वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुपूर्णिमा को समर्पित एक अद्भुत लेख 

शब्द सीमा के वशीभूत आज का ज्ञानप्रसाद लेख बिना किसी भूमिका के आरम्भ हो रहा है, लेकिन इतना तो कह ही दें कि कैसा संयोग है कि गुरुपूर्णिमा के दिनों में गुरु-शिष्य सम्बंधित लेख प्रस्तुत हो रहा है। 

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गुरु और शिष्य मिलकर एक दूसरे का सहयोग  करते हैं। कान में मंत्र  फूँक देना या कर्मकाण्ड का विधि-विधान बता देने से काम नहीं चल सकता। गुरु अपनी शक्ति का एक अंश भी देता  है। इस अनुदान के बिना आत्मिक प्रगति के पथ पर बहुत दूर तक नहीं चला जा सकता। 

पहाड़ों की ऊंची चढ़ाई चढ़ने के लिए लाठी का सहारा लेना पड़ता है। छत पर चढ़ने के लिए सीढ़ी की ज़रुरत होती है । “आत्मिक प्रगति के पथ पर चलने वाले पथिक के लिए उसका गुरु एक लाठी और सीढ़ी का कार्य  करता है। 

माता के पेट में रखे बिना भ्रूण को रक्त, माँस,दूध नहीं पिलाया जा सकता,भ्रूण की जीवन-प्रक्रिया गतिशील नहीं हो सकती। छोटा बच्चा भोजन,वस्त्र  आदि की सुविधायें स्वयं उपार्जित नहीं कर सकता। इसके लिये अभिभावकों की सहायता आवश्यक होती है। छात्र Self-study से संक्षिप्त ज्ञान तो अर्जित कर ही सकता है लेकिन पुस्तक,फीस आदि का खर्च पिता से और विस्तृत ज्ञान तो अध्यापक के सहयोग से ही  प्राप्त करना पड़ता है। माता-पिता अपनी सन्तान का पालन पोषण करते हैं,संतान बड़ी  हो जाने पर अपने बच्चों के पालन की जिम्मेदारी उठाते हैं। यही क्रमानुगत परम्परा चलती रहती है। 

गुरु अपने शिष्य को तप पूँजी प्रदान करता है,शिष्य उसे अपने लिये दबा कर नहीं बैठ जाता बल्कि  उस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए अपने शिष्यों का सहयोग करता है। यों तो धर्म के दस लक्षणों और यम-नियम के दस योग आधारों का पालन करते हुए कोई भी व्यक्ति सहज सरल रीति-नीति से जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। इसमें किसी गुरु की आवश्यकता नहीं होती है। राजमार्ग पर सही तरीके  से चलने  वाला व्यक्ति, सड़क पर लगे Milestones  को देखते-गिनते यथास्थान पहुँच तो सकता है लेकिन  यात्रा के अद्भुत स्थलों को देखना/जानना और वहाँ मिलने वाली उपलब्धियों से लाभाँवित होने के लिए,उसे किसी कुशल,अनुभवी सहयोगी की आवश्यकता पड़ती है। यदि ऐसा  सुयोग न मिल सके,यात्रा तो फिर भी चलती रहती है लेकिन वह नीरस एवं अतिरिक्त उपलब्धियों से रहित, मात्र यात्रा ही बनकर रह जाती है। अध्यात्म-मार्ग  में प्रगति करते हुए,विभूतियों को प्राप्त करते हुए,हर्षोल्लास का आनन्द लेते हुए चलने के लिए कुशल सहयोगी की सहायता अनिवार्य होती है।

आइए इस तथ्य को मेडिकल शिक्षा के उदाहरण के साथ समझने का प्रयास करें। 

मेडीकल कालेज में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में वह सब कुछ लिखा रहता है जो डॉक्टर बनने के लिये  जानना ज़रूरी होता है लेकिन सर्जरी में एक्सपर्ट होने के लिए  किसी कुशल सर्जन का मार्गदर्शन बहुत आवश्यक होता है। ऑपरेशन की सारी प्रक्रिया भी चित्रों सहित पुस्तकों में लिखी रहती है लेकिन उसके बावजूद प्रत्यक्ष मार्गदर्शन की आवश्यकता बनी ही रहती है। 

