16 जुलाई 2025 का ज्ञानप्रसाद- अखंड ज्योति मई 1972
पिछले दो दिन से शरीर,मन और आत्मा के विषय पर चर्चा चल रही है, अनेकों उदाहरण दिए गए हैं,यथासंभव सरलीकरण का भी प्रयास किया गया है, साथिओं का सहयोग भी मिल रहा है, इस सामूहिक प्रयास का ही रिजल्ट है कि Step by step, एक एक सीढ़ी चढ़ते हुए हम “आत्मा” को समझ पाने में समर्थ हो रहे हैं।
शब्द सीमा के कारण कुछ अधिक लिखना तो संभव नहीं हो पायेगा, लेख के अंत में “आत्मा” को समझाती काल्पनिक नेहा की “सेल्फी से सेल्फ तक” लघु कहानी अवश्य देखें।
लेख का शुभारम्भ विश्वशांति की कामना से ही हो रहा है :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
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“आत्मा” की बात जो कुछ अधिक ध्यान से सुनते हैं वे अधिक से अधिक इतना कर लेते हैं कि थोड़ी ईश्वर प्रार्थना या पूजा-परक कर्मकाण्डों की उलटी पुलटी प्रक्रिया को उथले मन से उलट पुलट लेते हैं। उतने से ही उस प्रयोजन की पूर्ति और कर्त्तव्य की इतिश्री मान ली जाती है। यह देखा नहीं जाता कि जब शरीर को सजीव, कार्यशील और समर्थ रखने के लिए इतना श्रम करना पड़ता है, जब मन मस्तिष्क के परिष्कार में इतनी तत्परता बरत रहे हैं तो “आत्मा” जैसे महान तत्व की आवश्यकता पूर्ति एवं प्रगति की व्यवस्था इतने कम साधनों से कैसे हो सकती है?
क्या हम “आत्मा” के स्वरूप से अपरिचित हैं?
अनावश्यक और महत्वहीन समझा जाने वाला पथ ही पीछे रह जाता है। इस दृष्टि से यदि कहा जाय कि हम “आत्मा” के स्वरूप और महत्व से अपरिचित हैं तो कुछ अत्युक्ति न होगी। इन अपरिचितों में पूजा पाठ करने और न करने वाले लोग,दोनों ही समान रूप से “आत्मा” के स्वरूप से अपरिचित होने में सम्मिलित हैं। ऐसी स्थिति में फंसे सभी लोग, क्या अपना स्वयं का मज़ाक नहीं बना रहे? मज़ाक ही तो है कि मनुष्य अपने अस्तित्व को ही भूल गया है,अस्तित्व की उपयोगिता से ही नाता तोड़ बैठा है ।
यदि थोड़ा गहराई से विचार किया जाए तो प्रतीत होता है कि शरीर से बढ़कर मन है और मन से बढ़कर “आत्मा” है। मन और आत्मा का सम्मिलन ही मनुष्य है।
अभी दो दिन पूर्व ही प्रकाशित हुए लेखों में वर्णन किया गया था कि शरीर और मन का क्या संबंध है।
मनुष्य के तीन (शरीर,मन और आत्मा) मुख्य स्तर माने जाते हैं:
शरीर:भौतिक अंगों का समूह है, जो जड़ (अचेतन) है।
मन: विचारों, भावनाओं, इच्छाओं और निर्णयों का केन्द्र। यह सूक्ष्म होता है और शरीर से जुड़ा रहता है। विचारों के कारण मन को स्थूल भी कहा जाता है।
आत्मा:चेतन तत्व,जो शुद्ध चेतना, ज्ञान और प्रकाश का स्रोत है। यही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है।
मन और आत्मा का सम्बन्ध:
मन,आत्मा का उपकरण है। आत्मा,बिना मन के कार्य नहीं कर सकती,जैसे सूर्य की रोशनी बिना माध्यम के नहीं फैल सकती।
मनुष्य तभी पूर्ण माना जाता है जब वह शरीर, मन और आत्मा तीनों से संतुलित रूप से जुड़ा हो।
शरीर की शक्ति और सामर्थ्य तो सीमित और स्वल्प है लेकिन परिष्कृत मस्तिष्क तो असीम कमाई कर सकता है। यदि शरीर का एक अंग नष्ट हो जाये तो भी काम चलता रह सकता है लेकिन मस्तिष्क का एक पेच भी ढीला हो जाय तो पागलपन जैसी स्थिति आ जाती है। यह पागलपन ज़रा सा भी झलकने लगे तो मनुष्य अपने लिए और दूसरों के लिए मुसीबत खड़ी कर सकता है। सुन्दर और स्वस्थ शरीर वाला मनुष्य जितना यशस्वी होता है ज्ञानवान उससे असंख्य गुना और चिरस्थायी सम्मान प्राप्त करता है।
