7 जुलाई 2025 का ज्ञानप्रसाद
हमारे साथी भलीभांति जानते हैं कि आजकल हम वंदनीय माता जी के मुखारविंद से उस शिक्षा का अमृतपान कर रहे हैं जिसे परम पूज्य गुरुदेव ने उस समय बताया था जब गुरुवर अपनी हिमालय यात्रा को छोड़कर माता जी के हार्ट अटैक के कारण शांतिकुंज आये थे। साथी यह भी जानते हैं कि माता जी के करकमलों से इस शिक्षा का सारांश जून 1972 की अखंड ज्योति में प्रकाशित हुआ था। आजकल प्रस्तुत किये जा रहे ज्ञानप्रसाद लेख उन्हीं विस्तृत लेखों पर आधारित हैं जिनका सारांश जून की अखंड ज्योति में प्रकाशित किया गया था।
शनिवार वाले विशेषांक में ज्ञानप्रसाद लेखों को ग्रहण करने की दृष्टि से आकर्षक बनाने का संकेत था। आज के लेख के साथ अटैच की गयी स्लाइड इसी प्रयोग का प्रतिबिम्ब है। इस प्रयास के पीछे धारणा थी कि यदि किसी पाठक के पास Full length लेख पढ़ने के लिए समय नहीं है,उसे लेख की “आज के ज्ञानप्रसाद लेख के मुख्य बिंदु” शीर्षक के अंतर्गत दी गयी जानकारी सहायक हो सकती है। जो साथी ध्यान से पूरे लेख पढ़कर, अंतःकरण में उतारते हुए कमेंट कर रहे हैं, उनके लिए भी प्रस्तुत स्लाइड एक Glimpse का कार्य कर सकती है।
इस प्रयोग में प्रज्ञागीत का शामिल न होना, शायद अनुचित हो, लेकिन यह सब तो प्रयोग करने के बाद ही पता चलेगा।
गुरुपूर्णिमा के लिए भेजा गया आदरणीय सरविन्द जी का योगदान सराहनीय है, आने वाले दिनों में इसके प्रकाशन को सुनिश्चित किया जायेगा।
कैसा संयोग है कि गुरुपूर्णिमा 10 जुलाई गुरुवार के दिन आ रही है, उस दिन वीडियो कक्षा न होने के बावजूद गुरुवर पर आधारित वीडियो का प्रकाशन होगा।
तो साथिओ इन्हीं updates के साथ विश्वशांति की कामना करते हुए आज के लेख का शुभारम्भ करते हैं :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
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गुरुदेव ने अपनी “साधना की सफलता” के दो कारण बताए जिसे जीवन के किसी भी क्षेत्र में Apply करके लाभ उठाया जा सकता है।
इन दो कारणों में पहला अंतःकरण का ऐसा परिमार्जन है जिसमें दिव्य विभूतियों का अवतरण सम्भव हो सके तथा जहाँ वह स्थिर रूप से देवता निवास कर सकें।
हमारे साथी भलीभांति जानते होंगें कि परिमार्जन का अर्थ सुधारना, साफ करना, धोना, या संशोधन करना आदि होता है। गुरुदेव ने सफलता का दूसरा कारण समर्थ मार्गदर्शक की उपलब्धि होना बताया है।
पिछले कुछ दिनों से हम गुरुदेव के उन निर्देशों एवं शिक्षाओं का अमृतपान कर रहे हैं जो उन्होंने वंदनीय माता जी को उस समय बताए जब गुरुदेव माता जी के हार्ट अटैक के कारण हिमालय से भागे दौड़े आये थे। वन्दनीय माता जी ने उन सभी निर्देशों का सारांश अखंड ज्योति के जून 1972 वाले अंक में प्रकाशित कर दिया था। हमारे साथिओं को स्मरण होगा कि उस सारांश पर आधारित लेख श्रृंखला का अमृतपान हम कुछ दिन पहले कर चुके हैं, आजकल उनका विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है।
चलिए आज के ज्ञानप्रसाद की ओर आगे बढ़ते हैं :
माता जी बता रही हैं कि जो कोई भी उपरोक्त दोनों उपलब्धियों को प्राप्त कर लेता है वह गुरुदेव की ही भांति आत्मिक प्रगति के पथ पर सुनिश्चित गति से सरलता और सफलता पूर्वक पहुँच सकता है।
गुरु शिष्य की भूमिका को उन्होंने अध्यात्म मार्ग का सघन सहयोग बताया और अंधे और लंगड़े के समन्वय से नदी पार करने जैसी स्थिति बताया। जहाँ शिष्य को समर्थ गुरु की सहायता से आगे बढ़ने का साहस मिलता है,वहीं गुरु भी अपना ज्ञान देकर ऋण से मुक्त होता है।
पारस्परिक सहयोग की अटूट प्रक्रिया,केवल विकास का ही नहीं आनन्द का भी आधार है:
