15 जुलाई 2025 का ज्ञानप्रसाद- अखंड ज्योति मई 1972
कल आरम्भ हुई “शरीर और मन” की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए आज का लेख,अंतिम पंक्तियों में “आत्मा” की बात कर रहा है। आज तो “आत्मा की बात” केवल सरसरी तौर से ही की गयी है,कल इसकी विस्तृत चर्चा की योजना है।
आज के लेख में व्यक्तिगत उदाहरण देकर ज्ञानरथ परिवार के नियमों की उलंघना की है, इसके लिए हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी है,लेख को रोचक और ज्ञान से ओतप्रोत करना भी हमारा ही कर्तव्य तो है ।
तो आइए आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान शांतिपाठ से करें :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
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सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा, दीक्षा द्वारा मस्तिष्क को विकसित एवं परिष्कृत करने के लिए मनुष्य की निरन्तर चेष्टा रहती है क्योंकि भौतिक जगत में उच्चस्तरीय विकास एवं आनन्द उसी के “विकसित मस्तिष्क” के माध्यम से ही संभव हो पाता है। विकसित मस्तिष्क में ही उत्तम विचार उभरते हैं, परिश्रम करने की प्रेरणा मिलती है, और न जाने क्या-क्या कुछ मिलता है। ऐसी प्रतिभा ही मनुष्य को सुशिक्षित व्यक्ति बनाती है, उसी से ही सफल नेता, कलाकार, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, शिल्पी, वैज्ञानिक, साहित्यकार, ज्ञानी, व्यवसायी आदि सम्मानित पद प्राप्त कर सकते हैं। सम्मानित पद और प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति ही सभ्य और सुसंस्कृत समझे जा सकते हैं। अशिक्षित एवं मस्तिष्कीय दृष्टि से अविकसित व्यक्ति आजीवन हेय स्थिति में पड़े रहते हैं उन्हें प्रगति की घुड़दौड़ में पिछड़ा हुआ ही पड़े रहना होता है। इस तथ्य को समझने के कारण हर कोई अपने ढंग से ज्ञानवृद्धि का, मानसिक विकास का प्रयत्न करता है।
शरीर को समुन्नत स्थिति में रखने के लिए पौष्टिक आहार की,सुसज्जा साधनों की, व्यायाम विनियोग की, चिकित्सा की, विनोद आनन्द की अगणित व्यथाएं की गई हैं। “मस्तिष्कीय उन्नति” के लिए स्कूल, कालेज, प्रशिक्षण केन्द्र, गोष्ठियाँ सभाएं विद्यमान हैं। पुस्तकें, पत्रिकाएं, रेडियो फिल्म, कलाकृतियाँ, संग्रहालय आदि न जाने कितने उपकरणों का सृजन किया गया है कि “मस्तिष्कीय समर्थता” बढ़े और विनोद आनन्द की अधिक मात्रा उपलब्ध हो सके। देखते हैं कि मानवीय चिन्तन और कर्तृत्व का अधिकाँश भाग उपरोक्त दो प्रयोजनों की पूर्ति में ही नियोजित है। मनुष्य जो सोचता है, चिंतन करता है, जो कुछ भी करता है उसके पीछे शारीरिक और मानसिक लाभ ही प्रधान होते हैं। सामाजिक कर्तृत्व भी जीवन को सुविधाजनक बनाने के लिए ही किये जाते हैं।
गृहस्थ जीवन में प्रवेश, विवाह, संतानोत्पादन, परिवार व्यवस्था, आजीविका, मैत्री, यशोपार्जन, पद, नेतृत्व आदि जनसंपर्क एवं समाज सम्बन्ध के लिए मनुष्य, “शरीर और मन” की सुविधा” को ध्यान में रख कर ही प्रवृत्त होता है। यही सब तो हम अपने चारों ओर होता हुआ देखते हैं। इसके अतिरिक्त और कुछ कहीं है ही नहीं। ऐसा लगता है कि प्रगति की परिभाषा इन्हीं दो क्षेत्रों में हो रहे विकास तक सीमाबद्ध है।
इसका सीमाबद्धता का कारण यह है कि जीवन का प्रत्यक्ष भाग यानि जो दिख रहा है बस इतना ही है। मनुष्य का स्थूल कलेवर “शरीर और मन” के रूप में ही जाना समझा जा सकता है।
आइए ज़रा इस तथ्य को उदाहरण से समझने का प्रयास करें।
शरीर के स्थूल होने का उदाहरण:
