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धरती पर स्वर्ग का अवतरण कैसे विश्वसनीय है ?

अपने साथिओं से क्षमाप्रार्थी हैं कि आज का लेख,कल वाले लेख का  भाग 2 न होकर एक Independent लेख है। लेख के शीर्षक बता रहा है कि गुरुदेव की “धरती पर स्वर्ग के अवतरण” की आशा एवं हमारा अनुसन्धान प्रयास इस दिशा में कितने विश्वसनीय हैं। लेख का अंत “एक विश्व,एक मानवता” के सन्देश से किया गया है,जिसे प्रतक्ष्य देखने के लिए आदरणीय चिन्मय जी की वीडियो संलग्न की है। इसीलिए आज Main points स्लाइड एवं प्रज्ञागीत नहीं अटैच किया गया है। 

आज का लेख इस श्रृंखला का एवं इस “समय” का अंतिम लेख है, इसका कारण शनिवार के विशेषांक में बताने की योजना है। 

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आज के युग में  धन, शिक्षा, और साधनों की प्रचुर मात्रा में अभिवृद्धि हुई है। यदि उसका सदुपयोग सम्भव हुआ होता तो इतनी साधन-सम्पन्न जनता स्वर्गीय सुख का आनन्द ले रही होती लेकिन हो इसके ठीक उलट ही रहा है। बढ़ती हुई सम्पदा ही विपत्ति का कारण बनती चली जा रही है। 

मानव जीवन का हर पक्ष, समाज का हर क्षेत्र इतना कलुषित हो रहा है कि घुटन में प्राण ही निकल रहे हैं। बाहर जितना अधिक वैभव, भीतर उतना ही दारिद्रय । बाहर जितना ज्ञान, भीतर उतना ही अन्धकार। इतना बनावटीपन और पाखण्ड शायद ही इतिहास में कभी देखा हो। मानवी महानता तो एक प्रकार से पलायन ही करती चली जा रही है। नैतिकता की,मानवता की कसौटी पर खरे सिद्ध होने वाले लोग दीपक लेकर ही तलाश किये जा सकते हैं। लगता है नैतिक मूल्यों की समाप्ति का दिन आ पहुँचा। 

इन परिस्थितियों में सर्वत्र यह रोष, आक्रोश, असन्तोष, विक्षोभ,दुःख,दरिद्रता, रोग, शोक, क्लेश, कलह का दुर्भाग्यपूर्ण वातावरण छाया दिखे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।

विज्ञान की प्रगति इस युग की अभूतपूर्व उपलब्धि है। प्रकृति की शक्तियों को हाथ में लेने की क्षमता शायद ही कभी इतनी बड़ी मात्रा में मनुष्य के हाथ लगी  हो। प्रगति  दोधारी तलवार है। इससे जहाँ स्वर्गोपम सुख-शान्ति प्राप्त की जा सकती है वहीँ  ब्रह्माण्ड के इस अप्रतिम सुन्दर ग्रह को पल में स्वाहा जा सकता है। दुष्ट मानव उसी दिशा में बढ़ रहा है। मानवता के विनाश के लिए मनुष्य ने परमाणु अस्त्रों  के जितने  बड़े अम्भार संजोए हैं उनसे सभी भलीभांति परिचित हैं।

प्रस्तुत दुर्बुद्धि के बाहुल्य को देखते हुए यह असम्भव नहीं कि इस बारूद में कोई पागल किसी भी क्षण एक छोटी सी चिंगारी गिरा दे और ईश्वरीय अरमानों से सँजोई, सींची हुई दुनिया क्षण भर में धूलि कण में परिवर्तित हो जाए।विश्व का ऐसा दुःखद  अन्त काल्पनिक नहीं है। वर्तमान परिस्थितियों में उस स्तर का खतरा पूरी तरह मौजूद है। जीवित रहते हुए भी इस धरती के निवासी दिन-दिन अधिक दयनीय दुर्दशा से, नारकीय जलन में रुदन करने भर के लिये ही शेष रहेंगे।

