वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आत्मबल को प्रखर करने के सरल उपाय 

आत्मबल का विषय कठिन,जटिल होने के बावजूद इतना रोचक है कि यदि सारा जीवन भी विषय का अध्यन करते रहें तो भी अनंत ही प्रतीत होता है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के ही मंच से इस विषय को बार-बार दोहराया गया है। मार्च 2025 में ही आत्मबल के  विषय पर तीन विस्तृत लेख लिखे थे, कमैंट्स/काउंटर कमैंट्स के माध्यम से विस्तृत चर्चा भी हुई थी। औरों का तो मालूम नहीं, कमैंट्स/काउंटर कमैंट्स की प्रक्रिया से हमें बहुत ही ज्ञान प्राप्त होता है । तभी तो हम कहते रहते हैं कि जिन साथिओं के पास पूरा लेख पढ़ने का समय नहीं है,पूरे लेख पढ़ने की रूचि नहीं है, कम से कम विद्वान साथिओं के श्रम का सम्मान करते हुए कमैंट्स ही पढ़ लिया करें। 

गुरुदेव के ज्ञान को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने की दृष्टि से कुछ ही दिन पूर्व एक और नया प्रयोग किया है। इस प्रयोग के अंतर्गत प्रत्येक ज्ञानप्रसाद लेख के साथ, लेख के Main points दर्शाती एक रंगीन स्लाइड संलग्न करनी आरम्भ की है। हो सकता है इसके आकर्षण से ही कोई कुछ सीखने को आ जाये।  इंस्टेंटबाज़ी के युग में,जहाँ सब कुछ इंस्टेंट कॉफी बन चुका  है, गुरुकार्य के लिए हमें भांति भांति के प्रयास करने पड़ते हैं। 

“स्वयं को जानने” से आरम्भ होकर, आत्मबल पर समाप्त होने वाली लेख श्रृंखला का आज समापन तो हो रहा है लेकिन रोचक होने के कारण कब फिर से शुरू हो जाये, कुछ भी कहना संभव नहीं है।

आज के लेख के साथ मात्र 8 मिंट की प्रेरणादायक वीडियो अटैच की है जो लगभग हम सभी के लिए बहुत ही लाभकारी हो सकती है। 

इन्हीं शब्दों के साथ, विश्वशांति की कामना करते, आज के ज्ञानप्रसाद का  अमृतपान करते हैं :    

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

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यह सर्वथा अवाँछनीय है कि हम स्वयं को शरीर एवं मन मान बैठें और इन्हीं की सुख-सुविधा और मर्जी जुटाने के लिए अनुचित मार्ग तक अपनाने में भी न हिचकें। केवल पेट और प्रजनन में लिप्त मनुष्य पशु जीवन ही बिता रहा है। वासना और तृष्णा की पूर्ति, ललक लिप्सा में डूबा हुआ मनुष्य “असुर” ही कहा जायेगा। जिसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं, अंधे मोह से जो ग्रस्त है और जिसे जीवन लक्ष्य में रुचि नहीं उसे पागल और मूर्ख नहीं तो और क्या कहा जाय? इन दिनों अधिकतर लोग इसी दयनीय स्थिति में रह रहे हैं और नारकीय शोक-सन्ताप सहन करते हुए जीवन की शवयात्रा संजो रहे हैं। शरीर के क्षणिक सुख के लिये,मन के  हास-परिहास के लिये जीवन सम्पदा को दिवाली की फुलझड़ी की तरह जलाने का बाल-कौतुक किसी दूरदर्शी के लिए शोभा नहीं देता। व्यर्थ और अनर्थ जैसे क्रियाकलापों में संलग्न रहकर चिर भविष्य को अन्धकारमय बना लेना समझदारी का चिह्न कैसे हो सकता है? वाहन और उपकरणों में तन्मय (पदार्थवाद) होकर अपने सर्वनाश को जो सँजो रहा है उसे क्या कहा जाय? शरीर और मन की प्रसन्नता के लिये जिसने आत्म प्रयोजन का बलिदान कर दिया उससे बढ़ कर अभागा एवं दुर्बुद्धि और कौन हो सकता है?

