वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

शांतिकुंज गुरुदेव का डाक बंगला है। 

अखंड ज्योति मई 1972 की अखंड ज्योति पर आधारित ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का आज का दिव्य ज्ञानप्रसाद विशेषता से ओतप्रोत है। यह ज्ञानप्रसाद इस दृष्टि से विशेष तो है ही कि वंदनीय माता जी के श्रीचरणों में समर्पित होकर उनके ही मुखारविंद से दुर्लभ ज्ञान का अमृतपान हो रहा है, विशेषता तो यह भी है कि आज सप्ताह का प्रथम ऊर्जामई दिन सोमवार है, विशेषता तो यह भी है कि आज जून माह का अंतिम दिन है, विशेषता तो यह भी है कि आज का ज्ञानप्रसाद एक ऐसा सन्देश लेकर आया है जिसे अपने अतःकरण में उतार लिया जाए तो जीवन का स्वर्गमय होना सुनिश्चित है। 

माता जी हार्ट अटैक वाला अपना ही उदाहरण देकर बता रही हैं कि यदि कमाई कम हो और खर्चा अधिक तो क्या स्थिति बनती है। शायद आद अरुण जी ने माता जी का सन्देश पहले ही सुन लिया और एक शनिवार परिवार के लिए सुरक्षित कर दिया।

आइए एक समर्पित,परिश्रमी विद्यार्थी की भांति माता जी के अमृत वचनों को ग्रहण करें,अपनी नोटबुक में पॉइंट्स नोट करते जाएँ। 

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शान्तिकुँज की स्थापना गुरुदेव ने श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट के अंतर्गत इसलिए की कि वे इस केन्द्र पर स्वयं आकर और संस्कारी आत्माओं को बुलाकर प्रकाश परामर्श एवं स्नेह सहयोग प्रदान करते रह सकें। 

अफसर दौरे पर जाते हैं, उनके लिये उपयुक्त परिस्थिति वाले “डाक बंगले” बने होते हैं। जितनी आवश्यकता होती है उतनी देर ठहर कर अफसर अन्यत्र चले जाते हैं।इसीलिए यह गुरुदेव का डाक बँगला है।

भावी जीवन वे तप साधना और दिव्य संपर्क में लगायेंगे।वहाँ से जो मिलेगा उसे वितरण करने के लिये इस केन्द्र पर आयेंगे। जैसे कोई श्रमिक परदेस में जाकर मजदूरी करता है,महीने में जो कमाता है उसे डाकखाने में जाकर घर वालों के लिये मनीआर्डर कर देता है, शान्तिकुंज गुरुदेव का डाकखाना है। वे आवश्यकतानुसार यहाँ मनीआर्डर कराने ही आया करेंगे।

गुरुदेव शांतिकुंज कब आयेंगे और कब चले जायेंगे, उन्होंने इसकी  पूर्व सूचना न देने का निश्चय किया है। आवागमन तो  बनाये ही  रखेंगे लेकिन आवागमन की तिथियों का निश्चय नहीं होगा। 

1972 की बसन्त पर्व तक का प्रतिबन्ध था सो वह अवधि पूरी करके गुरुदेव शांतिकुंज आए और कुछ समय ठहर कर अभीष्ट प्रयोजन पूरा होते ही चले भी गये। अब कब आयेंगे यह अनिश्चित है,भविष्य में वे कभी भी आ या जा सकते हैं।

प्रत्यक्ष और तात्कालिक कारण यही था कि मेरी दशा अचानक चिन्ताजनक हो गई। हृदयरोग के भयानक तीन दौरे पड़े। डाक्टरों को आश्चर्य था कि इतने तीव्र दौरे से भी कोई कैसे बच सकता है। स्थिति की विषमता मेरे सामने भी स्पष्ट थी। संकोच तो हुआ कि अपने निजी काम के लिये उनके क्रियाकलाप में व्यवधान क्यों उत्पन्न करूं लेकिन  दूसरे ही क्षण यह भी ध्यान आया कि मेरी सत्ता अब मेरी कहां रही है। मैं तो विश्व मानव के चरणों पर उन्हीं के द्वारा समर्पित, मात्र एक फूल ही तो हूँ। ऐसी दशा में अपने अगले जन्म के लिये उपयुक्त आधार प्राप्त करने के लिये कुछ अनुरोध करूं भी तो कोई अनुचित न होगा। इस विपत्ति की घड़ी में यही सूझा और यही उपयुक्त लगा। 