ईश्वर को ऐसी स्थिति किसी भी प्रकार मंजूर नहीं होगी। बच्चों को बारूद से खेलने की छूट नहीं दी जा सकती। 

महाकाल ने इस अवस्था को व्यवस्था में पलटने के लिए अपना शस्त्र उठा लिया है। उसकी प्रत्यावर्तन प्रक्रिया चल पड़ी है। हम साँस रोक कर देखें कि अगले दिनों क्या होता है। युग परिवर्तन कैसे होता है। दुनिया कैसे उलटती है। असम्भव लगने वाला प्रसंग कैसे सम्भव बनता है। मनुष्य को बदलना ही पड़ेगा। इच्छा से भी और अनिच्छा से भी। यह रीति-नीति देर तक नहीं चल सकती। युग परिवर्तन एक निश्चित तथ्य है। उसके बिना और कोई विकल्प है ही नहीं। इस परिवर्तन के लिए अब अधिक समय प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। इन दिनों अन्तरिक्ष में चल रही हलचलें, स्पंदन अगले ही दिनों साकार रूप धारण करेंगी, हम इन्हीं आंखों से एक ऐसी महाक्रान्ति का दर्शन करेंगे जिसमें सब कुछ उलट-पुलट करने की सामर्थ्य भरी होगी।

मनुष्य में अपना भला-बुरा सोचने की सामर्थ्य है। इन दिनों सारे विश्व को गम्भीरता पूर्वक सोचना पड़ रहा है कि ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में मानव के  बढ़ते हुए चरण किस दिशा में अग्रसर किये जायें? निस्सन्देह इसका उत्तर विनाश नहीं विकास ही हो सकता है। भौतिक विकास से लाभान्वित होना तभी सम्भव है जब आत्मिक विकास की आवश्यकता पूर्ण की जाय। आज उत्कृष्ट वर्ग का चिन्तन इसी दिशा में चल रहा है। जिनकी चेतना में दिव्यता का तनिक भी प्रकाश उगा है उन सब महामानवों के भीतर एक ही स्तर की विचार तरंगें उमड़ रही हैं, घटायें घुमड़ रही हैं एवं  बिजली चमक रही है। अब घनघोर वर्षा में अधिक विलम्ब नहीं है। विश्व मानव का उत्कृष्ट चिंतन जब सक्रिय रूप धारण करेगा, सृजन की शक्ति मेघ बनकर बरसेगी तो आज की तपन कल जल-थल को एक करने वाले सुषमा,शीतलता और हरीतिमा का दृश्य ही चारों को बिखरा दिखाई देगा। 

भावनात्मक स्तर पर बदला हुआ मनुष्य, प्रस्तुत परिस्थितियों में समग्र परिवर्तन उपस्थित करेगा। देखने में शरीर, मकान, नदी, पर्वत, सब यहीं पर रहेंगे लेकिन इन कलेवरों के अंतर्गत प्राण दूसरा ही होगा। ऐसी स्थिति आते ही  लोग अपने दुःख से पड़ोसी के दुःख को और अपने सुख से दूसरों के सुख को कम नहीं अधिक ही मानेंगे। तब संकीर्ण स्वार्थपरता के लिए चिन्तन न होगा, हर व्यक्ति यही सोचेगा कि जिस समाज के अनुदान से उसका व्यक्तित्व विनिर्मित और विकसित हुआ है उसे सुविकसित समुन्नत बनाने के लिए अधिक से अधिक योगदान करना चाहिए। ऐसी मनःस्थिति में हर मनुष्य स्नेह और सौजन्य का प्रतीक होकर रहेगा। शालीनता और सज्जनता उसकी नीति होगी। लोग अधिकार के लिए नहीं लड़ेंगे बल्कि कर्त्तव्यपालन में कौन अग्रणी रहा इसकी प्रतिस्पर्द्धा करेंगे। तब मनुष्य ही मनुष्य का शत्रु नहीं, मित्र बनकर रहेगा। एक दूसरे को सन्देह, अविश्वास और आशंका की दृष्टि से नहीं देखेंगे। एक दूसरे पर विश्वास करके चलेंगे भी और उस मान्यता की यथार्थता भी सिद्ध करेंगे। न कटुता की आवश्यकता पड़ेगी न कर्कशता की। न्याय और विवेक की प्रधानता के कारण न कहीं अनैतिकता दिखाई देगी और न कहीं के लिए स्थान रहेगा। लोग सीधा-सादा सरल और हर्षोल्लास भरा जीवन जियेंगे।

