वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

स्वयं  को पहिचानें

हमारे साथी जानते हैं कि आजकल चल रही लेख श्रृंखला में वंदनीय माता जी के मुखारविंद से परम पूज्य गुरुदेव के सन्देश/निर्देश हम सब तक पंहुच रहे हैं। मई 1972 की अखंड ज्योति में इस विषय को कवर करते हुए भांति भांति के लेख प्रकाशित हुए, सभी इतना गूढ़ ज्ञान लिए हुए हैं कि क्या कहा जाए। पिछले कितने ही दिनों से इसी अंक के अनेकों लेख पढ़ लिए, कौन सा लेख साथिओं के समक्ष लाया जाये/छोड़ा जाए, निर्णय लेना कठिन हो रहा था क्योंकि सभी अपनेआप में अद्वितीय हैं। 

जिस लेख को आज आपके  समक्ष लाने का निर्णय लिया है उसे Compile करने में कौन-कौन से स्रोतों का सहारा लिया है, उसका तो महत्व तभी सार्थक होगा जब हम साथिओं के अंतःकरण तक पंहुच पायेंगें, कमैंट्स/काउंटर कमैंट्स  स्वयं ही इसका  मूल्यांकन कर लेंगें। 

विषय है स्वयं को जानने का: 

कैसी विडंबना है कि हम संसार की छोटी से छोटी बात को जानने में उत्सुक तो रहते हैं लेकिन स्वयं को जानने की बात आती है तो हमारी हवा निकल जाती है। Job Interview में तो अनेकों बार यह प्रश्न पूछा जाता है, Tell me about yourself लेकिन रियल लाइफ में हम स्वयं से पूछें कि हम क्या हैं, क्या हम स्वयं को जानते हैं तो शायद उत्तर मिलना कठिन हो। आज के दिव्य ज्ञानप्रसाद लेख में इसी छोटे से लेकिन जटिल प्रश्न  का उत्तर जानने का प्रारम्भिक प्रयास है, आने वाले दिनों में इसकी जटिलता सरल होती जाएगी, ऐसा हमारा विश्वास है। 

तो चलें विश्व शांति की कामना करें और आज के लेख का शुभारम्भ करें। 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥  

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स्वयं को जानने के  विषय पर चर्चा करते हुए एक दिन गुरुदेव ने निम्न तथ्यों पर प्रकाश डाला-

हर कोई जानता है कि शरीर अनेक सुख सुविधाओं का माध्यम है।  ज्ञानेन्द्रियों ( Sense organs) के द्वारा रसास्वादन (आनंद ) और कर्मेन्द्रियों (Action organs) के द्वारा (कर्म) करते हुए मनुष्य को आनंद प्राप्त कराने वाला शरीर ही साँसारिक हर्षोल्लास प्राप्त करने का माध्यम है। यही कारण है कि शरीर को हर समय स्वस्थ, सुन्दर, सुसज्जित, एवं समुन्नत स्थिति में रखा जाना चाहिए। इस तथ्य से लगभग सभी साथी अवगत हैं इसलिए  सभी अपनी-अपनी सुविधा,सामर्थ्य और समझ के अनुसार प्रयत्न करते हैं  कि शरीर की साज-संभाल (Maintenance) में कोई कसर न छोड़ी जाए। इसी दृष्टि से उत्तम आहार-विहार जुटाया जाता है। अच्छा, Balanced भोजन किया जाता है, व्यायाम किया जाता है, अच्छी नींद ली जाती है, योग साधन किये जाते हैं एवं  मनोरंजन के साधनों (टीवी  म्यूजिक अदि) का प्रयोग करते हुए आंतरिक सुख-शांति का भी आनंद भी उठाया जाता है; यह सभी साधन इस मानवी काया की Maintenance के लिए किये जाते हैं। इतना करने के बावजूद भी रोग-बीमारी कहाँ छोड़ती है। बीमारी की Maintenance के लिए ज़रा  सा रोग/कष्ट होते ही चिकित्सा की सहायता ली जाती है। ऐसा सब कुछ करने के पीछे  केवल एक ही उद्देश्य स्पष्ट है कि यदि शरीर दुर्बल,रुग्ण एवं मलीन रहेगा तो भौतिक जीवन का सारा आनन्द ही चला जायेगा। इसीलिए वर्षों से पढ़ाया जाता रहा है, “Health is wealth अर्थात अच्छा स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी सम्पति है।” शरीर को अक्सर भौतिकता के साथ जोड़ा गया है क्योंकि अच्छा खाना,अच्छा रहन-सहन, अच्छा घर-बाहिर, गाड़ी,पद-प्रतिष्ठा आदि सब भौतिकता का ही मूल्यांकन तो है। लेकिन यह केवल एकतरफा दृष्टिकोण है, खाली पेट तो भक्ति भी नहीं होती, खाली पेट रखने से न जाने कौन-कौन सी बीमारियां आक्रमण कर दें। घर परिवार के प्रति भी तो मनुष्य की ज़िम्मेदारियाँ हैं, उनका पालन भी तो साधनों से ही होगा, ऐसा न होने की स्थिति में हमारे आद  अरुण जी अपनी अर्धांगनी से युद्ध नहीं करेंगें तो और क्या करेंगें,उसमें उनका भी कोई बड़ा दोष नहीं है। जीवनरुपी गाड़ी को चलाने के लिए चारों पहियों में ठीक से हवा भरी हो, पेट्रोल का टंकी भरी हो एवं अन्य उपकरणों की ठीक से Maintenance एवं Balance हो तो, गाते-गुनगुनाते गाड़ी का स्टीयरिंग स्वयं ही रास्ता बताता चला जाता है। 

