1 अगस्त 2025 का ज्ञानप्रसाद
हम अपने साथियों से क्षमाप्रार्थी हैं कि आज शुक्रवार होने के बावजूद वीडियो कक्षा चलाने में असमर्थ हैं। इसका कारण तो पहले भी लिख चुके हैं लेकिन विस्तृत वर्णन की चर्चा कल वाले स्पेशल सेगमेंट में कर देंगे (यदि उसे कंपाइल कर पाए तो !!!!) इंटरनेट की समस्या के कारण स्पेशल सेगमेंट में परिजनों के योगदान शामिल करने में असमर्थ रहेंगे, इसके लिए भी क्षमाप्रार्थी हैं। एक बार घर पहुंच जाएं सब Streamline हो जाएगा।
आज से आरंभ हो रही नवीन लेख श्रृंखला गुरुदेव द्वारा रचित उन 34 पन्नों पर आधारित है जो अखंड ज्योति 1971 के जनवरी और फरवरी अंकों में “हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू” के शीर्षक से प्रकाशित हुए। “अपनों से अपनी बात” अधिकतर 2-3 पन्नों में समाहित होती है लेकिन 17 पन्नों के दो लेख अवश्य ही जिज्ञासापूर्ण होंगे। इसी जिज्ञासा को शांत करने के लिए हमने एकदम यह दोनों लेख सेव कर लिए और अब, आने वाले दिनों में थोड़ा-थोड़ा प्रसाद मिलने की संभावना है।
लेख शीर्षक अपने आप में ही Self-explanatory है इसलिए हमारी तरफ से कुछ भी कहना अनुचित होगा।
तो आइए विश्वशांति की कामना के साथ गुरुदेव के ही शब्दों में गुरुशिक्षा का अमृतपान करें:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
गुरुदेव बता रहे हैं:
अखण्ड ज्योति परिवार के प्रज्ञा परिजनों ने युग परिवर्तन की मशाल जलाने और ज्योति जगाने में अग्रगामी भूमिका निभाई। इस तथ्य और सत्य का पालन करने से विशाल समाज का हर व्यक्ति भलीभाँति अवगत है।
1926 को हमारे मार्गदर्शक का हमारे घर की कोठरी में दिव्य दर्शन देना एक अद्भुत अवसर था। विगत 45 वर्षों की लम्बी अवधि पर दृष्टिपात करने से इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि “अखण्ड ज्योति की गणना” लोकरंजन के लिए प्रचार विज्ञापन या उपार्जन के लिए निकलने वाली पत्रिकाओं के परिवार में नहीं हो सकती। उसका उदय,अवतरण एक सुनिश्चित मिशन के रूप में, एक लक्ष्य विशेष के लिए हुआ था। यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है कि इस पत्रिका ने इस लम्बी अवधि में “व्रतशील तीर्थयात्री” की तरह अपने यात्रा-क्रम को बिना थके, बिना डरे डगमगाये, अनेकानेक विघ्न बाधाओं को झेला और गतिशीलता को अनवरत जारी रखा है।
भागीरथी प्रयत्नों ने अदृश्य और दूरवर्ती गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतारा था।
इस गाथा का एक छोटा उदाहरण नवसृजन की प्रवृत्ति/ प्रेरणा को जन-जन के मन तक उमँगते देखने से मिल सकता है। समुद्र मंथन से चौदह रत्न निकले। खदानें खोदने से मणिमुक्तक हाथ लगे हैं। उसी घटनाक्रम का एक छोटा रूप यह है कि प्रज्ञा परिवार के परिजनों में से हजारों की संख्या लाँघ कर लाखों तक पहुँचने वाली सृजन शिल्पियों की विशालकाय चतुरंगिणी सेना, भारत को महाभारत बनाने वाले दोहरे मोर्चे पर प्राण-पण से जूझती हुई दृष्टिगोचर हो रही हैं। अनौचित्य का उन्मूलन और सृजन का संवर्धन देखने में परस्पर विसंगत लगते हैं और एक साथ कार्य करने में कठिन एवं असम्भव प्रतीत होते हैं लेकिन समय ने जब दोहरी और अनमोल जिम्मेदारी कन्धों पर रख ही दी तो उसे वहन करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग रहता ही नहीं है, और कोई विकल्प है ही नहीं।