विज्ञान के विद्यार्थी होने के कारण,हम Practicals की आवश्यकता से भलीभांति परिचित हैं। ऊँची कक्षाओं की बात एक तरफ, नर्सरी का बच्चा भी सचित्र बाल पोथी थमा देने पर वोह  अक्षर और अंक ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता जो अध्यापक के प्रत्यक्ष सहयोग से प्राप्त होता है। जिज्ञासा से भरपूर बच्चा स्वयं भी बहुत कुछ सीख लेता है लेकिन जब माँ ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाती है, तोतली आवाज़ में उसके साथ वर्णमाला दोहराती है तो सीढ़ी और लाठी वाला उदाहरण साक्षात् फलित होता दिखता है। माँ और बच्चे  के ह्रदयों  में उठ रही प्रसन्नता का मूल्यांकन केवल वही दोनों कर सकते हैं।    

यदि इतने साधारण ज्ञान के लिए माँ को सीढ़ी बनाकर सहयोग की आशा की जाती है तो आत्मिक प्रगति जैसे अप्रत्यक्ष,अप्रचलित एवं कठिन विषय का प्रशिक्षण अकेले कैसे संभव हो सकता है?

जिस प्रकार बच्चे को सिखाने के लिए,माँ Attentive (श्रद्धा,एवं समर्पण) होने का पाठ पढ़ाती है ठीक उसी प्रकार आत्मिक प्रगति को तीव्र बनाने के लिए शिष्य का गुरु के प्रति श्रद्धावान,विनम्र,समर्पित होना अति आवश्यक है। इस प्रक्रिया को अपनाने से, अनुशासन, निष्ठा बनाये और क्रमबद्धता बनाए रखने में सुविधा होती है। गुरु-शिष्य और  माता-शिशु के बीच चलने वाली प्रक्रिया को Work-in-continuous-action कहा जाए तो शायद गलत न हो। अनादि काल से माता-पिता अपनी संतान का पोषण करते चले आ रहे हैं। यह प्रक्रिया मनुष्यों में ही नहीं,प्रत्येक प्राणी के लिए चली आ  रही है। प्रकृति ने हर प्रजनन-कर्म के साथ शिशु-पालन की प्रवृत्ति भी जोड़कर रखी है जो “प्रकृति का स्वाभाविक क्रम है।” जो कोई भी इस क्रम का अनादर करेगा वह ईश्वर का दोषी माना जाएगा। यदि माता-पिता प्रजनन में तो तत्पर रहें लेकिन उत्पन्न होने वाली सन्तान के प्रति उपेक्षा,क्रूरता बरतें, तो उन्हें सामाजिक, राजकीय और ईश्वरीय दण्ड का भागी बनना ही पड़ेगा। 

यही बात गुरु-शिष्य के बारे में भी कही जा सकती है। परम पूज्य गुरुदेव ने दादागुरु का आदेश मानते हुए, घोर तपस्या करके शक्ति अर्जित,लेकिन उस अर्जित शक्ति को गुरुदेव केवल अपने पास ही न रखकर,अनेकों को प्रत्यावर्तित करने में उत्सुक हैं। इसमें न अहसान जताने की आवश्यकता है, न अहंकार करने की। गुरुदेव ने इस शक्ति का प्रत्यावर्तन करने के लिए शिष्य को अपनी पात्रता सिद्ध करने की ओर सदैव प्रोत्साहित किया है।

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के अनेकों साथियों द्वारा किए जा रहे अनेकों कृतत्व गुरुदेव की शक्ति से ही घटित हो रहे हैं।  गिलहरी की भांति सभी साथी बालू का एक-एक कण उठाकर रामसेतु रचना में कार्यरत हैं।

