29 जुलाई 2025 का ज्ञानप्रसाद
हम अपने साथिओं को अवगत करते आ रहे हैं, अपडेट करते आ रहे हैं कि क्रूज पर इंटरनेट की स्थिति कुछ विश्वसनीय नहीं है, बेटे ने 1000 डॉलर देकर एक पैकेज ख़रीदा तो है लेकिन कुछ कहा नहीं जा सकता। फिर भी हमारे प्रयास से आज का छोटा सा ज्ञानप्रसाद लेख संभव हो पाया।
वर्ष 1971 परमपूज्य गुरुदेव के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण समय था। मथुरा को विदाई देनी, शांतिकुंज में मात्र 10 दिन रह कर, हिमालय प्रवास की ओर चले जाना, वंदनीय माता जी का अकेले सारा प्रबंध देखना आदि कुछ ऐसे क्षण थे जिनका वर्णन अनेकों पुस्तकों में समय-समय पर होता आया है। लेकिन सबसे बड़ा इशू गुरुदेव का अपने असंख्य परिजनों से बिछुड़ने का था। मिलन और बिछुड़न का घड़ी का वर्णन अनेकों कवियों/लेखकों आदि ने किया है।
अप्रैल 1971 की अखंड ज्योति में प्रकाशित लेख पर आधारित, आज के लेख में गुरुदेव द्वारा वर्णित अपने ह्रदय की व्यथा अति मार्मिक है। ऐसे ही मार्मिक लेख हमें ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथिओं के लिए लिखने की प्रेरणा देते हैं जब हम अपना दिल चीर का रख देते हैं।
आज के लेख में गुरुदेव ने कर्म की प्रधानता की बात की है। उसी सन्देश का पालन करते हुए, हमने आज से प्रत्येक ज्ञानप्रसाद के साथ गुरुदेव की मात्र 1 मिंट की वीडियो अटैच करनी आरम्भ की है। हमारे नियमित साथिओं के लिए शायद यह वीडियो इतनी लाभदायक न हों लेकिन कभी-कभार आने वाले,सैर-सपाटे वाले साथिओं को शायद समझ आ जाये कि हमारे गुरुदेव हमसे क्या आशा रखे हुए हैं। Main points वाली स्लाइड लगाने का प्रचलन बंद करना ही उचित रहेगा।
तो हमारे समर्पित साथिओ आइये विश्वशांति की कामना के साथ आज के लेख का शुभारम्भ करें :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
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परम पूज्य गुरुदेव बता रहे हैं : इसी वर्ष जून 1971 वाला हमारा हिमालय प्रवास एक ऐसी विधि व्यवस्था है जिसे टाला नहीं जा सकता। यह प्रवास कोई सनक, मनोरंजन, जिद या अड़ियल प्रवृति के वशीभूत नहीं है कि हम मिशन के इतने गतिशील कार्य को अधूरा छोड़कर ऐसे ही हिमालय पर्वतों में अपने घर दौड़े चले जायेंगें । हम सदा से “कर्म को प्रधानता देते” रहे हैं और अपना अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह बताते रहे हैं कि “कर्म के माध्यम से ही व्यक्ति और समाज का, लोक और परलोक का हित साधन हो सकता है।”
हमने सदैव सर्वसाधारण को प्रेरणा दी है कि उपासना को कम और जीवन साधना को अधिक महत्व दिया जाए। अगले दिनों हमें जो कदम उठाने पड़ रहे हैं, हिमालय में अज्ञात एकान्त साधना के लिए जाना पड़ रहा है। कोई भी सोच सकता है कि हम अपनी पिछली मान्यताओं और शिक्षाओं के विपरीत आचरण करने जा रहे है लेकिन ऐसा है नहीं।
“नवनिर्वाण के महान् अभियान” की गतिशीलता में हमारा कर्तव्य इतना घुल मिल गया है कि लोगों को यह लग सकता है कि इस अभियान से व्यक्तित्व एवं मार्गदर्शन हट जाने से मिशन को क्षति पहुँचेगी और शिथिलता आ जायगी। ऐसी स्थिति में नवनिर्माण की अभिरुचि रखने वाले प्रत्येक भावनाशील व्यक्ति को हमारा हिमालयवास दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण लग सकता है। हमारे असंख्य परिवारजन अधिक ज़ोर देकर कह सकते हैं कि हम यह विचार छोड़ दें और जिस तरह अब तक काम करते रहे हैं उसी तरह आगे भी करते रहें।