सो उन्हें पुकारा और कहा:यदि यह शरीर जा ही रहा है तो इसे अपने हाथों ठिकाने लगा दिया जाये और अन्तिम समय आँखों के आगे रहें तो इसे मेरा सौभाग्य ही कहना चाहिए और गुरुदेव दौड़े आये। कुछ समय रहे और जीवनदान देकर चले गये।

वंदनीय माता जी बता रही हैं कि पिछले दिनों होता यह रहा है कि गुरुदेव द्वारा सौंपे हुए प्रयोजनों को पूरा करते हुए उपार्जित पूँजी की अपेक्षा खर्च बहुत अधिक होता रहा। ऐसी स्थिति में जिस दुर्गति की आशा थी वही हुई। 

आगे चलने से पहले लेखक के मस्तिष्क में उठ रहे विचारों का निम्नलिखित प्रकाट्य उचित रहेगा:

रामकृष्ण परमहंस,अदि शंकराचार्य जैसे अनेकों महान आत्माओं के इतिहास से ज्ञात होता है कि इन्होनें न जाने कितनों को जीवनदान दिया होगा लेकिन स्वयं इनकी मृत्यु इतनी कष्टकारी क्यों रही ? इन्होने अपनी तप-शक्ति का प्रयोग अपने लिए क्यों नहीं किया ?  

गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस जी की गले के कैंसर से मात्र 50 वर्ष की आयु में मृत्यु, जगद्गुरु आदि शंकराचार्य जी की भगन्दर व्रण (जिसे अंग्रेजी में Fistula कहते हैं) के कारण मात्र 32 वर्ष की आयु में मृत्यु,स्वामी रामतीर्थ जी की मात्र 32 वर्ष की आयु में जल समाधि लेकर मृत्यु, स्वामी विवेकानन्द जी की मात्र 39 वर्ष की आयु में Brain Hemorrhage से मृत्यु, भगवान बुद्ध की उदरशूल(पेट दर्द) से मृत्यु कुछ ऐसी घटनाएं हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि महामानवों के साथ भी अनहोनी जैसी घटनाएं घटती रही हैं। ऐसे महामानवों में पाप/ प्रारब्ध/असंयम कारण न होकर उनके तप द्वारा संग्रह की गई पूँजी की तुलना में व्यक्तियों की सहायता और समाज की सेवा में खर्च की मात्रा अधिक बढ़ जाना ही उस भोग का कारण था। 

प्रकृति किसी को भी क्षमा नहीं करती।कमाई  और खर्च के बैलेंस का जब भी उल्लंघन होगा,गड़बड़ी उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इस उल्लंघन में प्रकृति के निष्ठुर नियम, साधु और असाधु, मानव और महामानव, बड़े और छोटे में  भी कोई भेदभाव नहीं करते। वंदनीय माता जी बता रही हैं कि अपने  ऊपर भी कुछ इसी तरह की स्थिति आन पड़ी। शान्तिकुंज में कुंवारी कन्याओं द्वारा अखण्ड दीपक पर अखण्ड जप ही इन दिनों अपना एकमात्र उपार्जन है। थोड़ा बहुत जप स्वयं भी कर लेती हूँ लेकिन बाकी सारा समय तो इतने बड़े परिवार को समुचित स्नेह और प्रकाश देने के उत्तरदायित्व वहन करने में ही लग जाता है। “उपार्जन कम और खर्च अधिक” होने के कारण कोई भी दुर्गतिग्रस्त हो सकता है,मुझे भी होना पड़े तो इसमें कोई भी आश्चर्य की बात नहीं है। 