इतिहास में इस प्रकार का भार वहन करने वाले और भी कई महापुरुष, दिव्य आत्माएं हुई हैं। परशुराम को फरसा और फावड़ा चलाने में समान कौशल दिखाना पड़ा था। उन्होंने अनाचार को निरस्त करने की तरह ही खन्दकों को समतल बनाने और मरुक्षेत्रों में उद्यान लगाने में समान अभिरुचि और तत्परता दिखाई थी। द्रोणाचार्य की पीठ पर शस्त्र और छाती पर शास्त्र लदे रहे। उन्होंने सदाशयता को सींचने और दुष्टता को निरस्त करने के अनमोल प्रयासों की संगति बिठाई समन्वित नीति अपनाई थी। अखण्ड ज्योति का प्रज्ञा परिवार उसी मार्ग पर चलते हुए, उज्ज्वल भविष्य के लक्ष्य तक जा पहुँचने के लिए समग्र साहस सँजोये बढ़ता रहा है। इस दिव्य दिशा में चलते हुए,किए जा रहे प्रयास कितने बन पड़े और कितने सफल हुए इसका लेखा-जोखा रख सकना दूरवर्ती लोगों के लिए कठिन है। मूक साधना की प्रवृत्ति और उपलब्धि का अनुमान केवल अति निकटवर्ती लोगों के लिए ही सम्भव है। जो साधक हमारे साथ इस स्थिति में विगत 45 वर्षों से जुड़े हैं, वही जानते हैं कि धर्मतन्त्र को पुनर्जीवित करने और जनमानस को उलटने की दिशा में कितनी उत्साहवर्धक सफलता मिलती चली गई है। जितना प्रयास करना पड़ा है उसकी तुलना में उपलब्धियों को नगण्य ही कहा जा सकता है।
छावनी बनाने से लेकर सैनिकों की भर्ती और शिक्षा का प्रबन्ध सामान्य समय में, स्थिर शान्तिकाल में होना है। लड़ाई छिड़ जाने पर तो एक ही बात ध्यान में रहती है: जो साधन मौजूद है उन्हीं के सहारे आक्रान्त को धकेलने और सुरक्षा को सुदृढ़ बनाने के लिए जितना सम्भव ही सके, करना चाहिए।
विगत 45 वर्षों से अखण्ड ज्योति ने कुन्ती की तरह अपने परिवार का सृजन किया,उसे सँजोया लेकिन अब योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण के नेतृत्व में, समय के आह्वान पर, महाभारत की सृजन योजना में निछावर होने के लिए तिलक लगाना और विदा करना ही एकमात्र मार्ग है। सामान्य समय और आपत्तिकाल का अन्तर तो समाधान ही होता है। एक में सामान्य निर्धारण चलता रहता है लेकिन दूसरे अवसर पर अन्यत्र से सामर्थ्य समेट कर एक ही केन्द्र पर नियोजित करना होता है। आग बुझाने और दुर्घटना से निपटने को प्राथमिकता देनी होती है भले ही उस कारण नियमित क्रियाकलापों में रुकावट ही उत्पन्न क्यों न होती हो।
युगसन्धि के प्रस्तुत 20 वर्ष (1990-2010) ऐसे हैं जिन्हें अभूतपूर्व,अनुपम,अद्भुत अप्रत्याशित कहा जा सकता है। इतिहास में खण्ड विनाश और खंड सृजन के घटनाक्रमों का ही उल्लेख मिलता है। समूची मनुष्य जाति के लिए एक ही समय जीवन और मरण का असमंजस उत्पन्न हुआ हो, ऐसा अवसर अब से पूर्व कभी भी नहीं आया। इतनी विकट समस्याएँ और इतनी विघातक विभीषिकाएं एक साथ मनुष्य के सम्मुख चुनौती बन कर एक साथ आई हो, ऐसा भूतकाल खोजने पर भी नहीं मिलता।