हमारे गुरुदेव समेत गुरु-शिष्य संबंधों से इतिहास भरा पड़ा है। रामकृष्ण परमहंस बनने के लिये जन्म जन्मान्तरों की कठोर साधना अभीष्ट है लेकिन विवेकानन्द बनना सरल है।समर्थगुरु रामदास बनने के लिये तलवार की धार पर चलने जैसी साधना करने का साहस सामान्य व्यक्तियों के पास नहीं होता। पारसमणि बनना कठिन है लेकिन लोहे से उसे  छू कर सोना बन जाना सरल है। चाणक्य जैसे  अग्नितत्व का प्रतिनिधित्व कर सकने वाली सत्ता बन सकना हर किसी का काम नहीं लेकिन  एक दासीपुत्र का दिग्विजयी सम्राट बनकर सफल होना सरल है। बुद्ध जैसी प्रतिभाएं कभी-कभी ही ईश्वरीय इच्छानुसार अवतरित होती हैं लेकिन  उनकी छाया से अशोक, आनन्द, अंगुलिमाल आदि असंख्य व्यक्ति लघुता की परिधि लांघते हुए महत्ता का वरण कर सकते हैं।

आत्मिक प्रगति की उपलब्धियों की तुलना,भौतिक प्रगति की तुलना में असंख्य गुनी सामर्थ्य सम्पन्न और हर्षोल्लासमय है। उन्हें प्राप्त कर सकना मानव जीवन की सबसे बड़ी और सबसे महान सफलता है। जो इस दिशा में बढ़ सकने में सफल हो पाया, समझ लेना चाहिए कि वह हर दृष्टि से कृतकृत्य हो गया। अक्सर समाज में भौतिक सफलताओं को सर्वोपरि माना गया है लेकिन यदि विवेकयुक्त दूरदृष्टि से विचार किया जाये तो प्रतीत होगा कि यह मान्यता सही नहीं है। 

आत्मबल सम्पन्न महामानवों का जीवन विश्लेषण करें,उनके द्वारा उपार्जित आन्तरिक आनन्द एवं अनुदानों का मूल्याँकन करें तो प्रतीत होगा कि संसार का बड़े से बड़ा सुसम्पन्न व्यक्ति भी उस तुलना में अत्यन्त पिछड़ा हुआ है।सुखी बनने के लिए सम्पदाएं नहीं, विभूतियाँ आवश्यक हैं जो आत्मिक प्रगति के पथ पर चलते हुए भी प्राप्त की जा सकती हैं।

इस मार्ग पर चलने के इच्छुक साधक को अनुभवी और सही मार्गदर्शक की आवश्यकता अनिवार्य रूप से जुटानी पड़ती है। साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि कोई प्रपंची गुरु सिंहासन सजा कर लूटने को न  बैठा हो। ऐसे जादूगर गुरु, अपने साथ-साथ शिष्य को भी डुबाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। 

सही मार्गदर्शन की तलाश में निकले हुए आत्मपथ के पथिक को गुरु के प्रति श्रद्धालु  होने के साथ-साथ सतर्क भी होना बहुत जरुरी है नहीं तो इस धूर्तता के युग में किसी बहरूपिए के जाल में फँसकर प्रगति तो दूर की बात है,जो पास में था उसे भी गँवा बैठेगा।

माता जी बता रही हैं कि गुरुदेव जीवन लक्ष्य की ओर जिस सुव्यवस्थित नीति से आगे बढ़ते चले गये उस पर दृष्टिपात करने से हम इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुँचते हैं कि आत्मिक प्रगति के पथ पर अग्रसर होने के लिए एक ऐसे जीवनसाथी की आवश्यकता है जो केवल Short-term आवश्यकता ही पूरी न करे बल्कि अन्त तक साथ निभाने के लिए निष्ठावान और पथ प्रदर्शन के लिए सामर्थ्यवान हो। उन्हें ऐसे ही मार्गदर्शक प्राप्त हुए जिसके फलस्वरूप कठिन यात्रा इतनी सार्थक और सफल हुई कि उनके साथी चकित रह गए ।