साथिओं से निवेदन है कि ज़रा रूक कर देख लिया जाए कि हम में कितने लोग जीवनरुपी गाड़ी को राजमार्ग पर गाते-गुनगुनाते दौड़ा रहे हैं एवं कितने लोग जीवन को एक बोझ की भांति समझकर दिन काट रहे हैं। 

आज के दिव्य ज्ञानप्रसाद लेख की आगे की चर्चा से पहले “जड़ और चेतन का अंतर्” समझना बहुत ज़रूरी है।  

फिलॉसॉफी  और अध्यात्म में जड़ और चेतन का अंतर बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। सरल भाषा में दोनों के बीच मुख्य अंतर निम्नलिखित है:

जड़ (Inert / Non-conscious) अर्थात जो अचेतन, बेजान, निश्चेष्ट, और स्वतः क्रियाशील नहीं होता, वह “जड़” कहलाता। जड़ पदार्थ में  चेतना (जान) नहीं होती। वह स्वयं से कोई कार्य नहीं कर सकता, बाहरी शक्ति या कारण से ही वह गति करता है।  पत्थर, कुर्सी, शरीर (बिना आत्मा के), यंत्र, पंखा, मोबाइल इत्यादि सब जड़ पदार्थ के ही उदाहरण हैं। 

चेतन (Conscious / Sentient) अर्थात जो सजग, सचेत, और स्वतः क्रियाशील होता है, उसे “चेतन” कहा जाता है। चेतन में चेतना (प्राण)  होती है, वह सोच सकता है, अनुभव कर सकता है, स्वयं निर्णय और क्रिया कर सकता है। मानव आत्मा, जीव, पशु, पक्षी, कीट, मस्तिष्क के साथ कार्य करता जीव चेतन के उदाहरण हैं। किसी शोरूम के  शीशे के ताबूत में सज-धज कर  खड़ा  पुतला (जड़) दिखता तो इंसान जैसा है लेकिन कुछ सोच नहीं सकता, चल फिर  नहीं है, लेकिन एक इंसान चेतन के होने पर सोचता है, महसूस करता है, कार्य करता है।

