वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

माता जी द्वारा गुरुदेव के क्रियाकलापों का संक्षिप्त वर्णन 

अपने सर्वप्रिय,समर्पित साथिओं के साथ लिए गए वचन का पालन करते हुए कल जिस लेख को प्रस्तुत किया था उसका आज दूसरा एवं अंतिम भाग प्रकाशित किया जा रहा है। माता जी के मुखारविंद से  गुरुदेव के भावी क्रियाकलापों का वर्णन सुनना एक दिव्य अवसर है।  

मई 1972 की अखंड ज्योति में प्रकाशित अनेकों ऐसे लेख हैं जिनका कुछ प्रतिशत भी अंतःकरण में उतार लिया जाए तो कायाकल्प निश्चित है। 

आज के लेख में माता जी इतनी छोटी-छोटी बातें समझा रही हैं जो ऑनलाइन ज्ञानरथ के मंच पर अक्सर देखी जा रही हैं। छींक मारने जैसी हरकतों के लिए गुरुदेव की शक्ति की याचना करना कहाँ तक उचित है, माता जी आज के लेख के माध्यम से समझा रही हैं। आवश्यक रहेगा कि लेख को यथासंभव “ध्यान” से पढ़ा और समझा जाए। 

अब विश्वशांति की कामना का समय है,आइए इसको पूर्ण करें और निष्ठापूर्वक आज के ज्ञानामृत की एक-एक बूँद से शक्ति का संचार करें : 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥ 

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जब गुरुदेव 1 जुलाई,1971 को गये थे तब कुछ और ही वातावरण था और जब जनवरी 1972 में लौटे तो परिस्थिति बिलकुल दूसरी थी।

बसन्त पर्व पर परिजनों को अतिरिक्त प्रेरणा और प्रकाश देने का वचन देकर वे गये थे। इन सात महीनों में उपरोक्त काली घटाओं को निरस्त करने के अतिरिक्त जो शक्ति बची उसे उन्होंने परिवार के प्रबुद्ध परिजनों को आवश्यक प्रकाश प्रदान करने में लगा दिया। धागे में पिरोये हुए मोतियों की तरह उन्होंने इतना बड़ा परिवार अपने साथ प्रेम बन्धनों में जकड़ कर बाँध रखा है। उस परिवार की प्रगति अवनति अपनी समस्या है। यदि युग-निर्माण परिवार के सदस्य ऐसे ही लोभ मोह में ग्रस्त,पेट और प्रजनन में व्यस्त,वासना और तृष्णा में  पशु जैसा जीवन जीकर मर जाते हैं तो यह गुरुदेव के लिए कलंक की बात तो है ही लेकिन गायत्री परिवार के लिये भी कोई कम लज्जा की बात न होगी। हाथी के बच्चे बकरों की शक्ल में दिखें इसमें मज़ाक हाथी का भी है और बच्चों का भी। परिवार यदि बन ही गया तो शोभा उसी में है कि उसका स्तर भी कुलपति के अनुरूप हो। 

हर अभिभावक की अपनी सन्तान के प्रति ऐसी ही इच्छा रहती है। उनकी भी है। युग-निर्माण परिवार का प्रत्येक सदस्य महामानवों की ऐतिहासिक भूमिका निभा सके,इसी उधेड़ बुन में वे लगे रहते हैं। अपना तप-पुण्य देकर आरम्भिक लालच भी इसीलिए पूरा करते हैं कि आगे चलकर सम्भवतः यह बालक उनके आदेशों को अपनाने का साहस करेंगे। 

गुरुदेव को बसन्त पर्व पर कुछ ऐसी ही प्रेरणायें देनी थीं। इसके लिए तपशक्ति भी अभीष्ट थी सो उन्होंने इन दिनों के उपार्जन में से जितना कुछ बचा खुचा था इसी निमित्त लगा दिया। अधिकाँश परिजनों ने बसन्त पर्व पर उनका प्रकाश अपने इर्द-गिर्द एवं अन्तरंग में प्रस्तुत देखा भी है। इन अनुभूतियों में कल्पना/भावुकता कम और यथार्थता अधिक रही है। गत सात मास की तप साधना की आमदनी और खर्च का यही लेखा-जोखा है जो उन्होंने मुझे बताया।

माता जी के पूछने पर कि भविष्य में गुरुदेव शान्तिकुंज कब आयेंगे एवं उनका भावी कार्यक्रम क्या रहेगा तो गुरुदेव ने बताया:

जब भी एकान्त साधना के माध्यम से वितरण कर सकने योग्य कुछ मसाला संग्रहीत हो जाया करेगा तब उसे बांटने के लिए ही आया करेंगे। यह परिस्थितियों पर निर्भर है कि युग-निर्माण परिवार के सदस्यों के लिए कुछ संचित होता भी है कि नहीं। पिछले सात मास की तप साधना में अर्जित की गई शक्ति बँगलादेश से सम्बन्धित विभीषिका,बसन्त पर्व और मेरी बीमारी में लग गई।जितना कमाया था वह खर्च हो गया। अब शांतिकुंज रहने का कोई औचित्य नहीं रहा। समय ही बतायेगा कि आगे भी कोई ऐसी ही विश्व-विभीषिका तो उत्पन्न नहीं हो जाती है, उसी में तो जुटना न पड़ जाए।