यह सर्वविदित है कि 15 वर्ष की आयु में उन्हें एक समर्थ सिद्धपुरुष, हिमालय गुरु,आदरणीय सर्वेश्वरानंद जी का अनुग्रह प्राप्त हुआ था और वह अब तक यथावत् अनवरत एवं अविच्छिन्न रूप से बना और बँधा चला आता है। ओछे व्यक्ति पग-पग पर मन डुलाते रहते हैं,एक को छोड़, दूसरे को पकड़ की उछल-कूद मचाते रहते हैं लेकिन स्थिरचित्त व्यक्ति किसी भी मार्ग को बहुत सोच विचार करके पकड़ते हैं और जब पकड़ लेते हैं तो उसे अन्त तक निभाते हैं। 

गुरुदेव के मार्गदर्शक ने इस नव-विकसित बालक में गहन श्रद्धा,अटल कर्मठता की गन्ध पाई और वे उसे सुविकसित करने के लिए टूट पड़े। श्रेय तो अनुग्रहकर्त्ता मार्गदर्शक को ही मिलना चाहिए लेकिन प्रशंसनीय वह व्यक्तित्व भी है जिसने जन्म जन्मान्तरों से अपनी पात्रता विकसित करने की साधना को पूर्ण किया और स्वयं को ऐसा योग्य बनाया कि कोई भी समर्थ देवदूत उसे प्रसन्नता पूर्वक अपना सके। गुरु शिष्य में महिमा दाता की है, ग्रहण करने वाले की नहीं। ग्रहण करने वाला वह प्रशंसनीय है जो अपनी आन्तरिक उत्कृष्टता का परिचय देकर समर्थ आत्माओं को विशिष्ट अनुकम्पा करने के लिये विवश करता है।

मात्र भौतिक लाभ प्राप्त करने वाला नहीं बल्किआत्म-कल्याण के लिए जो लालायित है उसे ही सुपात्र कहा जाता है। जिस शिष्य को अपना अन्तःकरण निर्मल,निस्पृह और उत्कृष्ट बनाने में रुचि है वह सत्पात्र है और जिसने लोकेषणा, पुत्रेषणा, वित्तेषणा से विमुख होकर विश्व  के लिये स्वयं को समर्पित करने का संकल्प किया वह महापात्र है। ऐसे हैं हमारे गुरुदेव । पात्र को देवी सहायता मिलती है। सत्पात्र श्रेय और स्नेह प्राप्त करने का अधिकारी है लेकिन  महापात्र पर तो देव सत्ताएं स्वयं तक को निछावर ही कर देती हैं।

विक्रमादित्य के पास बेताल  नाम की एक सहायिका, दिव्य आत्मा थी जो  समय-समय पर उसके कठिन प्रयोजन पूरे करती थी। अलादीन के पास एक जादुई चिराग था जिसके सहारे भूतप्रेत उसकी सहायता करने तैयार रहते थे।

ऐसी ही शक्ति गुरुदेव ने अपने मार्गदर्शक से प्राप्त की, अभी भी कर रहे हैं और जब तक ईश्वरीय प्रयोजन पूरा नहीं हो जाता है तब तक करते  रहेंगे। इसका कारण और कुछ नहीं केवल एक है, वे स्वयं को पात्र, सत्पात्र और महापात्र बनाने में तत्पर हैं। उन्होंने कभी भी गुरु की खोज नहीं की। फूल जब भौंरे और मधु मक्खी, तितली की तलाश करने नहीं जाता तो शिष्य गुरु की तलाश करने क्यों जाय? गुरुदेव अपने जिम्मे सौंपा हुआ काम करते रहते  हैं, अपने मार्गदर्शक के पास भी तब ही जाते हैं,उतने दिन के लिए जाते हैं जितने समय के लिए, जब उन्हें बुलाया जाता है।

समापन, जय गुरुदेव  


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