सच पूछा जाय तो उपरोक्त महामानवों की भांति हमारी भी अन्तिम इच्छा यही है कि हम कीड़े-मकोड़ों की तरह नहीं बल्कि एक आदर्श के साथ जीवन त्यागें। गुरुदेव ने अपने अंग-प्रत्यंगों का दान कष्ट-पीड़ितों के लिए पहले ही वसीयत के रूप में कर दिया है। मेरा रक्त तो उतना शुद्ध नहीं है इसलिये गुरुदेव जैसे अनुदान की अधिकारिणी तो न बन सकी लेकिन इतनी अभिलाषा तो रहती ही है कि किन्हीं कष्ट पीड़ितों की सहायता करते हुए, उनका कष्ट-भार अपने ऊपर उठाते हुए इस शरीर का समापन हो। 

जनवरी 1972 में कुछ ऐसा ही अवसर आ गया था जब न मरने का डर था,न कोई गम,न काया का मोह,न जीने का लोभ। केवल एक ही इच्छा थी कि गुरुदेव जैसे जिस गगनचुम्बी  वृक्ष पर चढ़ कर अमरबेल (इस बेल को आकाशबेल भी कहते हैं) की भांति मेरा जीवन ऊंचा और सुनहरी दिखा, जिसका स्नेहरस पीकर मेरा विकास हुआ,उसी की सत्ता में अपनी सत्ता को सूक्ष्मरूप से तो मिला ही चुकी थी,अब मरणकाल में भी उस प्रकार की समीपता का लाभ मिल जाय तो अच्छा होगा। मैने गुरुदेव को इसी भावना से पुकारा था और वह आये भी और चले भी गये। अब तो मुझे जीवन/मरण एक सा ही लगता है। इतने दिनों के बाद गुरुदेव के दिव्य दर्शन हुए, इसका आनन्द इतना अधिक रहा कि तात्कालिक कष्ट की निवृत्ति की प्रसन्नता स्वल्प ही लग रही थी।

अमरबेल के बारे में कहा जाता है कि यह पतली सी बेल क्लोरोफिल न होने के कारण अपना भोजन बनाने में असमर्थ है,इसीलिए इसे पैरासाइट कहा जाता है। जिस भी पेड़ के साथ यह चिपक जाती है उसी से अपना पोषण कराती  रहती है और न जाने रेंगते-रेंगेते, कौन सी ऊंचाई तक पंहुच जाती है। माता जी गुरुदेव से स्वयं को जोड़कर उनकी  ऊंचाई की ही सराहना कर रही हैं।

माता जी की सराहना से ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के एक-एक बच्चे को शिक्षा लेनी चाहिए कि गुरुदेव जैसे विशाल,गगनचुम्बी वृक्ष के साथ जुड़ने के बाद Sky is the limit,आप चाहें  ऊपर उठें यां इस शीतल वृक्ष की छाया में सकून प्राप्त करें,Choice is yours शर्त केवल एक ही है। समर्पण और संकल्प,उसके बिना और कोई विकल्प है ही नहीं      

गुरुदेव जितने दिन शांतिकुंज में रहे, कुछ न कुछ वार्तालाप भी चलता रहा। कुछ अनुभूतियाँ और उपलब्धियाँ तो ऐसी थीं  जो समय से पूर्व प्रकाशित नहीं की जा सकती थीं लेकिन उनमें लोकोपयोगी अंश भी कम नहीं हैं। मैं ऐसे प्रश्न पूछती ही रही जो परिजनों की दिलचस्पी के थे और वे उत्तर देते भी रहे। गुरुदेव सबकी दिलचस्पी के केन्द्र हैं। उन्हें देखने को करोड़ों आँखें लालायित रहती हैं और करोड़ों कान व्याकुल रहते हैं। ऐसी दशा में मेरे साथ जो बातें  होती रहीं उन्हें समस्त विश्व के लिए, प्रबुद्ध परिजनों के लिए ही कहा, सुना समझा जाना चाहिए। अस्तु उनका प्रकाश में लाना और सर्वसाधारण तक पहुँचाना ही उपयुक्त समझा गया। इसलिये वार्तालाप के महत्वपूर्ण अंश नोट कर लिये गये थे। अब इस अंक(मई 1972)  में उन्हें ठीक ढंग से लिखा और छापा जा रहा है। यह पूरा अंक उसी वार्ता विवरण का प्रकटीकरण समझा जाना चाहिए। 