इसके अतिरिक्त गुरुदेव के मार्गदर्शक (दादागुरु) का आदेश सबसे  प्रधान है। उनकी इच्छा/आज्ञा के बिना वे एक कदम भी कहीं नहीं रखते। इस प्रकार की अनुकूलता होने पर जमा पूँजी का वितरण करना ही यहाँ शांतिकुंज आने  का उद्देश्य होगा। 

माता जी आगे बताती हैं कि एक मोटा कारण जो उन्होंने तो नहीं बताया लेकिन मेरी समझ में आता है कि परिजन भावावेश में गुरुदेव के  दर्शनों के लिए दौड़ पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में कहा जा सकता है कि जहाँ परिजनों के प्रेम की,मोह ममता की,स्नेह सौजन्य की प्रशंसा की जायेगी, वहाँ उनके विवेक को ओछा  भी माना जायेगा। हर कोई अपने प्रिय गुरु से मिलना चाहता है। गुरुदेव का अन्तःकरण प्रेम और ममता से लबालब भरा है। यों तो गुरुदेव समस्त संसार को अपना मानते हैं, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओतप्रोत रहते हैं लेकिन  परिष्कृत अन्तःकरण के आत्मीयजनों के प्रति उनकी ममता और भी प्रगाढ़ है। कोई संसारी व्यक्ति अपने स्त्री/बच्चों को जितना प्यार कर सकता है, गुरुदेव  उससे कम नहीं अधिक ही प्यार करते हैं। 

ऐसी दशा में यह उचित ही है कि परिजन उन्हें उतना ही प्यार करें। यह भी स्पष्ट ही है कि प्यार के उभार में उफान होता है और उस उमंग में मिलने की लालसा उत्कृष्ट हो उठती है। 

यही कारण है कि जब वे कहीं जाते थे तब लाखों व्यक्ति उनसे भेंट करने के लिए दौड़ पड़ते थे। उनके प्रवचनों में जितना प्रभाव है उससे कई हजार गुना अधिक आकर्षक उनका व्यक्तित्व है। इसलिए आत्मीयजनों की मिलने की इच्छा उचित भी है, विशेषकर तब जब वे कष्टकर कठिन परिस्थितियों में तप करके बहुत दिन बाद वापिस लौटे हों।

इस परिस्थिति का एक उदाहरण तब देखा गया जब वे 21 से 30 जून तक दस दिन शांतिकुंज  रहकर 100 प्रवचन टेप कराने वाले थे और मुझे कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रशिक्षण देने वाले थे। लेकिन प्रिय परिजन अपनी मोह ममता को कम न कर सके और उन 10  दिनों में 1000  से अधिक व्यक्ति दर्शन के लिए हरिद्वार आ गये।सभी  योजनायें पीछे रह गई और भेंट-मिलन प्रधान बन गया। वोह  दस अत्यन्त महत्वपूर्ण दिन ऐसे ही भावावेश की पूर्ति में चले गये। मेरी बीमारी के दिनों में भी ऐसा ही हुआ, जिन्हें भी पता चला वे भावावेश में दौड़ पड़े और आवश्यकता से कहीं अधिक समय तक उन्हें यहाँ रुकना पड़ा।

हो सकता है भविष्य में इस प्रकार की भावावेश-पूर्ण पुनरावृत्तियाँ न होने देने लिये ही गुरुदेव ने  यह उचित समझा हो कि आने और चले जाने का समय अनिश्चित रखा जाए। वैसे तो शांतिकुंज में गुरुदेव ने अपना एकान्त कक्ष बना लिया है, जब तक यहाँ रहेंगे उसी में रहेंगे और आवश्यक प्रयोजनों के पूर्ण होने के बाद  ही मिलने के लिए नीचे उतरेंगे। यहाँ भी अधिकाँश समय गुरुदेव एकान्त में ही रहेंगे। दर्शनार्थियों से अकारण मिलते रहना उनके लिए संभव न होगा। यूं तो पहले भी वे लोकमंगल की जीवन साधना में ही निरत थे लेकिन अब तो उस क्रम का स्तर असंख्य गुना बढ़ गया है। इसलिए “गुरुदेव का  एक-एक क्षण विश्व मानव की बहुमूल्य निधि है।” उसमें भावावेश के कारण व्यतिरेक उत्पन्न करना समस्त संसार को उस लाभ से वंचित करना है जिस पर मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य की संभावनायें निर्भर हैं।