इस खुले रहस्य Open secret) को हर कोई जानता है कि यदि किसी के सिर पर लाठी का प्रहार होता है,उसके हाथ अनायास ही ऊपर उठ जाते हैं और चोट को अपने ऊपर लेकर मस्तिष्क को बचाने का प्रयत्न करते हैं। मनुष्य की अन्तःचेतना जानती है कि हाथों के टूटने और सिर के टूटने में से दोनों में किसका महत्व अधिक है।
इस संदर्भ में एक कदम और आगे बढ़ने पर पता चल सकता है कि “आत्मा” का स्थान शरीर और मन से कम नहीं बल्कि कहीं अधिक ही है।
सच पूछा जाय तो मनुष्य का अस्तित्व “आत्मा” ही है, “आत्मा” गायब तो मनुष्य गायब।
शरीर और मन, आत्मा के परिधान, वाहन, उपकरण मात्र ही हैं। शरीर के अस्वस्थ और मस्तिष्क के विकृत होने पर भी जीवन बना रह सकता है लेकिन “आत्मा” के प्रयाण करने के बाद काय-कलेवर की कुछ उपयोगिता नहीं रह जाती। काय-कलेवर को न सिर्फ Instantly ही लाश घोषित कर दिया जाता है बल्कि उस लाश को सड़न और दुर्गन्ध से बचाने के लिये जल्दी से जल्दी ठिकाने लगाने का प्रबन्ध भी किया जाता है।
शरीर मरते रहते हैं,मन बदलते रहते हैं लेकिन आत्मा अनादि-काल से, अनन्त-काल तक एकरस बनी रहती है। एक घर (शरीर) छोड़ती है, दूसरे घर में प्रवेश कर जाती है।
मनुष्य वस्तुतः वही अविनाशी”(जिसका विनाश न होता हो) आत्मा है।
मनुष्य की विडंबना है कि वह आत्मस्वरूप को भूल कर,शरीर और मन को ही सब कुछ समझने लगा है। जिस प्रयोजन के लिए यह दोनों उपकरण (शरीर और मन) मिले हैं उस तथ्य को विस्मृत कर दिया गया है और यह मानकर चला जा रहा है कि शरीर एवं मन तक ही हमारी सत्ता सीमित है और उन्हीं के लिये सुख-साधन जुटाने में निरत रहना है।
आइए ज़रा शरीर और मन को उदाहरण से समझने का प्रयास करें।
शरीर एक रथ है,जिसका स्वामी “आत्मा” है। मन उस रथ की लगाम है और इंद्रियाँ (इंद्रिय शक्तियाँ) रथ के घोड़े हैं। जैसे रथ सही दिशा में तभी चलता है जब सारथी (बुद्धि),लगाम (मन) को ठीक से संभाले और घोड़े (इंद्रियाँ) नियंत्रण में हों, ठीक वैसे ही “आत्मा (स्वामी)”, शरीर,मन और इंद्रियों के नियंत्रण से ही जीवन को सही दिशा में ले जा सकती है। इसीलिए “आत्मा” मूल संचालक है और मन और शरीर,आत्मा के उद्देश्य को पूरा करने के लिए उपकरण मात्र ही हैं।
दो दिन पूर्व मोबाइल का उदाहरण दिया था जिसे लगभग सभी ने कॉमेंट्स में सराहा था। इस सराहना से प्राप्त शक्ति का प्रयोग करते हुए “आत्मा” के संदर्भ में आज फिर मोबाइल का उदाहरण देने की प्रेरणा मिल रही है।
जिस मोबाइल को हाथ में पकड़ कर आप इस समय इस दिव्य ज्ञानप्रसाद का अमृतपान कर रहे है आप ही उसके स्वामी हैं, “आत्मा” हैं
सॉफ्टवेयर (यूट्यूब,व्हाट्सएप आदि) मोबाइल के मन हैं और हार्डवेयर (बॉडी,हार्डडिस्क,सिमकार्ड इत्यादि) इसका शरीर हैं।
मोबाइल स्वतः तो कुछ नहीं कर सकता, वोह एक मृत शरीर की भांति है। जब तक यूज़र(आप) उसे कमांड न दें, वह कुछ नहीं कर सकता। आप (आत्मा) ही सही अर्थों में कर्ता है । मोबाइल से क्या कुछ करवाना है, इसके सॉफ्टवेयर (मन) और हार्डवेयर (शरीर) डिसाइड करते हैं जो केवल उसके माध्यम (tools) हैं।
इसी “उपहासास्पद अज्ञान” का नाम “माया” है। इस भटकाव में पड़ा हुआ प्राणी अपना लक्ष्य भूल जाता है और उन लाभों-आनन्दों एवं उपलब्धियों से वंचित रह जाता है जो “आत्मबोध” होने की स्थिति में प्राप्त हो सकते थे। माया को वर्णन करती कुमार विश्वास जी की शार्ट वीडियो फिर से शेयर कर रहे हैं