मनुष्य का शरीर पाँच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से बना है और हम शरीर को देख सकते हैं और छू भी सकते हैं तो हुआ न स्थूल। जब कोई व्यक्ति दौड़ता है या काम करता है, तो उसके शरीर की गतिविधियाँ दिखाई देती हैं, यही शरीर का स्थूल रूप है।
मन के स्थूल होने का उदाहरण:
हालाँकि मन सूक्ष्म है, परंतु इसके प्रभाव स्थूल रूप में दिखते हैं, जैसे विचार,भावनाएँ, निर्णय आदि। जब कोई बच्चा डरा हुआ होता है, तो उसका मन भयभीत होता है और वह रोने लगता है। यह मन की स्थूल अवस्था का प्रभाव है।
एक विद्यार्थी परीक्षा की तैयारी कर रहा है। उसका शरीर किताब लेकर बैठा है और उसका मन विषय को समझने, याद करने और चिंतन करने में लगा है। यहाँ दोनों मिलकर काम कर रहे हैं, शरीर पढ़ने की क्रिया कर रहा है, और मन ध्यान केंद्रित करने की क्रिया कर रहा है।
उपरोक्त संक्षिप्त चर्चा से संकेत मिलता है कि मनुष्य को स्थूल रूप (प्रतक्ष्य) में शरीर और मन के संयोजन से समझा जा सकता है,जिसका प्रभाव बाहरी और आंतरिक क्रियाओं में प्रकट होता है।
समझ यह लिया गया है कि मनुष्य जो कुछ है वह शरीर और मन तक ही सीमित है। इस समझ के आधार पर ही मनुष्य इन्हीं दो के लिए सुविधा साधन जुटाने में लगा रहता है। ऐसा करना उचित भी है। इस जगत के जड़ साधनों और चेतन हलचलों को यदि मानवी सुविधा/सन्तोष के लिए नियोजित किया जाता है और उसके लिए उत्साहवर्धक प्रयास जुटाया जाता है तो इसमें अनुचित भी क्या है? मनुष्य द्वारा जो कुछ किया जा रहा है, संसार में जो हो रहा है,उसकी कोई सीमा भी तो नहीं है,यदि होती तो मनुष्य वहाँ पंहुच कर फुलस्टॉप लगा लेता, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता, कारण केवल एक- असीमित ज्ञान और उसे जानने की जिज्ञासा।
कभी नन्हें से, छोटे से बच्चे को तोतली सी, टूटी-फूटी भाषा में प्रश्नों और जिज्ञासाओं की बौछाड़ करते देखा है ? ईश्वर द्वारा अभी-अभी प्रदान की गयी इस नन्हीं सी कलाकृति को इस तरह भांति-भांति के प्रश्न करते देखने का दृश्य कितना मनोरम होता होगा,उसकी कल्पना केवल वही कर सकते हैं जिनका अंतःकरण जीवित है,जो उस नन्हीं सी, प्यारी सी कलाकृति में ईश्वर को देख रहे हैं।
साथियों की पूर्व-स्वीकृति के साथ, पूर्वक्षमा की आशा करते हुए लेख के वर्तमान संदर्भ में एक व्यक्तिगत चर्चा को स्थान दे रहे हैं जो अभी कल ही घटित हुई है।
अपनी दोनों पोतियों (3 वर्षीय और 7 वर्षीय) के साथ कल पास के पार्क में उनकी ही मधुर ज़िद के वशीभूत भ्रमण कर रहे थे। छोटी की ज़िद वाटर फाउंटेन का आनंद लेना था,बड़ी की ज़िद झूलों का आनंद लेना था। एक घंटे के बाद जब वापिस आने लगे तो दोनों ने आइसक्रीम की ज़िद लगा दी,उससे भी बढ़कर एक की ज़िद यह थी कि चॉकलेट आइसक्रीम और दूसरी की न जाने कौन सी!!!
हमारे मन में उठ रहे विचार, पोतियों के प्रश्न एवं जिज्ञासाएं, ज्ञानप्रसाद लेख का विषय (शरीर और मन),सब इक्कठे होकर प्रसन्नता तो प्रदान कर ही रहे थे लेकिन लेख को और अधिक प्रैक्टिकल,रोचक,व्यावहारिक बनाने का मार्गदर्शन भी प्रदान कर रहे थे।
प्रश्नों और जिज्ञासाओं के सम्बन्ध में मनुष्य की स्थिति किसी नवजात,अबोध शिशु से कम नहीं है। जिस प्रकार इन छोटी बच्चियों के प्रश्नों की कोई सीमा नहीं है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य, जीवन के अंत तक प्रश्नों और जिज्ञासाओं की बौछाड़ लगाए ही रहता है। अबोध शिशु की ही भांति, मनुष्य जीवन के अंत तक उन विषयों पर भी प्रश्न करता रहता है जिनसे उसका कोई वास्ता ही नहीं है। इसीलिए तो कहा गया है “दिल तो बच्चा है जी।”
बच्चा बनना कितना मधुर एवं मनोरम आभास है,किसी दिन कुछ समय के लिए ही सही बच्चा बन कर देखें तो जीवन का आनंद ही आ जाए।
