वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

विश्व ब्रह्मांड में सतगुरू समान कोई नहीं-गुरु पूर्णिमा के लिए सरविन्द कुमार पाल जी के श्रद्धासुमन 

आज की भूमिका आरम्भ करने से पहले ही आद सरविन्द जी से करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं की उन्होंने यह श्रद्धासुमन पिछले वर्ष भी गुरुचरणों में भेंट किये थे लेकिन ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के नियत टाईमटेबल में फिट न होने के कारण इनका प्रकाशन संभव न हो पाया। इस बार भी यह श्रद्धासुमन अचानक (बिना किसी पूर्व सूचना के) ही आये लेकिन कोई बात नहीं हम सब एक परिवार ही हैं,अपनत्व के अटूट बंधन से जुड़े हुए हैं। अपनत्व की भावना से ही एक बात शेयर  करना चाहेंगें कि आद भाई साहिब ने लेख तो भेज दिया लेकिन उसका ओरिजिनल सोर्स भेजना शायद भूल गए हों, 2022 की अखंड ज्योति तो लिखा था लेकिन किस माह की थी, यह लिखना शायद भूल गए थे। हमने ऑनलाइन सर्च करके 2022 के 12 महीनों की विषय सूची को  देखना चाहा तो अधिकतर अंक (Text और scan फॉर्मेट दोनों) उपलब्ध नहीं थे। 

ऐसी स्थिति में हम जैसे नौसिखिए  से जो कुछ बन पाया,अपने साथिओं के समक्ष एवं परम पूज्य गुरुदेव के चरणों में समर्पित करने का साहस कर रहे हैं। पूर्ण विश्वास है कि हमारे साथी किसी भी त्रुटि के लिए विशाल ह्रदय से हमें क्षमा कर देंगें। जो भी हो, लेख का कंटेंट सच में ऐसा ज्ञान लेकर आया है कि अंतकरण के कण-कण में स्थापित हो जाए ,तभी 2025 की गुरुपूर्णिमा सार्थक होगी। 

कल भी लिखा था, आज फिर रिपीट कर रहे हैं कि इस बार की गुरुपूर्णिमा के लिए गुरुवर स्वयं ही हाथ में ऐसा कंटेंट थमाए जा रहे हैं, जिनकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। 

कल गुरुवार है, वीडियोकक्षा का दिन तो नहीं है लेकिन फिर भी इस गुरुवार को “गुरुवर स्पेशल” बनाने के लिए गुरुदेव के उन दुर्लभ चित्रों की 13 मिंट की वीडियो प्रस्तुत की जाएगी जिन्हें हम वर्षों से इक्क्ठा कर रहे थे,ह्रदय में संजोए  रखे थे।

शुक्रवार को एक और वीडियो प्रस्तुत करने की योजना है। 1985 की गुरुपूर्णिमा  पर गुरुदेव की ही वाणी में प्रकाशित हुई इस वीडियो ने हमें इतना प्रभावित किया कि हमने अनेकों शार्ट वीडियोस बनाकर अब तक लाखों नहीं तो हज़ारों बच्चों के ह्रदय में स्थापित करने का प्रयास किया है। जिन साथिओं ने गुरुदेव के साक्षात् दर्शन नहीं किये हैं उनके लिए ऐसी वीडियोस एक दिव्य मिलन से कम नहीं है। 

तो साथिओ विश्व शांति में गिलहरी का रोल अदा करते हुए आज के लेख का शुभारम्भ निम्नलिखित शब्दों से होता है : 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥      

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कबीर दास जी ने बहुत ही सुंदर, प्रेरणादायक निम्नलिखित दोहे में गुरु की महिमा का गान करते हुए लिखा है:

गुरु पारस को अंतरो,जानत हैं सब संत।

वह लोहा कंचन करे,ये करि लेय महंत।।

इस दोहे के अनुसार गुरु और पारस में बहुत बड़ा अंतर है। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है लेकिन गुरु, शिष्य को अपने समान महान बना देता है जिसकी सुगंध से संपूर्ण ब्रह्मांड लाभान्वित होता है। 

गुरुदेव लिखते हैं कि गुरु की इस महानता के कारण ही उसे भगवान के समतुल्य माना गया है। वास्तव में सदगुरू साक्षात ब्रह्मस्वरूप ही हैं। निराकार ब्रह्म ही जीव के उद्धार के लिए साकार सद्गुरू के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं। गुरु और भगवान अलग नहीं,एक ही हैं तथा सद्गुरू में भगवान के दर्शन किए जा सकते हैं। अतः ऐसे सद्गुरू की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि कही जा सकती हैl। 