प्रभात काल की उदीयमान किरणें सबसे पहले पर्वतों के उच्च शिखरों पर चमकती है। धरती पर तो यह किरणें बाद में उतरती हैं। ईश्वर की सन्तुलन योजना में व्यापक अनौचित्य को निरस्त करने और सत्प्रवृत्तियों को सींचने के दोपक्षीय उपक्रम समान रूप से सम्मिलित हैं। बुद्धि, इच्छा, कामना तो हमेशा ही प्रेरणाओं का परिवहन करती रही है। उमँगें पुरुषार्थ बनकर सामने आती रही हैं। ऐसे व्यापक परिवर्तन की भूमिका निभाने के लिए महामानवों को ही अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना होता है। इसी आदर्शवादी साहसिकता के कारण अग्रिम पंक्ति के महामानव स्वयं तो धन्य बनते ही हैं लेकिन अन्य असंख्यों को उबारने का श्रेय भी पाते हैं।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से बार-बार ऐसे ही धन्य बनने और श्रेय प्राप्त करने का आग्रह,निवेदन, प्रोत्साहन का प्रयास किया जाता है। आदरणीय सुमनलता बहिन जी ने कल वाले लेख पर कुछ इसी प्रकार का कमेंट करके अपने “मन की बात” व्यक्त की थी।
गुरुदेव बता रहे हैं कि वह लोग सौभाग्यवान हैं जो इस श्रेय-प्रतियोगिता में घुड़दौड़ लगाकर, बाजी जीतकर विजयश्री को वरण करते हैं। श्रेयाधिकारी बनने के लिए सर्वोत्तम अवसर युगसन्धियों का ही होता आया है। उसे पहचानने वाले और हाथ से न जाने देने वाले ही धन्य बने हैं। हनुमान,अंगद,नल, नील बनने का सौभाग्य हर सदाशयी सेवाभावी को नहीं मिल सकता है। अर्जुन और भीम से भी अधिक कुशल बलिष्ठ समय-समय पर होते रहें है लेकिन उपयुक्त समय पर उपयुक्त भूमिका निभाकर वे जिस प्रकार धन्य बने वैसा सौभाग्य अन्यान्यों को कहाँ मिल सका। धनिकों में अशोक, हर्षवर्धन, मान्धाता, भामाशाह जैसे सम्पन्न मानव कभी और समय में न हुए हों ऐसी बात नहीं है। इन महान मानवों की गरिमा इतिहास के स्वर्णाक्षरों में इसलिए अंकित है कि उन्होंने समय को पहचाना और उपयुक्त समय पर उपयुक्त कदम उठाने का साहस जुटाया। जराजीर्ण होकर जीवित रहने अथवा मरने पर आँख मूंदते ही उत्तराधिकारियों द्वारा लाखों करोड़ों की सम्पदा हड़प लेने और उस उपलब्धि पर अधिकार जताने वालों की कमी नहीं है। आलस प्रमाद में समय बिताने वालों की,भोग विलास में समय गँवाने वालों की कहीं कोई कमी नहीं है लेकिन ऐसे दूरदर्शी विरले ही होते हैं जो निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकता जुटाने में थोड़ी सी सामर्थ्य खर्च करने के उपरान्त अपना पुरुषार्थ सत्प्रयोजनों में नियोजित करके अपना एवं असंख्यों का चिरस्थायी हित साधन करते हैं।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से “जो प्राप्त है वही पर्याप्त है” के सिद्धांत का व्यापक प्रचार किया जाता है।
दुर्व्यसनों और विग्रहों में,ललकों और तृष्णाओं में सामान्यजनों की जीवन सम्पदा गलती-जलती रहती है। इस अपव्यय की फूलझड़ी जलाने में कई कौतूहल बनाते और बाल-विनोद जैसा मोड़ मनाते देखे जाते हैं लेकिन उन असामान्यों की संख्या नगण्य जितनी होती है जो सुरदुर्लभ मनुष्य जन्म का महत्व समझते हैं और उसका उपयोग महान प्रयोजनों में करने की दूरदर्शिता अपनाते हैं। ऐसे ही थोड़े लोग उस ऐतिहासिक अवसर को समझने और पकड़ने में समर्थ होते हैं जिसमें दिव्य आह्वान उतरते और संपर्क में आने वालो के लिए अलभ्य वरदान जैसे सिद्ध होते हैं।
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धन्यवाद, जय गुरुदेव