2 जुलाई 2025 का ज्ञानप्रसाद–अखंड ज्योति मई 1972
आज के लेख की चर्चा इतनी अधिक है कि बार-बार अनेकों प्लेटफॉर्मस पर इस विषय को समझने/समझाने का प्रयास किया जाता रहा है, अनेकों को समझ आती है लाभ भी होता है लेकिन ऐसे साधकों की संख्या भी कम नहीं है जो इंस्टेंट लाभ की तलाश में होते हैं। साधक भी क्या करें,इंस्टेंट लाभ दिलाने वाले धर्मगुरुओं की तो बाढ़ आयी हुई है, ज़माना जो इंस्टेंट का है। जब हर जगह इंस्टेंट का ही बोलबाला है तो अध्यात्म का फील्ड कैसे इससे बच पाए। हज़ारों लाखों डॉलर ऐंठ कर,भांति-भांति के So-called धर्मगुरु अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं और साधक भटक रहे हैं।
इस भटकती स्थिति का निवारण करने के लिए वंदनीय माता जी ने परम पूज्य गुरुदेव से Specific प्रश्न किया और गुरुदेव ने जो विस्तृत उत्तर दिया उसी पर आधारित हैं आज और कल के ज्ञानप्रसाद लेख।
उचित रहेगा कि सारांश के बिना ही, विश्वशांति की कामना के साथ आज के ज्ञानप्रसाद का इंस्टेंट अमृतपान करके अपनी आत्मा को तृप्त किया जाए।
हमारी बड़ी बहिन जी के आग्रह से हम सबको शांतिपाठ दोहराना चाहिए, धन्यवाद् बहिन जी
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
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‘उपासना’ की सफलता ‘साधना’ पर निर्भर है।
आत्मिक प्रगति के पथ पर चलते हुए अनेक व्यक्ति एक ही मंत्र से, एक ही पूजा-विधान से,एक जितने समय तक ही उपासना करते हैं लेकिन उनमें से कोई सफल होता है तो कोई असफल। किसी को तुरन्त परिणाम दिखाई पड़ता है और किसी को मुद्दतें बीत जाने पर भी कोई सफलता दृष्टिगोचर नहीं होती। इसका क्या कारण है?
परम वंदनीय माता जी गुरुदेव से बहुत ही स्पष्ट रूप से पूछा।
गुरुदेव से यह विशिष्ट प्रश्न पूछने का कारण यह था कि गुरुदेव तो हिमालय साधना में थे, उनकी अनुपस्थिति में मुझे ही डाक का उत्तर देना पड़ता है। अनेकों पत्र ऐसे होते थे जिनमें परिजन बहुत दिनों तक बताये हुए विधान से उपासना करने के बावजूद भी कुछ परिणाम न मिलने से असन्तुष्ट थे। इस कठिनाई के समाधान के लिए गुरुदेव के मुख से जो निकला उसका साराँश नीचे की पंक्तियों में प्रस्तुत किया गयाहै:
“आत्मिक प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट उन कुसंस्कारों द्वारा प्रस्तुत की जाती है जो मनुष्य की मनोभूमि पर दुर्भावों और दुष्कर्मों के रूप में छाये रहते हैं।सबसे पहला काम इन दुर्भावों को निकाल फेंकने का होना चाहिए। बैठे तो पूजास्थली में हैं, धूप-बत्ती, घंटी, कलश आदि सब सामने रखें हैं लेकिन भाव किसी व्यक्ति की जेब काटने के लिए योजना बना रहे हैं।
आकाश में बादल छाये हों तो फिर दोपहर का सूर्य यथावत् उदय रहते हुए भी अन्धकार ही छाया रहेगा। जप-तप करते हुए भी आध्यात्मिक सफलता न मिलने का कारण एक ही है: मनोभूमि का कुसंस्कारी होना। “साधना” का थोड़ा सा गंगाजल कुसंस्कारों के गन्दे नाले में गिरकर अपनी महत्ता खो बैठता है। नाले को शुद्ध कर सकना सम्भव नहीं होता। बेशक तीव्र गंगा प्रवाह में थोड़ी-सी गन्दगी भी शुद्धता में परिणत हो जाती है लेकिन यह भी सच है कि बदबू भरे गंदे गटर को थोड़ा सा गंगा जल शुद्ध कर सकने में असमर्थ एवं असफल रहेगा। सफलता की अपनी महिमा और महत्ता है, उसे गंगाजल से कम नहीं अधिक ही महत्व दिया जा सकता है लेकिन साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि वह सर्वसमर्थ नहीं है।