जिस फ़ोन पर,इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान हो रहा है वह चार्ज होने पर ही  काम करता है, अच्छा इंटरनेट कनेक्शन होने पर ही काम करता है, ठीक उसी प्रकार शरीर आत्मा के रहते ही जीवित रहता है।चार्ज खत्म,कनेक्शन खत्म फ़ोन बंद। इसी तरह आत्मा निकल गई तो शरीर मृत। इसलिए मनुष्य शरीर आत्मा (प्राण) के बिना  जड़ है, जब तक चेतन आत्मा है, तब तक वह चलता-फिरता, सोचता-विचारता और अनुभव करता है।

शरीर की गतिशीलता और आत्मा की चेतना का भौतिक व आत्मिक सम्बन्ध है, समन्वय है। “मन मस्तिष्क” इस समन्वय का प्रतीक है एवं उसी में सब कुछ सोते-जागते चलता रहता है। भौतिक दृष्टि से देखा जाए तो यदि मन-मस्तिष्क में उठ रहे अथाह विचारों के कारण एक रात अच्छी नींद न आए,करवटें बदलते रहा जाए तो अगली सुबह शरीर में थकावट,चिड़चिड़ापन जैसे लक्षण अवश्य  दिखेंगें। यह शरीर की भौतिक स्थिति है। इसी चिड़चिड़ेपन,थकावट में आत्मा शांत कहाँ शांत रह पाती है ? तो हुआ न भौतिक और आत्मिक सम्बन्ध। इस सम्बन्ध की अपनी विशेष उपयोगिता है। कैसे ?

आइए देखते हैं 

मन किसी बात की कल्पना करता है, बुद्धि उस कल्पना का निर्णय लेती है, चित्त की आकाँक्षा और अहंता (Ego) की प्रवृत्ति इसमें सहयोग करती है। “मन,बुद्धि,चित्त और अहंता” इन चारों के मिलने से “अन्तःकरण चौतरफा” एक्शन करता है। यह चौतरफा एक्शन शरीर के किस  भाग में हो रहा है उसे जानना बहुत ही रोचक है।  

“चिन्तन संस्थान” का यह डिपार्टमैंट,मानवी मस्तिष्क के कलेवर में, खोपड़ी के अंदर  एक गड्ढे में बंद है।

मन,बुद्धि,चित्त एवं अहंता में उठ रही क्रिया की प्रोसेसिंग तो मस्तिष्क में होती है लेकिन अतःकरण( Conscience) ही निर्णय लेता है कि इन क्रियाओं में से किसे करना उचित एवं अनुचित होगा। मन तो कह रहा है कि भौतिकवादी संसार का त्याग करके हिमालय में चले जाना ठीक होगा लेकिन विवेक कान पकड़ कर वापिस खींच लाता है, कहता है अरे डरपोक, अपनी जिम्मेदारिओं से भाग रहा है? 

आज फिर चर्चा कुछ ऐसी आन  पड़ी की “चित्रलेखा” मूवी के उस गीत की पंक्तियाँ स्मरण हो आयीं :  

संसार से भागे फिरते हो, भगवान् को तुम क्या पाओगे, इस लोक को भी अपना न सके, उस लोक में भी पछताओगे ,यह भोग भी एक तपस्या है, तुम त्याग के मारे क्या जानो    

आइए चर्चा को आगे बढ़ाएं : 

“चिन्तन संस्थान” में यह सारी प्रोसेसिंग होती है लेकिन  उसका नियन्त्रण और क्रियाकलाप (Action, प्रभाव)  समस्त शरीर के अंग प्रत्यंगों में देखा जा सकता है। इसे यूं समझें कि स्ट्रेस तो दिमाग में हो रहा है,दिमाग तो भारी होगा ही, लेकिन दिल की धकड़न भी तेज चल रही है, नब्ज़ भी रुक-रुक कर आ रही है, गला भी सूख रहा है, शरीर में कम्पन भी हो रही है, पसीना भी आ रहा है, घबराहट भी हो रही है, बॉडी भी unstable है, इतना ही नहीं, यह सब तो सामने दिख रहा है, जो अदृश्य है वोह न जाने कितना गंभीर हो।

साथिओ आज के लिए इतना ही काफी है, इसके आगे कल चलेंगें। 

धन्यवाद्,जय गुरुदेव   


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