मूर्छितों की बात अलग है। यदि सचमुच कोई मनुष्य जीवित/जागृत हो, उसे अपनी गतिविधियों पर पुनर्विचार करना ही पड़ेगा। अन्धी भेड़-बकरियों की तरह,अधिकतर लोग जिन गतिविधियों को अपनाये हुए हैं,हमें उनसे किनारा करना ही होगा। 

आत्मनिर्भर मनुष्य विवेक को जीवन का आधार बनाता है। ऐसा मनुष्य विवेकपूर्वक सही और गलत का चयन करता है। विवेक एक महत्वपूर्ण मानसिक क्षमता है जो हमें एक बेहतर इंसान बनने और सही जीवन जीने में मदद करती है। विवेकशील मनुष्य दूसरों के पीछे नहीं चलता बल्कि औरों को अपने पीछे चलाता है। ऐसे मनुष्य का  अन्तःकरण ही उसका मार्गदर्शक होता है। विवेकवान व्यक्ति अपना निर्णय स्वयं करता है और सत्पथ पर अकेले ही चल पड़ता है, भले ही उन्मादियों की भीड़ उसका उपहास, असहयोग या विरोध करती रहे। ऐसा साहसवान शूरवीर ही पानी की धार को चीर कर चल सकने वाली मछली की तरह अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करता हुआ वहाँ जा पहुँचता है जहाँ पहुँचने के लिए इस धरती पर “आत्मा” का अवतरण हुआ है।

शरीरबल और मनोबल का अपना स्थान है लेकिन आत्मबल की गरिमा तो अनुपम है। आत्मबल,आत्मा का बल अर्थात् ईश्वरीय बल का परमेश्वर की परिधि में आने वाली समस्त शक्तियों और वस्तुओं पर आधिपत्य है। “जिस मनुष्य ने  आत्मबल उपार्जित कर लिया उसे समग्र शक्ति का अवतार ही कहना चाहिए।” 

सिद्ध पुरुषों की,ऋषियों की, ईश्वरभक्तों की, महामानवों की, युग-युगान्तर तक जीवित रहने वाली गुणगाथायें गाकर हम धन्य होते हैं। उनके चमत्कार हृदय को उत्साह प्रदान करते हैं। ऐसे सिद्धपुरुषों (गुरुदेव) के प्रकाश से प्रकाशवान होकर और उनकी नाव में चढ़कर पार हुए असंख्य प्राणियों के उद्धार की बात जब सामने आती है तो  प्रतीत होता है कि ऐसे लोगों के  ही जीवन धन्य हैं। उन्हीं का अवतरण सार्थक है। मनुष्यता ऐसे ही आत्मबल-सम्पन्न महामानवों से कृतकृत्य होती है।

“आत्मबल” उस साहसिकता की पृष्ठभूमि पर विकसित होता है जिसमें अपने दोष-दुर्गुणों को खोज निकालने और उन्हें बहिष्कृत करने की उमंग उठती है। शारीरिक क्रियाकलापों में, मन की लिप्साओं में स्वभावगत कुत्साओं में जितना भी अवाँछनीय तत्व है उसका उन्मूलन करने के लिए जो शौर्य सक्रिय होता है उसे “आत्मबल” का प्राकट्य  ही समझा जाना चाहिए। मन की दुर्भावनायें और शरीर की दुष्प्रवृत्तियों का जितना परिशोधन होता जाता है उसी अनुपात से आत्मतेज निखरता चला जाता है। यह ब्रह्मतेज, आकाश में चमकने वाले सूर्य के प्रकाश से कम नहीं बल्कि अधिक प्रभावशाली ही होता है। उससे उस तेजस्वी आत्मा का ही नहीं, समस्त संसार का भी कल्याण होता है।

आत्मबल अभिवृद्धि का दूसरा चिह्न वहाँ देखा जा सकता है, जहाँ मनुष्य अंधे मोह से ग्रस्त जनसमूह के परामर्शों और उदाहरणों को नकारते हुए,आदर्शवादी रीति-नीति अपना कर अकेले ही चल पड़ता है,अपना मार्ग स्वयं चुन लेता है। उत्कृष्टता धारण करने की बात तो अनेकों करते हैं,उसके बारे में सोचते/ललचाते भी रहते हैं लेकिन आत्मबल के अभाव में न किसी निर्णय पर पहुँचते हैं और न कोई सार्थक कदम बढ़ाने की हिम्मत करते हैं। ऐसे मनुष्य स्वप्न ही देखते रहते हैं,दिन बिताते हुए,असफल मनोरथ लिए हुए,हाथ मलते हुए, इस संसार से प्रयाण कर जाते हैं। 