सागर में न जाने कितने ही भयंकर व भयावह तूफान आते रहते हैं। इस तूफान में नाव, नाविक एवं उस पर सवार अनेकों  लोग सागर के गर्भ में समा जाते हैं लेकिन जिस नाव की पतवार कुशल नाविक के हाथ में होती है,वह बड़े से बड़े समुद्री तूफानों में भी अपनी नौका व उस पर सवार लोगों को सुरक्षित किनारे लगा देते हैं,पार लगा देते हैं।  

मनुष्य जीवन भी भवसागर है जिसमें काम,क्रोध,लोभ,मोह के रूप में अनेक झंझावात व तूफान उठते रहते हैं। मनुष्य के मन में  जन्म-जन्मांतरों के कर्म संस्कारों के तूफान आते रहते हैं जिनमें अबोध,अज्ञानी लोग अपने सुरदुर्लभ मानव जीवन की बहुत बड़ी हानि कर बैठते हैं। 

भवसागर,दो शब्दों (भव और सागर) को जोड़कर बना हुआ है। भव का शाब्दिक अर्थ जन्म-मरण से संबंधित है, इसलिए “भवसागर को जीवन का सागर” कहा गया है।

गुरुदेव बताते हैं कि जो लोग सद्गुरू की नाव में सवार हैं,वे गुरुज्ञान से न सिर्फ भौतिक जीवन में सुख-शांति,वैभव आदि प्राप्त करते हैं बल्कि गुरुज्ञान का अमृतपान करके,  जन्म-जन्मांतरों की जमी हुई कषाय-कल्मषों की कालिख की परतों को हटाकर मन को निर्मल बना देते हैं। 

गुरु अपने हृदय में जल रही दिव्य ज्योति में ही परमपिता परमेश्वर की दिव्य अनुभूति पाकर जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर,उससे भी आगे पराभक्ति (Transcendental devotion), अर्थात उच्चस्तरीय भक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। पराभक्ति की तुलना उस तेल की धारा से की जा सकती है जो एक बर्तन से दूसरे बर्तन में बिना टूटे बहती है।भक्त और भगवान का विलय भी इसी स्तर का होता है।

गुरुकृपा शब्द में “कृपा” का अर्थ दया,अनुग्रह समझा जाता है। गुरुप्राप्ति एवं गुरुकृपा प्रप्ति के लिए अटूट श्रद्धा-विश्वास की आवश्यकता होती है।

गुरु हमें अपना कहें और हम पर उनकी कृपादृष्टि अनवरत बनी रहे, ऐसी प्राप्ति के लिए दिन-रात इसी बात का प्रयास करना चाहिए कि हम क्या करें। ऐसे प्रयास से गुरुदेव बहुत ही प्रसन्न होंगे। 

तीन युगों; सतयुग,द्वापर और त्रेता की तुलना में, कलियुग में गुरुप्राप्ति होना बहुत सरल है लेकिन ध्यान रखने योग्य बात यह है कि गुरुकृपा बिना गुरुप्राप्ति नहीं होती है।गुरु को पहले से ही ज्ञात होता है कि भविष्य में कौन उनका शिष्य होगा। 

कबीर जी ने कहा है:

गुरु की लौकिक व्याख्या तो यही है कि वह शिष्य को सद्गुणी बनाता है,उसे नेक राह पर चलने की प्रेरणा देता है लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो सच्चा गुरू वही है,जो शिष्य को ईश्वर से जोड़ने का मार्ग बताए और अपने समान खरा बना दे। 

आशय तो यही है कि गुरु जैसा कोई नहीं हो सकता,वह लोहे जैसे शिष्य को अपने पारस स्पर्श से स्वर्ण बना देता है। सच्चा गुरू यही करता है। जिनकी साधना उत्तम कोटि की  है, जिनके जीवन में हिंसा, पाप-क्लेश बिल्कुल भी नहीं है,जो अपने कर्म के प्रति निष्ठावान होते हैं,जिनकी कथनी-करनी में तनिक भी अंतर नहीं होता है वही हमारे अराध्य गुरू होते हैं। तभी तो गुरुदेव ने कहा है: 

किसी कवि ने “गुरु” शब्द की बहुत ही सुंदर व प्रेरणास्रोत व्याख्या की है जो कि निम्नलिखित है:

“गुरु है तो ज्ञान है,गुरु है तो ध्यान है,गुरु है तो मान है,गुरु है तो यश है,गुरु है तो कीर्ति है,गुरु है तो साहित्य है,गुरु है तो चिंतन है,गुरु है तो संस्कार है,गुरु है तो संस्कृति है,गुरु है तो विकृतियों का विनाश है,गुरु है तो संस्कृति का सृजन है,गुरु है तो व्यवहार का दीप जलता है,गुरु है तो प्रेम का प्रकाश फैलता है,गुरु है तो ध्यान की ज्योति जलती है,गुरु है तो गरिमा का गुलाब खिलता है,गुरु है तो महिमा के मोगरे महकते हैं।”