आइए चलते-चलते 2010 की मूवी इश्किया में जावेद साहिब की कलम का आनंद उठाएं, देखें “दिल तो बच्चा है”, सच में क्या कह रहा है, हो सकता है किसी पाठक को इस चंचल, बच्चे से मन को समझाने की राह मिल जाए, जावेद साहिब की मूक लेखनी से संजोई निम्नलिखित पंक्तियां बहुत कुछ कह रही हैं:
ऐसी उलझी नज़र उनसे हटती नहीं
दाँत से रेशमी डोर कटती नहीं
उम्र कब की बरस के सफेद हो गयी
कारी बदरी जवानी की छटती नहीं
वल्ला ये धड़कन बढ़ने लगी है
चेहरे की रंगत उड़ने लगी है
डर लगता है तनहा सोने में जी
दिल तो बच्चा है जी, थोडा कच्चा है जी
किसको पता था पहलू में रखा
दिल ऐसा पाजी भी होगा
हम तो हमेशा समझते थे कोई
हम जैसा हाजी ही होगा
हाय ज़ोर करें, कितना शोर करें
बेवजह बातों पे ऐंवें गौर करें
दिल सा कोई कमीना नहीं
कोई तो रोके, कोई तो टोके
इस उम्र में अब खाओगे धोखे
डर लगता है इश्क़ करने में जी
ऐसी उदासी बैठी है दिल पे
हँसने से घबरा रहे हैं
सारी जवानी कतरा के काटी
पीडी में टकरा गये हैं
दिल धड़कता है तो ऐसे लगता है वो आ रहा है
यहीं देखता ही न हो प्रेम की मारें कतार रे
तौबह ये लम्हे कटते नहीं क्यों
आँखों से मेरी हटते नहीं क्यों
डर लगता है मुझसे कहने में जी
मनुष्य, हृदय में ऐसे-ऐसे स्वप्न संजोए रहता है जो उसके सामर्थ्य से कहीं ऊपर होते हैं, उन असीमित स्वप्नों तक उसकी पहुंच भी नहीं होती लेकिन क्या करें, “दिल तो बच्चा है।”
यहां पर एक सूत्र समझने की, गांठ बांधने की आवश्यकता है और वोह है कुछ सार्थक को जानने की जिज्ञासा क्योंकि शरीर और मन से कहीं ऊपर और भी जानने को है। यदि मनुष्य ने इससे आगे,इससे ऊपर भी कुछ समझा होता,उसको भी जीवनक्रम में वैसा ही स्थान देता, वैसा ही प्रयास करता जैसा शरीर और मन के लिए दिया है तो बहुत कुछ प्राप्त कर लेता। लेकिन अक्सर देखा गया है कि वह “तीसरी सत्ता” जो इन दोनों (शरीर और मन) से लाखों करोड़ों गुनी अधिक महत्वपूर्ण है, एक प्रकार से भूली ही पड़ी रहती है। वह असीम एवं आंतरिक लाभ/आनन्द जो अत्यन्त सुखद एवं समर्थ है एक प्रकार से अनुपलब्ध ही रह रहा है।
रोज यही कहा और सुना जाता है कि “मनुष्य, शरीर और मन से कहीं ऊपर आत्मा है।” सत्संग और स्वाध्याय के नाम पर यह प्रतिपादन आये दिन आँखों और कानों के पर्दों पर टकराते हैं लेकिन वह सब एक ऐसी विडम्बना बन कर रह जाता है जिसे केवल कहने, सुनने,पढ़ने और लिखने के लिए ही खड़ा किया हो। यदि ऐसी विडम्बना न होती तो अवश्य ही “आत्मा” को महत्वपूर्ण माना गया होता एवं कम से कम शरीर और मन जितने स्तर का समझा गया होता तो उसके लिये भी उतना श्रम एवं चिन्तन तो नियोजित किया ही गया होता जितना काया के शरीर की उपलब्धियों के लिए किया जाता है।
सच्चाई तो यह है कि आत्मा के सम्बन्ध में बढ़−चढ़ कर बातें कहने सुनने में प्रवीण होने पर भी मनुष्य उस संबंध में एक प्रकार से अपरिचित ही बना हुआ है। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य ने अपनी दिनचर्या में “आत्मिक उन्नति” के लिए कुछ स्थान तो नियत किया ही होता। श्रम और मनोयोग में “आत्मिक उन्नति” लिए भी जगह होती। उपलब्धियों को जिन कार्यों में नियोजित किया जाता है, धन को जिन प्रयोजनों के लिए खर्च किया जाता है उनमें एक भाग आत्म-विकास के लिए भी रखा गया होता लेकिन देखने में यह आता है कि इस विषय को घोर तरीके से नकारा जाता है। यदि कोई उसके लिए प्रयास करता भी है,उसका केवल मज़ाक ही उढ़ाया जाता है क्योंकि जीवन तो खाने-पीने-मौज उड़ाने के लिए मिला है -Eat, drink and merry के लिए मिला है !!!!!!
आत्मा से सम्बंधित इस उत्तम चर्चा को कल के लेख के लिए स्थगित करना ही उचित होगा।
धन्यवाद्, जय गुरुदेव