आज मनुष्य की 75 प्रतिशत  शक्तियाँ ध्वंस के साधन एकत्रित करने में लगी हैं। असन्तोष और अविश्वास के कारण जनसहयोग जुट नहीं पा रहा, आशंका और आत्मरक्षा की चिन्ता फूँक-फूँक कर कदम धरने को कहती है। इन जाल-जंजालों  में जकड़ा हुआ मनुष्य कुछ कर नहीं पाता। साधनों को सृजन में लगाया जा सकना सम्भव ही नहीं हो पा रहा। 

जब ऐसी  कठिनाईयाँ न रहेंगी तो आज का ज्ञान-विज्ञान सृजन में लगेगा। सुख- सुविधाओं के साधन बढ़ायेगा। प्रकृति के गर्भ में विपुल सम्पदा भरी पड़ी है यदि मानवी पुरुषार्थ उसका सदुपयोग सीख ले तो कोई कारण नहीं कि हर मनुष्य को,हर प्राणी को,सुख-शान्ति के साथ रह सकने योग्य विपुल साधन उपलब्ध न हो जायें।

जब युद्ध उपकरणों में लगे हुए विपुल साधन,प्रचुर सम्पदा, प्रखर बुद्धि और करोड़ों  मानवों की प्रचण्ड शक्ति उस निरर्थक झंझट का परित्याग कर सुख-संवर्धन की दिशा में प्रयुक्त होगी तो न अभावों का अस्तित्व ही रहेगा और न ही दरिद्रता  के दर्शन होंगे। चिन्ता और ऊंच-नीच  की जलन से जब बुद्धि को छुटकारा मिलेगा तो वह उस स्तर पर सोचेगी जिससे मनुष्य की गरिमा में चार चाँद लगें। इस धरती के जब 350 करोड़ (1972 की विश्व जनसँख्या) निवासी परस्पर स्नेह, सहयोग के साथ रहेंगे और उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व में संलग्न रहेंगे तो कोई कारण नहीं कि कल्पना किए गए  स्वर्ग से बढ़ कर सुख-शान्ति भरी परिस्थितियाँ इस धरती पर दृष्टिगोचर न होने लगें।

इन परिस्थितियों को समीप लाने के लिए मानवी और अति मानवी शक्तियाँ इन दिनों जिस तत्परता के साथ सक्रिय हो रही हैं, उन्हें देखते हुए यह विश्वास किया ही जाना चाहिए कि नवयुग के अवतरण में न तो अविश्वास का कोई कारण है और न ही देर तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता है।

आज के लेख का समापन उन पाठकों के लिए एक अदभुत आशा की किरण लेकर आया है जो “शंकित दृष्टिकोण” से ग्रस्त हैं कि इस मारामारी के समय में स्वर्गीय भविष्य की कल्पना कैसे की जा सकती है। जब विश्व के 9 देश परमाणु शस्त्रों से दूसरों को भयभीत कर रहे हैं तो स्वर्गीय भविष्य की आशा करना कितना अविश्वसनीय ही प्रतीत होता है। 