आत्मबल-सम्पन्न व्यक्ति इस दयनीय दुर्गति से स्वयं को ऊँचा उठाता है और वह ऐसा कुछ कर जाता है जिसे करने के लिए उसकी अन्तरात्मा कहती है,पुकारती है,बुलाती है और ललकारती है। ऐसे आत्मविश्वासी ही इतिहास बनाकर हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत होते हैं।

यह भलीभाँति समझा जाना चाहिए कि आत्मा, परमात्मा का ही  राजपुत्र है। उसके सम्मुख वे सभी सम्भावनायें प्रस्तुत हैं जो उसके पिता के हाथ में होती  हैं।  जिस अज्ञान-अन्धकार  के कारण दोनों (आत्मा और परमात्मा) का संबंध टूट जाता है, उसी का अन्त करना “साधना” है। साधना का प्रयोजन ईश्वर का स्तवन उसकी खुशामद करना या पूजा की रिश्वत देकर फुसलाना नहीं बल्कि  उन कुत्साओं और कुण्ठाओं की ज़ंजीरों  को काट डालना है जो जीव और ईश्वर के मिलने में एकमात्र बाधा बनकर अड़ी खड़ी हैं।

आत्मबल को प्रखर करने के लिये जो तपश्चर्यायें की जाती हैं उनका प्रयत्न, जन्म जन्मान्तरों से संचित  पशु-प्रवृत्तियों का निराकरण और देव-शक्तियों के अभिवर्धन का मार्ग बनाना  है। मनुष्य में वे सभी दिव्यसत्ताएं बीज रूप में विद्यमान हैं जो इस ब्रह्माण्ड में कहीं भी, किसी भी रूप में विद्यमान हैं। अक्सर लोगों में दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्ति रूपी मोह ही मूर्छित बनाये हुए  हैं। यदि वे हट जायें तो मनुष्य में अनायास ही ईश्वर की झाँकी दर्शित हो सकती है और वह स्वयं  नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, लघु से महान, आत्मा से परमात्मा के रूप में विकसित हुआ प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है, आत्मकल्याण के साथ विश्वकल्याण का भी लक्ष्य पूर्ण कर सकता है। ऋद्धि सिद्धियों की बात तुच्छ है। जो ईश्वरीय परिधि को छू सका, उस सत्ता के साथ अपने सम्बन्ध बना सका, उसे न तो अपने लिए कुछ अभाव/असन्तोष का अनुभव होता है और न ही दूसरों को खुले हाथों देने में कोई कमी रहती है। 

साधना का उद्देश्य ईश्वर को प्रसन्न करना न होकर, आत्मशोधन, स्वयं का परिशोधन(Self-refinement) है। जो मनुष्य आत्मशोधन कर सका, ईश्वर उस पर  अनायास ही अनुग्रह करेंगें।इस अनुग्रह से वंचित  तो वे लोग रहते हैं जो अपनी निकृष्टता ऐसी की तैसी बनाये रखना  चाहते हैं और लोभ-मोह की पूर्ति के लिए अपने पुरुषार्थ को जगाने की अपेक्षा ईश्वर को फुसलाने का जाल बिछाते हैं। तपश्चर्या का अर्थ जीवनक्रम परिष्कार है,पूर्वजन्मों एवं पिछले दिनों में किये गए  दुष्कर्मों का प्रायश्चित है। 

हमारा व्यक्तित्व भौतिक और आत्मिक सत्ताओं का सम्मिश्रण है। शरीर विशुद्ध रूप से जड़ है। आत्मा विशुद्ध रूप से चेतन। दोनों का सम्मिश्रण अर्ध-जड़, अर्ध-चेतन मन है। इन तीनों को ही विकसित एवं बलिष्ठ होना चाहिए। शरीर स्वस्थ रहे, मन स्वच्छ रहे, समाज व्यवहार में सभ्यता का समावेश रखा जाय, साथ ही यह न भुला दिया जाय कि आत्मा सर्वोपरि है। आत्मबल की गरिमा सर्वोत्कृष्ट है। उसे प्राप्त कर सकने पर ही हम सच्चे अर्थों में सुखी और सफल कहला सकते हैं।

समापन, जय गुरुदेव 


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