न तो गंगा जल से बनी हुई मदिरा शुद्ध है और न ही गंगा जल में पकाया हुआ माँस शुद्ध गिना जायेगा। शौचालय में प्रयोग किये गए पात्र को गंगा जल से भरकर देव प्रतिमा पर चढ़ाना वर्जित है। शास्त्रों में बताई गयी गंगा जल की महत्ता यथावत बनी रहे इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि उसके संग्रह उपकरण एवं स्थान की पवित्रता भी अक्षुण्य,अनवरत बनी रहे। शास्त्रों में गंगा जल को अमृत की संज्ञा दी गयी है। अमृत (अ-मृत) यानि मृत्यु को Reverse करने वाला जल।
आदरणीय चिन्मय जी के उद्बोधनों में धुलाई और रंगाई का उदाहरण अक्सर दिया जाता रहा है। आइए उसी उदाहरण की सहायता से उपासना और साधना का विषय समझने का प्रयास करें।
रंगरेज कपड़ा “रंगने” की प्रक्रिया उसकी “धुलाई” से आरम्भ करता है। यदि रंगरेज़ को रंगने के लिए मैला कपड़ा दिया जाये तो पहले वोह उसे धोएगा । धुले हुए कपड़े पर ही रंग का चढ़ना या चढ़ाया जाना सम्भव होता है। “उपासना को रंगाई कह सकते हैं और साधना को धुलाई।” दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं। इनमें से कौन प्रधान एवं महत्वपूर्ण है,दोनों का वर्गीकरण करना हो तो साधना को Primary और उपासना को Secondary मानना पड़ेगा। धुला वस्त्र बिना रंगे हुए भी अपनी गरिमा बनाये रह सकता है लेकिन मैला वस्त्र गन्दा तो है ही,रंग को भी बर्बाद ही करेगा और रंगरेज को अलग से बदनाम करेगा। अगर गुरु को रंगरेज़ मान लिया जाये, तो बिना साधना के उपासना करने वाले गुरु ही आधुनिक युग के गुरु हैं। चुटकी बजाते ही साधक बनाते ऐसे गुरुओं से हमारे TV चैनल भरे पड़े हैं। ऐसे गुरु स्वयं तो उपहासास्पद बनते ही हैं साधक को भी भ्र्म में डालने के इलावा और कुछ नहीं कर पाते। इस प्रकार का किया गया Instant श्रम भी कोई सार्थक परिणाम न ला पायेगा ।
आत्मिक प्रगति के पथिक आमतौर से यही भूल करते रहते हैं और असफलता का दोष उस “पुण्य प्रक्रिया” को देते हैं जिसे सही ढंग से अपनाने वाले सदा लाभांवित होते हैं। सच में देखा जाए तो इस असफलता का कारण साधक नहीं बल्कि वोह मार्गदर्शक, धर्मगुरु हैं जो इंस्टेंट का ढिंढोरा पीटते रहते हैं। साधक बेचारा क्या करे, वोह तो “इन्सटैंट प्रक्रिया” से आकर्षित हो जाता है, ज़माना जो इंस्टेंट का है। इतना समय किसके पास है जो हिमालय पर जाकर तपस्या करे, स्वयं को तपाए,अपनी धुलाई करे और फिर रंगाई की सोचे। जिन धर्मगुरुओं ने बहुमूल्य महंगी वस्तु को सस्ती बता कर लोगों को आकर्षित करने का ही प्रचार किया, उसकी ही मार्केटिंग की,वह इस तथ्य को भूल गये कि अभीष्ट प्रतिफल न मिलने पर जो निराशा और अविश्वास भरी प्रतिक्रिया उत्पन्न होगी उसका क्या परिणाम होगा। सस्ते प्रलोभनों से भ्रमाया व्यक्ति आरम्भ में अति उत्साही हो सकता है लेकिन उसकी निराशाजनक प्रतिक्रिया नास्तिकता के रूप में ही परिणत होकर रहेगी।