गुरुदेव  जिन्हें बुलायें उन्हें ही आना चाहिए, जिन्हें मिलना नितान्त अभीष्ट हो उन्हें पहले से ही मुझे अपना नाम और प्रयोजन नोट करा देना चाहिए। यदि उचित समझा जायेगा तो उन्हें सुविधानुसार बुला लिया जायेगा। ऐसे अनुरोधों में एक ही बात ध्यान में रखने की है कि “छोटे-मोटे  कार्यों के लिए आशीर्वाद प्राप्त करना इस मिलन का प्रयोजन नहीं होना चाहिए।” जो बहुमूल्य समय लिया जाय उसमें आत्मोत्सर्ग की, परमार्थ प्रयोजनों की ही चर्चा की जाय। शाखा संगठन-आशीर्वाद अनुदान जैसे काम जो मुझे सौंप दिये गये हैं उन के लिए गुरुदेव को कष्ट देना उचित नहीं।

यह तो स्पष्ट है कि उनके आगमन का अन्तिम स्थान हरिद्वार ही है। हिमालय और गंगा तट ही उनके भावी जीवन का क्रियाक्षेत्र रहेगा। अन्यत्र जाने का उनका कोई  विचार नहीं है। इसमें विदेश यात्रा एक Exception है जिसके लिये वे पहले से ही वचनबद्ध हो चुके हैं। 

गुरुदेव का  कहना है कि विचार ही विचारों को प्रभावित कर सकते हैं और भावना ही  भावनाओं को। विचार का प्रभाव वस्तुओं पर नहीं पड़ सकता, इस मान्यता को गलत सिद्ध करने के लिए ही उन्हें विदेश जाना होगा। प्रवासी भारतीयों का भी आग्रह इसी प्रकार का है जो पूरा करना पड़ेगा। विदेश यात्रा की तिथि अभी निश्चित नहीं है लेकिन  कभी न कभी जाना पड़ सकता है। 

विदेश यात्रा की इस Exception  के अतिरिक्त सप्त ऋषियों की तपस्थली जहाँ गंगा ने उनकी सुविधा के लिए अपनी सात धारायें चीर दी थीं, वहीं अवस्थित शांतिकुंज  उनका अन्तिम आवागमन स्थल रहेगा। वहीं से उन्होंने बहुत  कुछ पाया है इसलिए  उसी खदान में से कुछ और बहुमूल्य रत्न खोज निकालने के लिए वे लगे ही रहेंगे।

युग-परिवर्तन के साथ-साथ परिस्थितियाँ बदल जाती हैं। पृथ्वी सौर मण्डल के साथ अनन्त आकाश में भ्रमण करती रहती है। अपनी कक्षा में घूमते हुए भी वह सौर मण्डल के साथ कहीं से कहीं चली जाती है। इस परिभ्रमण में ब्रह्माण्ड किरणों की न्यूनाधिकता से मानव शरीर और मन की सूक्ष्म स्थिति में भारी अंतर पड़ जाता है। साँसारिक परिस्थितियाँ और भौतिक हलचलें, सामाजिक विधि,व्यवस्थायें भी मानव जीवन की मूलभूत स्थिति में भारी अन्तर प्रस्तुत कर देती हैं। इस परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए ही युगसाधना का स्वरूप समय-समय पर निर्धारित करना पड़ता है। प्राचीन काल की साधना विधियाँ उस समय के मानव शरीरों की स्थिति के अनुरूप थीं, परिवर्तन के साथ साधन क्रम भी बदलेंगे। यदि बदलाव  न किया जाय तो प्राचीनकाल में सफल होने वाली साधनाएँ अब सर्वथा निरर्थक और निष्फल सिद्ध होती रहेंगी।

इस प्रकार का शोधकार्य अब नितान्त आवश्यक हो गया है अन्यथा साधकों की यह शिकायत बनी ही रहेगी कि हमने ग्रन्थों के अनुसार तप साधन किया लेकिन  उसका कुछ परिणाम न निकला। 

गुरुदेव भौतिक विज्ञान की ही तरह अध्यात्म विज्ञान को भी प्रत्यक्ष करना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि इसके बिना सर्वसाधारण की अभिरुचि आत्म-विज्ञान की ओर हो ही नहीं सकेगी। गुरुदेव के वर्तमान साधनाक्रम को इसी स्तर का शोधकार्य समझा जाना चाहिए। 

समय, मन और शरीर की शक्तियों को उपरोक्त प्रयोजनों में लगाये रहने की दृष्टि से ही वे प्रिय परिजनों से पृथक रहने का साहस कर सके हैं। यों इस वियोग का कष्ट उन्हें भी कम नहीं है लेकिन उत्तरदायित्व को देखते हुए परिजनों की तरह उन्हें भी मन मसोस कर अपने निर्धारित कर्त्तव्य में संलग्न रहने को विवश रहना पड़ता है।

समापन।

कल एक और नया लेख।


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