चार दिन की सटीक चर्चा के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि स्वर्गीय वातावरण की आशा रखना न केवल संभव है, बल्कि मानव चेतना, तकनीकी प्रगति और आध्यात्मिक जागरूकता के आधार पर यह आशा काफी हद तक यथार्थवादी (Realistic) भी है।

निम्नलिखित तथ्य इस आशावादी धारणा को समझने में सहायक हो सकते हैं :  

1. साइंस और टेक्नोलॉजी निरंतर उन्नति कर रहे हैं। AI, चिकित्सा, प्राकृतिक ऊर्जा, शिक्षा और संचार के माध्यम से लोग जागरूक हो रहे हैं।

2.वैश्विक स्तर पर सामाजिक सुधार, मानव अधिकार और Inclusiveness  अर्थात सभी को साथ लेकर चलने की प्रवृति  बढ़ रही है।

3.पर्यावरण के लिए सस्टेनेबल डेवेलपमेंट पर विचार व्यापक होता जा रहा है।

1. “स्वर्ग” का अर्थ शांति, प्रेम, सहयोग, और प्राकृतिक संतुलन है। यह एक आंतरिक और सामाजिक अवस्था है।

2.ध्यान, योग, और अध्यात्म के बढ़ते अभ्यास से लोगों में आत्मिक शुद्धता और करुणा का विकास हो रहा है।

3.नई पीढ़ियाँ अधिक सम्वेदनशील और पर्यावरण-सजग हो रही हैं।

4.तकनीक के सहारे हम प्रकृति के अनुकूल जीवनशैली की ओर बढ़ रहे हैं।

अनेकों चुनौतियों के बावजूद नई चेतनासंपन्न व्यवस्थाएं जन्म ले रही हैं। बाहरी प्रगति के साथ आंतरिक सुधार हो रहा है। विज्ञान और आध्यात्म का बैलेंस बन रहा है। व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर लोग जागरूक,दयालु, और जिम्मेदार बन रहे हैं। यह सच है कि  परमाणु शक्ति दोधारी तलवार है।  यदि गलत हाथों में चली जाए  तो हिरोशिमा-नागासाकी जैसा विनाश लाती है लेकिन यदि सही हाथों में जाये तो फ्रांस का उदाहरण स्थापित हो सकता है जहाँ 70 प्रतिशत बिजली परमाणु ऊर्जा से ही बनती है,अनेकों देश  चिकित्सा, और अंतरिक्ष अनुसंधान जैसे रचनात्मक कार्यों में व्यस्त हैं। 

वैश्वीकरण (Globalization), चेतना का समन्वय और तकनीकी एकता  जैसे रूपों में देखा जा सकता है कि  सारा विश्व “एक हो रहा है”, लेकिन यह एक जटिल और बहुआयामी प्रक्रिया है इंटरनेट और संचार तकनीक ने दुनिया को एक “ग्लोबल गाँव” में बदल दिया है। आज हर देश दूसरे से आर्थिक, तकनीकी और सांस्कृतिक रूप से जुड़ा है। जलवायु परिवर्तन, युद्ध, गरीबी जैसे मुद्दे अब संपूर्ण मानवता के मुद्दे हैं। “हम सब एक हैं” की भावना धीरे-धीरे नीति, शिक्षा और धर्मों में उभर रही है। “Black Lives Matter”, ग्लोबल क्लाइमेट स्ट्राइक जैसे संगठन बता रहे हैं कि  लोग अब “विश्व नागरिक” बन रहे हैं। विश्व भर में आध्यात्मिक विचार एक बार फिर से   “वसुधैव कुटुम्बकम्” की गुहार लगा रहे हैं।

अड़चनें अभी भी बहुत हैं लेकिन तकनीकी जुड़ाव के साथ-साथ सांझी मानवता भी जागृत हो रही है। सह-अस्तित्व(Co-existence),करुणा, और सत्य के मूल्यों को अपनाकर “एक विश्व, एक मानवता” का स्वप्न साकार हो रहा है।

समापन,जय गुरुदेव 


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