वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

मथुरा से विदाई के समय परम पूज्य गुरुदेव के संदेश, “एक और अदभुत लेख”


अप्रैल 1971 की अखंड ज्योति में एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक “विदाई सम्मेलनों के लिए आमंत्रण और प्रतिबंध” था। “अपनों से अपनी बात” की अति लोकप्रिय श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित हुए इस लेख को आधार बनाकर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से दो छोटे-छोटे लेख पहले ही प्रस्तुत किए जा चुके हैं। आज उसी कड़ी का तीसरा एवं अंतिम लेख है।
पहले दो लेखों की तरह, आज के लेख में भी इतना ज्ञान और मार्गदर्शन समाहित है कि जिसने कुछ भी मिस कर दिया, सच में उसका दुर्भाग्य ही होगा।
गुरुदेव स्वयं लिख रहे हैं कि बीच-बीच में आने वाले परिजन वह लाभ न उठा पाएंगे जो बाकी सब उठा रहे हैं। हमारे आदरणीय सहकर्मी सरविंद पाल जी पहले से ही “कभी कभार आने वाले साथियों” का आकर्षक विशेषण प्रयोग करके बता रहे हैं कभी कभी लेख पढ़ने से वोह बात नहीं बनेगी। सभी लेख एक दूसरे के साथ कनेक्टेड होते हैं।
साथियों से अनुरोध है कि लेख को ध्यानपूर्वक पढ़कर गुरुदेव से संपर्क स्थापित करें, इसीलिए आपके अमूल्य समय को ध्यान में रखते हुए, हम आपको शान्तिपाठ के साथ यहीं छोड़कर जाते हैं:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥  