भौतिक जगत में पग-पग पर सहयोग के तथ्य को अनुभव किया जा सकता है। परमाणु (Atom), जिसे अस्तित्व की सबसे छोटी इकाई माना जाता है, वोह भी अकेला नहीं है, इसका सहयोग देने के लिए भी इलेक्ट्रॉन,प्रोटोन, न्यूट्रॉन आदि कण उपलब्ध हैं। यह सभी कण एक दूसरे का सहयोग करते हुए,अनवरत अपने कर्तव्य का श्रद्धा से पालन करते आ रहे हैं।आकाश में ग्रह नक्षत्र पारस्परिक आकर्षण (Mutual attraction) में जकड़े रहने के कारण ही आकाश में अधर लटके हुए है। यदि प्रकृति के पंच तत्वों (आकाश, पृथ्वी, जल, वायु व अग्नि) का सहयोग न हो तो इस विश्व का अस्तित्व ही प्रकाश में न आये।
हम में से हर कोई जानता है कि विवाह-बन्धन के साथ कितने उत्तरदायित्व, बन्धन और कर्त्तव्य जुड़े हुए हैं। यदि स्त्री एवं पुरुष दोनों एक दूसरे के साथ समर्पण, श्रद्धा, विश्वास के साथ अपना कर्तव्य और उत्तरदायित्व समझते हुए सहयोग न करें तो एक ही पार्टनर पर परिवार का सारा बोझ आन पड़ेगा। ऐसी स्थिति में उस पार्टनर का कचूमर निकल जाना तो सुनिश्चित है ही, पति-पत्नी के बीच अविश्वास की दरार पनपते ज़रा भी समय नहीं लगता,स्वर्गरूपी परिवार को नरक में परिवर्तित होते कोई समय नहीं लगता।
प्रसव की विकट पीड़ा, शिशु पालन का कठिनतम कार्य,पति तथा ससुराल वालों को प्रसन्न रखने में लगभग “आत्मसमर्पण” जैसी तपस्या करनी पड़ती है। यह तो हुई स्त्री की दास्तान; परिवार के उत्तरदायित्व का वहन करने में पुरुष को भी कोई कम बलिदान नहीं करना पड़ता।
लेकिन यहाँ देखने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि इन कठिनाइयों, आत्मसमर्पण एवं बलिदान से परिचित होने के बावजूद, शायद ही कोई ऐसा स्त्री/पुरुष होगा जिसके मुँह से विवाह के सुख और एन्जॉयमेंट की लार न टपकती हो, शायद ही कोई ऐसा स्त्री/पुरुष हो जिसने विवाह की आशा लगाते हुए, सपने न देखें हों, हवाई किले न बनाये हों एवं वैसे अवसर की कल्पना मात्र से ही हर्षोल्लास का अनुभव न किया हो।
इतनी स्वर्गीय एवं सुखद कल्पना के बावजूद,ऐसा क्यों होता है कि कुछ परिवारों का दाम्पत्य जीवन विवाह के कुछ ही दिनों में नरक बन जाता है। आधुनिक समय में तो अक्सर देखा जा रहा है कि डेटिंग तो 10-10 साल चलती है लेकिन इतनी लम्बी डेटिंग के बावजूद विवाह के 6 माह में ही डाइवोर्स की बात उठना शुरू हो जाती है। ऐसी स्थिति में हमारा व्यक्तिगत (पूर्णतया व्यक्तिगत) विचार तो यही है कि परस्पर सहयोग, समर्पण, अपनत्व, विश्वास जैसे अनेकों Factors का न होना ही सुखद दामपत्य जीवन को नरक बनाने के ज़िम्मेदार होते हैं। डेटिंग के 10 वर्षों में अक्सर करियर, Pay- package, Holidaying, भौतिक सुखों की चर्चा होती रहती है, सुखद परिवार की चर्चा, आदर्श परिवार की दृष्टि को अनदेखा करते हुए,भौतिक चकाचौंध ने ऐसी पट्टी बाँधी होती है कि जब आँख खुलती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
हम फिर से कहना चाहेंगें कि यह केवल हमारे व्यक्तिगत विचार हैं,इन्हें मानना/न मानना पाठकों का अपना स्वयं का निर्णय है,ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के समर्पित बच्चों के सुखद दाम्पत्य जीवन एवं आदर्श परिवार के विषय पर परम पूज्य गुरुदेव ने अनेकों छोटी-छोटी मार्गदर्शक पुस्तिकाएं लिखी हुई हैं, इस मंच पर ऐसे अनेकों प्रयास किये जाते रहते हैं।
उपरोक्त स्थिति की चर्चा करने का अभिप्राय कतई नहीं है कि आदर्श परिवारों का अकाल पड़ गया है। हमारे आस-पास अनेकों ऐसे परिवार देखने को मिल जाते हैं जिनमें दाम्पत्य जीवन में सघन आत्मीयता विकसित होती दिखती है। ऐसे परिवारों में स्त्री/पुरुष दोनों में पारस्परिक सान्निध्य स्वर्गोपम प्रतीत होता है। अगणित कठिनाईयों को सहन करते हुए भी, दोनों जीवनसाथी, हर घड़ी आनन्द का अनुभव करते हैं। ऐसे दाम्पत्य जीवन के दोनों साथी इस तथ्य से भलीभांति परिचित होते हैं कि जीवनसाथी का अर्थ क्या होता है, एक ऐसा साथी जिसके बिना सुखद जीवन संभव ही नहीं है। ऐसे परिवारों को देखते हुए इस निष्कर्ष पर पंहुचा जा सकता है कि “आत्मिक घनिष्ठता का दाम्पत्य जीवन में तृप्ति और शाँति प्रदान करने में बहुत महत्वपूर्ण योगदान है।”