प्रख्यात विचारक कौटिल्य, चाणक्य नीतिदर्पण के 15वें अध्याय के दूसरे श्लोक में कहते हैं:

गुरु शिष्य को सफलता की सुधा पिलाता है।

गुरु शिष्य को कीर्ति के कलश थमाता है।

गुरु शिष्य की प्रसिद्धि की पताका फहराता है।

गुरु शिष्य को अमरत्व की राह दिखाता है और गुरु मुक्ति की महिमा से शिष्य का साक्षात्कार कराता है।

गुरु एक तरफ शक्ति का स्रोत है, दूसरी तरफ भक्ति का आधार है,तीसरी तरफ मुक्ति का मंत्रदाता है, ईश्वर का दिया हुआ वरदान है। 

परम पूज्य गुरुदेव हमारे सर्वस्व हैं, उनकी कृपादृष्टि से ही हम स्वयं का बोध प्राप्त कर सकते हैं। 

गुरुदेव लिखते हैं:

जो देवदुर्लभ, मानव तन पाकर अपने लौकिक और पारलौकिक जीवन को आनंद और उमंग से भरकर भगवत् प्राप्तिरूपी जीवन के परम लक्ष्य को हासिल करना चाहते हैं,उन्हें निराकार-निर्गुण ब्रह्म के साकार और सगुण रूप सद्गुरू को परमात्मभाव से पूजना चाहिए। अपने गुरु की नियमित उपासना, साधना व आराधना करनी चाहिए तथा हमेशा यह भावना रखनी चाहिए कि सद्गुरू हम सबके अंदर और बाहर हर जगह व्याप्त हैं। गुरु के निर्देश को हर हाल में गुरुप्रसाद व वरदान समझकर संपन्न करना चाहिए। यही सच्ची गुरुभक्ति है। 

गुरूदेव ने अनेकों बार कहा है कि गुरु की मूर्तिपूजा तक सीमित रहने वाली भक्ति अधूरी है। सच्ची गुरुभक्ति तो गुरू के द्वारा बताए गए आदर्श और अनुशासन को जीवन में उतार लेना और उसे ही जीते रहने में  है। 

गुरू का काम साक्षात भगवान का ही काम है एवं गुरू की योजना साक्षात भगवान की ही योजना है। गुरू का स्वप्न, साक्षात भगवान का ही स्वप्न है। परम पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि शिष्य को तन,मन,धन, श्रद्धा, विश्वास एवं भक्ति से गुरुकार्य में तल्लीन रहना चाहिए। गुरुकार्य करते हुए स्वयं को सौभाग्यशाली समझना चाहिए।भगवान की योजना में,भगवान के कार्य में अपनी सेवा समर्पित करने का यह परम सौभाग्य, भगवानरूपी सद्गुरू की कृपा से ही प्राप्त होता है। हमें चाहिए कि किसी भी कीमत पर इस सौभाग्य को अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। इसी में सच्चा सुख आनंद,परमानंद,ब्रह्मानंद है। तभी तो कबीर जी ने कहा है: सतगुरु सम कोई नहीं,सात दीप नौ खंड 

तीन लोक न पाइए,अरु इकइस ब्रह्मांड अर्थात सात दीप,नौ खंड,तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मांडों में सद्गुरू के समान हितकारी कोई नहीं है

गुरुदेव स्वयं कहते हैं कि जिसने भी गुरू के आदेश का पालन किया,उसका मंगल ही हुआ है, वह कभी भी घाटे में नहीं रहा। माता उमा ने अपने गुरू नारद जी के कहने पर भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए कठिन तपस्या की और अंततः वह भगवान शिव को पति रूप में पा सकीं। अतः माता उमा गुरुभक्ति व गुरु के आदेश का पालन करने को लेकर अपने निज अनुभव को अभिव्यक्त करते हुए रामचरित मानस में कहती हैं:

अर्थात माता पार्वती जी कहती हैं कि मैं नारद जी के वचनों को नहीं छोडूंगी,चाहे मेरा घर बसे या उजड़े,इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरू के वचनों में विश्वास नहीं है,उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होते हैं। 

अतः गुरुपूर्णिमा के इस पुनीत अवसर पर परम पूज्य गुरुदेव के प्रति अपनी श्रद्धा,विश्वास और भक्ति- भाव के सुमन अर्पित करना हमारा परम कर्तव्य है। हम सबको अपने गुरु के वचनों पर पूर्ण विश्वास करते हुए उन वचनों का सदैव पालन करना चाहिए क्योंकि गुरु सब प्रकार से हमारे लिए परम हितकारी हैं। गुरुकार्य करने से व गुरुकृपा से शिष्य को स्वतः ही वह सब संपदाएं प्राप्त हो जाती हैं जिन्हें वह सुखी व समुन्नत जीवन का आधार मानता है। 

समापन,जय गुरुदेव


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