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शरीरबल का अपना स्थान है और बुद्धिबल का अपना महत्व लेकिन इन दोनों की तुलना में आत्मबल का महत्व करोड़ गुना अधिक है । पंच तत्वों से बने शरीररूपी कलेवर का मूल्य नगण्य है। बुढ़ापा, बीमारी और मौत इस कलेवर को पानी के बुलबुले की तरह गला देता है। समुद्र की लहरों की तरह वह उठता है और नष्ट होता रहता है। वस्त्रों की तरह वह फटता और जीर्ण होता रहता है। घिसे हुए औजार की तरह बार-बार उसे बदलना होता है। ऐसे कलेवर की सुसज्जा को ही लक्ष्य बना लिया जाय और आत्मोत्कर्ष के, आत्म-कल्याण के एवं आत्मानन्द के उद्देश्य को विस्मृत कर दिया जाय तो बुद्धिमान कहे जाने (So called wise) वाले मनुष्य की सबसे बड़ी मूर्खता ही होगी। खेद इसी बात का है कि लगभग समस्त मानव समाज “आत्मा” को नकारता हुआ,सम्मोहित होता रहता है और मूर्छित बना पड़ा रहता है।
दूरदर्शिता का तकाजा यह है कि हम अपने स्वरूप और जीवन के प्रयोजन को समझें। इसके लिए “आत्मबोध” का ज्ञान अर्थात स्वयं का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। वर्तमान लेख श्रृंखला के प्रथम लेख का शीर्षक ही स्वयं को जानने का था।
शरीर और मन रूपी उपकरणों का उपयोग जानें और उन प्रयोजनों में तत्पर रहें जिनके लिए प्राणि जगत का यह सर्वश्रेष्ठ शरीर, सुरदुर्लभ मानव जीवन उपलब्ध हुआ है। “आत्मा” तो परमात्मा का ही पवित्र अंश है। उसकी मूल प्रवृत्तियाँ ईश्वर जैसी ही हैं । परमात्मा परम पवित्र है। श्रेष्ठतम उत्कृष्टताओं से परिपूर्ण है। उसका समस्त क्रियाकलाप लोकमंगल के लिए है। वह लेने की आकाँक्षा से दूर,देने की,प्रेम की, उदात्त भावना से परिपूर्ण है। “आत्मा” को इसी स्तर का होना चाहिए और उसके क्रियाकलापों में ईश्वर की गतिविधियों का समावेश होना चाहिए। परमेश्वर ने अपनी सृष्टि को सुन्दर, सुसज्जित, सुगन्धित और समुन्नत बनाने में सहयोगी की तरह योगदान करने के लिये मानव प्राणी को अपने प्रतिनिधि के रूप में सृजा है। इसलिए आवश्यक है कि उसका चिन्तन और कर्त्तव्य इसी दिशा में नियोजित रहना चाहिए। यही है आत्मबोध, यही है आत्मिक जीवनक्रम। इसी को अपनाकर मनुष्य अपने जन्म की सार्थकता सिद्ध कर सकता है ।
आज के लेख का समापन, सोशल मीडिया के युग के कारण नेहा की आत्मबोध यात्रा,“सेल्फी से सेल्फ तक”से कर रहे हैं।
नेहा एक सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर थी। हर दिन वह नई रील्स, स्टोरीज़, और तस्वीरें पोस्ट करती थी। उसके लाखों फॉलोअर्स थे। लोग उसकी खूबसूरती, फैशन और स्टाइल की तारीफ़ करते थे। लेकिन अंदर ही अंदर नेहा को कभी सच्ची खुशी महसूस नहीं होती थी।
एक दिन लाइव इंटरव्यू के दौरान किसी ने नेहा से पूछा:
“जब कोई भी नहीं देख रहा होता, तब आप खुद को कैसा महसूस करती हैं?”
यह सवाल उसे भीतर तक झकझोर गया। इंटरव्यू के बाद वह कई दिनों तक चुपचाप रही। उसने गौर किया कि:
जब वह “मुस्कराती” है, तो अक्सर वो नकली होता है।
जब वह “खुश” दिखती है, तो भीतर बेचैनी रहती है।
जो छवि वह दिखा रही है, वह असली नेहा नहीं है।
उसने फोन रखा, इंटरनेट बंद किया, और कुछ समय अकेले में बिताया। उसके बाद उसने एक डायरी में लिखा:
जब मुझे कोई नहीं देखता, तो मैं क्या हूँ ?
क्या मैं सिर्फ एक चेहरा हूँ, एक ब्रांड हूँ, एक नाम हूँ ?
नहीं, मैं एक चेतना हूँ, मैं एक मौन अस्तित्व हूँ। बस यही हूँ मैं । यही है मेरा सत्य।
उस दिन उसे पहली बार “आत्मबोध” हुआ कि उसकी असली पहचान इंस्टाग्राम, फेसबुक,मेटा आदि नहीं है, दूसरों की वाहवाही लूटने में नहीं है, बल्कि उसकी भीतरी मौन उपस्थिति में है।
तो आधुनिक आत्मबोध का सारांश यही है:
जब कोई व्यक्ति भीड़, भूमिका और बाहरी छवि से अलग होकर स्वयं के मौन, स्थिर, चेतन स्वरूप को पहचानता है,तो वही आत्मबोध होता है।
आज यहीं पर मध्यांतर होता है,कल इसके आगे चलेंगें।
धन्यवाद्, जय गुरुदेव