जब सहयोग और समर्पण की बात हो रही है तो ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का रेफेरेंस कैसे छूट जाए। यह परिवार है तो बहुत ही छोटा सा लेकिन समर्पण एवं साथिओं के सहयोग से ही यह परिवार आज तक अपना अस्तित्व बनाये हुए है। परम पूज्य गुरुदेव ने भी 15 करोड़ सहयोगियों का एक समर्पित परिवार रच कर समस्त विश्व के सामने एक दिव्य उदाहरण प्रस्तुत किया है। गुरुदेव के प्रेम-सूत्र एवं सहयोग के आधार पर ही इस परिवार के प्रत्येक क्रिया-कलाप संचालित किये जा रहे हैं।सभी एक-दूसरे पर इतने अटूट और अटल बंधन के साथ निर्भर हैं कि क्या कहा जाए।
जब हम सहयोग की चर्चा कर रहे हैं तो हम अपने व्यक्तिगत परिवार से लेकर, ज्ञानरथ परिवार से होते हुए,अखिल विश्व गायत्री परिवार को तो क्या, आकाश के सौर्य मंडल तक को देखें,अपने मानव शरीर को देखें, अपने आसपास फल-फूल, परिंदों आदि को देखें तो सहयोग के बिना कुछ भी संभव नहीं है।
माता जी ने सावधान करते हुए कहा है कि उपरोक्त चर्चा में पति-पत्नी का उदाहरण स्टैण्डर्ड मानकर दिया गया है क्योंकि इससे नज़दीकी रिश्ता शायद ही कोई अन्य होता हो। परस्पर सम्बन्ध कोई भी क्यों न हों; पुरुष और पुरुष का रिश्ता, स्त्री और स्त्री का रिश्ता, किसी रिश्ते में भी ऐसी “आन्तरिक सघनता” हो सकती है। ऐसी सघनता एवं मित्रता को किसी भी रिश्ते का नाम दिया जा सकता है, बिना किसी रिश्ते के भी आत्मीय (आत्मा से जुड़े) माना जा सकता है। यही ‘प्रेम’ है। हमारे परिवार के अनेकों साथी अपने कमैंट्स में,इसी प्रेम को चरितार्थ करते हुए “आत्मीय विशेषण” का प्रयोग करते हैं, आत्मीय का अर्थ आत्मा का सम्बन्ध ही है। ऐसे सभी साथिओं की सराहना करना हमारा आंतरिक कर्तव्य है। जय हो।
प्रकृति के अनुरूप व्यक्तियों से आरम्भ होकर यह मनुष्य समाज, प्राणि मात्र और तदनन्तर विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त जड़ चेतन में प्रेम फैलता विकसित होता चला जाता है। आनन्द का उद्भव और विस्तार यहीं से होता है। अन्तःकरण की कोमलता, मृदुलता, सरलता और सरसता ही वस्तुतः मानव जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। जो प्रेमी है, जो सहृदय और उदार है उसे ही आत्मिक विभूतियों से सुसम्पन्न सिद्ध मानव कहना चाहिए। ऐसा व्यक्ति ही महामानव, देवदूत और दिव्य सत्ता सम्पन्न कहलाता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग जिसे प्राप्त हो गया, समझना चाहिए कि उसने पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर लिया।
अध्यात्म साधना के क्षेत्र में प्रगति करने के लिये भी यह “सहयोग” नितान्त आवश्यक है। राम और लक्ष्मण का सहयोग ही लंका विजय में समर्थ हुआ है। महाभारत की सफलता योगिराज भगवान कृष्ण और अर्जुन के मिलन ने सम्भव की थी। छात्र कितना ही परिश्रम करे, बिना शिक्षक के मौखिक या लिखित ज्ञानदान के बिना उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकने में समर्थ नहीं होता। कला, शिल्प, विज्ञान, चिकित्सा जैसे महत्वपूर्ण विषयों के विद्यार्थी केवल किताबी ही नहीं प्रैक्टिकल शिक्षा भी प्राप्त करते हैं। इसके बिना वे अपने विषय में पूर्णतया एक्सपर्ट नहीं हो सकते।
तो साथिओ आज के ज्ञानप्रसाद लेख का यहीं पर मध्यांतर होता है, कल यहीं से आगे की ज्ञानयात्रा का शुभारम्भ करेंगें, कमेंट करके अवश्य बताएं कि साथिओं को ज्ञानप्रसाद लेखों को पढ़ाने की दिशा में किए गए नवीन प्रयोग से किसी को असुविधा का सामना तो नहीं करना पड़ा है।
जय गुरुदेव