परिजनों की चिन्तन प्रक्रिया का मूल और महत्व हम समझते हैं। यदि जीवन का शेष समय इसी अभ्यस्त क्रियाकलाप में लग जाता तो हमें सुविधा ही रहती और सरलता भी पड़ती। हम अपनी कमजोरी को छिपाते नहीं, हमारा अंतःकरण अति भावुक मोह और ममता से भरा पड़ा । जहाँ कहीं भी थोड़ा सा स्नेह मिलता है, हमारा अंतःकरण मिठास को तलाश करने वाली चींटी की तरह रेंगकर वहीँ जा पहुँचता है। स्नेह और सद्भाव की, प्रेम और ममता की मधुरिमा हमें इतनी अधिक भाती है कि शहद में सनी मक्खी की तरह, हमारी स्थिति को छोड़ने की रत्ती भर भी इच्छा नहीं होती। हमें जिन लाखों परिजनों का स्नेह-सद्भाव मिला है, जी चाहता है कि उस मिठास का आनन्द हज़ार जन्म लेकर, हज़ार शरीर धारण कर, हज़ार युग तक लेते रहें। प्रेमी के लिए मिलन का आनन्द बड़ा सुखद होता है लेकिन बिछुड़ने का असहनीय दर्द उसे अंदर से ही तोड़ कर रख देता है। इस बिछुड़न का आभास केवल उसे ही हो सकता है जिसे प्रेम करने और प्रेम पाने का अवसर मिला हो। अपने प्रियजनों के बिछुड़न की घड़ी कितनी मर्मान्तक और हतप्रभ कर देने वाली होती है उसे हम ही जानते हैं। वियोग की इस घडी में प्रेमी को लगता है कि कोई उसका कलेजा ही चीरकर, निकाल लिये जाता है। भगवान ने हमें न जाने क्यों इस संसार में स्नेहसिक्त अन्तःकरण देकर भेजा जिसके कारण हमें जहाँ प्रिय पात्रों के मिलन की थोड़ी सी हर्षोल्लास भरी घड़ियाँ उपलब्ध होती हैं वहीँ उससे अधिक वियोग/बिछुड़न के बारम्बार निकलने वाले आँसू बहाने पड़ते हैं। इन दिनों भी हमारी मनोभूमि इसी दयनीय स्थिति में पहुँच गई है। मिशन के भविष्य की बात एक ओर उठाकर भी रख दें तो भी प्रियजनों से सदा के लिए बिछुड़ने वाली बात हमें बहुत ही कष्टकर बन कर चुभ रही है। अच्छा होता बीमारी में पड़े रहते और मस्तिष्क मूर्च्छित होकर पड़े रहने की स्थिति में इस काया को छोड़कर संसार से चले जाते। तब उसी अर्धमूर्छित स्थिति में प्राण प्रिय परिजनों से बिछुड़ने का यह कष्ट न सहना पड़ता जो विदाई की घड़ी निकट आते जाने पर निरन्तर घट नहीं बढ़ ही रहा है।
इस स्थिति को हमारे मोह ममता की पराकाष्ठा ही समझा जाना चाहिए कि चलते समय किसी से न मिलने और चुपचाप प्रयाण कर जाने के अपने पूर्व निश्चय को बदलना पड़ा। हमारा ह्रदय मानता ही नहीं है। बेतरह मचलता है और चाहता है कि एक बार आँख भरकर प्रियजनों को देख लेने का अवसर यदि मिलता है तो उस लाभ को क्यों छोड़ा जाय? यों तो हम यह भी जानते हैं कि चलते समय अधिक मोह ममता बढ़ने पर फोड़ा और अधिक दर्द करेगा और अगले दिनों हमें अपने को सँभालने में बहुत अधिक अड़चन पड़ेगी। फिर भी भीतरी मचलन को देखिये न कि हमें इसके लिए मजबूर कर दिया कि चलते समय विदाई सम्मेलन बुला लें और जी भरकर उन स्वजनों को देख लें जिनके साथ चिर अतीत से हमारे अति मधुर सम्बन्ध जुड़े चले आ रहे हैं और निर्बाध गति से आगे भी चलते रहेंगे।
जिस स्तर की अपनी मनोभूमि है, उसमें भक्ति साधना की बात जमती थी, कर्म का ढर्रा भी चलता रह सकता था लेकिन योग साधना तपश्चर्या भी एकाकी वातावरण में हमारे उपयुक्त न थी। 60 वर्ष का जनसंपर्क और लोकमंगल के क्रिया कलाप चलाते रहने वाला ढर्रा अब इतना पास में आ गया है और अनुकूल पड़ने लगा है कि उसे छोड़ते बदलते अब काफी अड़चन मालूम पड़ती है। शरीर भी ढीला हो चला और वह तपश्चर्या की कठोर परिस्थितियों से अकचकाता है। इतना सब होते हुए भी हम रुक न सकेंगे, जाने की विवशता को टाला न जा सकेगा। 20 जून को हम निश्चित रूप से चले जायेंगे।
इसका कारण स्पष्ट है। 45 वर्ष पूर्व, 1926 के वसंत वाले दिन,जब हमारे गुरुदेव, हमारे मार्गदर्शक हमारी कोठरी में आये थे तो हमने उसी समय अपना शरीर, मन, मस्तिष्क, धन,अस्तित्व अहंकार सब कुछ उनके हाथों बेच दिया था। उन्होंने हमारा शरीर ही नहीं,हमारा अन्तरंग भी उन्हें बेच दिया था। अब हमारी अपनी कोई इच्छा शेष नहीं रही। भावनाओं का समस्त उभार उसी “अज्ञात शक्ति” के नियन्त्रण में सौंप दिया है। आरम्भ में यह समर्पण हमें बहुत महंगा और कष्टकारक लगा। हमें दिखा कि इस व्यापर में घाटा ही घाटा है लेकिन जैसे ही वस्तुस्थिति समझ में आई, हमें लगने लगा यह घाटे का नहीं बल्कि असंख्य गुना लाभ का व्यापार है। जिस गुरु के हाथों हमने अपने को,शरीर और मन को बेचा, बदले में उसने अपने को हमारे हाथ बेच या सौंप दिया। जिस गुरु के चरणों में हमारी तुच्छता समर्पित हुई उसने अपनी सारी महानता हमारे ऊपर उड़ेल दी।
इसके आगे का वर्णन अगले लेख में करेंगें, जय गुरुदेव