अध्यात्म तत्वज्ञान के मूल आधार से अपरिचित किन्तु उसकी ध्वजा उड़ाने वाले तथाकथित गुरु लोग औंधी सीधी पुस्तकें रचकर यह मिथ्या मान्यता फैलाते रहे हैं कि अमुक पूजा-अर्चना करने से उन्हें पापफल के दण्ड भुगतने की छूट मिल जायेगी। यह प्रतिपादन लोगों को बहुत ही आकर्षक लगता है क्योंकि अनाचार अपनाने वाले लोग प्रत्यक्षतः सदाचार परायण लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक भौतिक सुख सुविधायें प्राप्त कर लेते हैं। छल-छद्म का परिणाम अन्ततः बुरा ही क्यों न हो लेकिन तत्काल तो उन हथकण्डों से लाभ मिल ही जाता है। पाप-पथ अपनाने वाले असुर प्रवृति के लोग देवताओं से अधिक बलिष्ठ रहे हैं यह स्पष्ट है। बाद में भले ही उनकी दुर्गति हुई हो लेकिन आरम्भिक लाभ तो उन्हें ही मिलता है।
देवत्व प्राप्ति का आरम्भिक कार्य, तप साधना की कष्टकर प्रक्रिया से आरम्भ होता है। लम्बी दूरी तक उस मार्ग पर चलने के बाद ही देव पुरुष आनन्द उल्लास प्राप्त करते हैं। ऐसी दशा में इंस्टेंट लाभ को प्रधानता देने वाले अदूरदर्शी लोग कुमार्गगामिता के सहारे तुरन्त लाभान्वित होने की रीति-नीति अपनाते हैं, लेकिन उन्हें यह खुटका बना रहता है कि कभी न कभी इन कुकर्मों का कष्टकारक प्रतिफल भोगना पड़ेगा।
इस चिन्ता से तथाकथित धर्मगुरुओं के रचे भोंडे फूहड़ ग्रन्थ मुक्ति दिला देते हैं। उनका कहना है अमुक माला जपने वाले या अमुक पूजा अर्चना करने वाले को पाप कर्मों के दण्ड भुगतने से छुटकारा मिल जाता है। यह बहुत बड़ी बात है। यदि दण्ड का भय न रहे तो फिर पाप कर्मों द्वारा प्राप्त हो सकने वाले लाभों को छोड़ने को कोई कारण ही नहीं रह जाता।
इस प्रकार उपरोक्त आश्वासनों पर विश्वास करने वाले यह मान बैठते हैं कि उनके पाप कट गये। अब वे कुकर्मों के दण्ड से पूर्णतया छुटकारा पा चुके। भूतकाल में किये हुए या भविष्य में किये जाने वाले पापों के दण्ड से देवतारुपी गुरु या मंत्र बचा लेगा कि जिसे थोड़ा-सा जप, स्तवन, पूजन आदि करके या किसी दूसरे से कराके सहज ही बहकाया, फुसलाया और अनुकूल बनाया जा सकता है।
इस मिथ्या मान्यता का आज बहुत प्रचलन है। हर कोई इसी सस्ते नुस्खे को दोहराता है। मतवादी यही ढोल पीटते हैं कि हमारे सम्प्रदाय में भर्ती हो जाने पर हमारा खुदा सारे गुनाह माफ कर देगा। इस बहकावे में आये बाहर से बताते हुए ‘कर्मकाण्ड’ करते रहते हैं और भीतर से पाप कर्मों में निर्भय होकर प्रवृत्त रहते हैं। धर्म के नाम पर प्रस्तुत की गई मिथ्या मान्यताओं ने आज सर्वत्र यही स्थिति उत्पन्न कर दी है और सच्चा विश्लेषण करने पर पूजा-पाठ न करने वालों की अपेक्षा उस प्रक्रिया में निरत लोग अधिक अनैतिक और अवाँछनीय गतिविधियों में प्रवृत्त पाये जाते हैं।
ऐसी स्थिति में आत्मिक प्रगति सर्वथा असम्भव है।
जब साधना का प्रथम चरण ही पूरा नहीं किया गया तो उपासना का दूसरा चरण कैसे उठेगा। जब पहली मंजिल ही बन कर तैयार नहीं हुई तो भवन की दूसरी मंजिल बनाने की योजना कैसे पूर्ण होगी।
आज के लेख का मध्यांतर यहीं पर होता है,कल इसके आगे चलेंगें।