विदाई का वियोग हमारी भावुक दुर्बलता हो सकती है या स्नेहसिक्त अंतःकरण की स्वाभाविक प्रक्रिया। जो भी हो, हम उसे इन दिनों लुप्त करने का यथासम्भव प्रयत्न कर रहे हैं। मन की मचलन का समाधान कर रहे हैं। गत एक वर्ष से देशव्यापी दौरे करके, परिजनों से भेंट करने की अपनी आन्तरिक इच्छा को एक हद तक पूरा किया है । अब विदाई सम्मेलन बुलाकर एक बार, अन्तिम बार जी भरकर अपने परिवार को देखेंगे। अपने स्मृति पटल पर आँखों के कैमरे से प्रियजनों की तस्वीरें फिर खींच ले जाना चाहते हैं, जिससे जब एकान्त में मन मचले तो उन मधुर चित्रों को देख कर अपनी छाती ठण्डी कर लिया करेंगे। “प्रेम के साथ अनुदान की स्वाभाविक वृत्ति जुड़ी है,ऐसा कहना गलत न होगा।” स्नेह हमेशा सेवा और  सहायता के रूप में विकसित होता है। हमें अपनी आत्मीयता की गहराई और सचाई सिद्ध करने के लिए स्वजनों द्वारा समय-समय पर दिये गये आत्मिक और भौतिक अनुदानों का ब्याज समेत ऋणभार चुकाने के लिए अगले दिनों बहुत कुछ करना है। इन दिनों स्वल्प सामर्थ्य से हम इच्छित सेवा सहायता कर सकने में सफल नहीं हो रहे हैं। इस कमी और लज्जा को अगले दिनों पूरा कर देंगे। हम लाख जन्मों में भी ऐसे वैरागी न हो सकेंगे कि  अपने प्रति सद्भावना आत्मीयता रखने वालों के सौजन्य को भुला दें, उन्हें स्मरण न करें, संचित आत्मीयता खो दें और सेवा सहायता करने की, स्नेह वात्सल्य की मनोवृत्ति को बदल दें। यदि ऐसी सूखी योगसाधना ही करनी पड़ी तो कहेंगे यह अपने वर्तमान ढाँचे को बदलने जोड़ने और नष्ट किये बिना सम्भव नहीं। सो हे, गुरुदेव,यदि हमें ऐसी ही नीरस तपश्चर्या करनी है और रूखी मनोभूमि बनानी है तो वर्तमान आस्तित्व को पूरी तरह चूर-चूर करके, उससे कोई नई चीज बनाइये। तब वह नई कलेवर  शायद उस तरह की “शुष्क साधना” कर सके। इस अवतरण  का तो रोम-रोम स्नेह ममता से सराबोर ही है, वर्तमान काया को सारा उल्टा किया गया तो फिर टूट कर बिखर जायगा। न अपने काम का रहेगा न किसी दूसरे के काम का। हमारा  समर्पण स्वीकार करने वाला हमारी इस दुर्बलता को जानता है और विश्वास है कि अपनी सहज सहृदयता से इस गधे पर इतना वजन न लादेगा जिससे उसकी कमर ही टूट जाय। स्नेहसिक्तता हमसे छिनी तो रहेंगे तो उस अपने मार्गदर्शक के ही,करेंगे तो उसी के निर्देश का पालन,चलेंगे तो उसी के मार्ग पर लेकिन अपनी मौलिक विशेषता खोकर निर्जीव जैसे जायेंगे। फिर शायद अपना अस्तित्व ही स्थिर रखना हमें भारी पड़ जायगा। 
विश्वास है कि हमें अपनी भावी तपश्चर्या की अति उग्रता और कठोरता के बीच भी इतनी छूट रहेगी कि स्वजनों से स्नेह सद्भावों का आदान प्रदान करते रह सकें। हमारे लिए इतना भी बहुत है। इतनी सरसता बनी रही तो हम वन पर्वत हिम कंदराओं की नीरवता सहन कर लेंगे और शरीर तथा मन को जितना भी अधिक तपाना पड़े, उन उष्णता को धैर्यपूर्वक पचा लेंगे। हमारी विस्मृति किसी घनिष्ठ को भुला न दे इसलिये विदाई सम्मेलन में प्रायः सभी स्वजनों को आग्रह पूर्वक अन्तिम भेंट के लिए आमंत्रित किया है। उन दिनों गर्मी अधिक रहेगी। आगन्तुकों को तम्बुओं में ठहराना पड़ेगा और कष्ट रहेगा लेकिन उनके न आने से हमें जो तपन सहनी पड़ेगी सो अपेक्षाकृत हमें अधिक भारी पड़ेगी और हमारा वह भारी मन लेकर हिमालय के लिए प्रयाण करना उन परिजनों को भी निरन्तर पश्चाताप जैसा कष्ट देता रहेगा। इसलिये उपयुक्त यही समझा गया कि ऋतु कष्ट का जोखिम उठाने और उस अवसर की उपेक्षा न करने के लिये अनुरोध कर ही दिया जाय।
17, 18, 19, 20 जून का यह विदाई सम्मेलन है। 16 की शाम तक सब लोग मथुरा पहुँच जायें ताकि 17 के प्रातःकाल से आरम्भ होने वाले हमारे स्नेह सान्निध्य का आत्मिक उद्गारों को सुनने का, जीवन क्रम की रहस्यपूर्ण घटनाओं को जानने समझने का अवसर पूरी तरह मिल जाय। बीच-बीच में आने-जाने वाले वह लाभ न उठा सकेंगे। 20 की मध्याह्नोत्तर हम चले जायेंगे। माताजी भगवती देवी भी उसी दिन मथुरा छोड़ देंगी। हम दोनों का भी साथ टूट जायगा। आगन्तुक 20 को दोपहर बाद जा सकेंगे। इन पंक्तियों में अखण्ड ज्योति परिजन अपने लिए विशेष निमंत्रण नोट कर ले और यदि बिलकुल ही असंभव न हो तो प्रयत्न करें कि उस अवसर पर किसी तरह मथुरा पहुँच ही जायें।
यह सम्मेलन हमारी अनुभूतियों का विकेन्द्रीकरण है। हमें कहना बहुत है,बताना बहुत है और देना बहुत है। वाणी से शायद उतने उफान को उड़ेलना सम्भव न हो सके। वाणी से शायद उतने उफान को उड़ेलना सम्भव न हो सकें लेकिन हम अंतरंग की प्राण शक्ति को उभार कर हर आगन्तुक के अन्तस्तल तक प्रवेश करेंगे और जहाँ जितना जिस स्तर पर बीजारोपण कर सकना सम्भव होगा, पूरी सावधानी के साथ करेंगे। इसलिए वे चार दिन निस्संदेह बहुत महत्व के होंगे। जहाँ हम अन्तिम बार अपनी आत्माएं तृप्त करने और छाती ठण्डी करते हुए हलका करेंगे वहाँ आगन्तुक भी कुछ ऐसा अनुभव प्राप्त करके जायेंगे जो उनके लिए एक अमिट और सुखद स्मृति बन कर चिरकाल तक विद्यमान बना रहेगा। हो सकता है किसी को उप प्रकाश से अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकने की दिशा भी मिल जाये। फिर कभी वैसा अवसर न आने के कारण निस्संदेह यह सम्मेलन असाधारण और अनुपम ही होगा।


समापन
आने वाली लेख श्रृंखला बहुत ही उत्तम कोटि की है, Stay tuned.
हम अपने उन सभी साथियों का हृदय से धन्यवाद करते हैं जो हमें ज्ञानप्रसाद पोस्ट करने के लिए अधिक स्ट्रेस न लेने का आग्रह कर रहे हैं लेकिन क्या करें गुरु साहित्य में ही तो हमारी जान बसी है। 


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