सदस्य का हक भी सम्मिलित कर लिया जाता है। जो है उसी में से मिल बाँटकर नये सदस्य को भी हिस्सा दिया जाता है। जागृत आत्माओं को यही करना होगा।
“यदा-कदा दान पुण्य कर देने से काम नहीं चलेगा।”
समय और साधनों की सम्पदा को अब तीन हिस्सों में विभाजित करने की बात सोचनी चाहिए।
सृजन-प्रयोजन के लिए असंख्यों नये काम आगे आ रहे हैं। उनमें से प्रत्येक की पूर्ति प्रज्ञा परिजनों को स्वयं ही करनी होगी। जनता से चन्दा माँगने और समर्थकों से सहयोग अर्जित करने का औचित्य तो है लेकिन यह ध्यान रखने योग्य है कि “अपना उदाहरण” प्रस्तुत करने से ही जनसाधारण में उत्साह उत्पन्न किया जा सकता है। स्वयं पीछे रहा जाय और दूसरों से लम्बी चौड़ी आशा लगाई जाय तो उसमें सफलता कदाचित ही कभी कभार छोटी सी मात्रा में मिल पाती है। आदर्शवादी उत्साह उत्पन्न करने के लिए साधकों को स्वयं ही आगे बढ़ना होता है और अपना उदाहरण प्रस्तुत करके सहमत करना होता है।
आठ घण्टा,सात घण्टा,पाँच घण्टा परिवार के लिए खर्च करके 20 घण्टे वाले सूत्र को हम सबको याद रखना चाहिए। शेष चार घण्टे सृजन संवर्धन के लिए लगाने चाहिए। जिन लोगों के पारिवारिक उत्तरदायित्व पूरे हो चुकें, वे वानप्रस्थ की धर्म परम्परा अपनायें। जिनके पास गुजारे के लिए मौजूद है, अधिक कमाने की बात सोचने की अपेक्षा अर्जित से काम चलाने की माँग पूरी करने में लगायें। जिनके छोटे गृहस्थ है और परिवार के अन्य सदस्य कुछ कमा सकते हैं उन के लिए उचित यही है कि जो कमी पड़ती हो उसे सृजन योजना से लेकर अपनी समर्थता का उपयोग उस पुण्य-प्रयोजन में लगने दे, जिस पर विनाश को निरस्त करने और उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने की आशा केन्द्रित हो रही है।
युग धर्म का निर्वाह करने के लिए जागृत आत्माओं को यह कदम उठाने ही चाहिए, उठाने ही पड़ेंगे।
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जय गुरुदेव