20 जून 1971 को हम लोग मथुरा से शांतिकुंज आ गये थे। 10 दिन गुरुदेव यहाँ रहे और 1 जुलाई 1971  को अपने निर्धारित स्थान को चले गये। पूरे सात मास वे अपने साधनात्मक प्रयोजन में लगे रहे। यह अवधि उन्हें विश्व के भविष्य की विशेषतया भारतीय राष्ट्र की स्थिति को अन्धकार में धकेल सकने वाली काली घटाओं को हटाने में जूझते रहना पड़ा। बँगला देश की स्थिति उन महीनों में अत्यन्त नाजुक दौर से गुजरती रही । चीन और अमेरिका ने प्रत्यक्ष से भी अधिक परोक्ष रूप में ऐसी दुरभि सन्धि युक्त योजना बनाई हुई थी जो यदि सफल हो जाती तो भारत की स्थिति दयनीय हुए बिना न रहती और पाकिस्तान की दुष्टता अबकी अपेक्षा हजार गुनी बढ़ जाती। भारत हारता तो उसकी प्रतिक्रिया समस्त संसार में प्रगतिशील शक्तियों के विरुद्ध ही पड़ती। बँगला देश उन दिनों 30 लाख प्रबुद्ध और समर्थ लोगों की बलि चढ़ाकर,1 करोड़ विस्थापित बाहर भेजकर दयनीय स्थिति में पड़ गया था।  मुक्ति वाहिनी अधूरे साधनों से नाम मात्र की लड़ाई लड़ रही थी। सैन्य स्थिति से भी और कूटनीति की स्थिति से भी उनका पक्ष दुर्बल पड़ता जा रहा था। संसार के इस अभूतपूर्व नरसंहार पर संसार का कोई देश मुँह तक नहीं खोल रहा था। राष्ट्रसंघ में प्रश्न आया तो वहाँ भी पाकिस्तान का ही समर्थन किया गया। इन परिस्थितियों में सर्वत्र चिन्ता ही चिन्ता संव्याप्त होना स्वाभाविक था।

ऐसी स्थिति में जिस प्रकार परिस्थितियों ने जिस तरह पलटा खाया,जिस तरह बाज़ी  उलटी हुई उससे समस्त संसार आश्चर्यचकित रह गया। विश्व-कूटनीति के परिचितों में से किसी को भी यह आशा न थी कि परिस्थितियाँ इस तरह करवट लेंगी और बंगला देश की मुक्ति इस रूप में सम्भव होगी एवं भारत का वर्चस्व एक बार फिर मूर्धन्य स्तर तक पहुँचेगा। इस सफलता का प्रत्यक्ष श्रेय निस्संदेह हमारे राजनेताओं की सूझबूझ और सेना के त्याग बलिदान को मिलना चाहिए। वे ही इस श्रेय के अधिकारी भी हैं लेकिन जो “सूक्ष्म जगत की हलचलों” में विश्वास करते हों  उन्हें यह भी जानना चाहिए कि प्रत्यक्ष घटनाक्रम ही सब कुछ नहीं है, कुछ अप्रत्यक्ष भी होता रहा है और वह हलका नहीं काफी वजनदार भी होता है।

इसी “अप्रतक्ष्य शक्ति के सन्देश” के साथ आज के लेख का पहला  मध्यांतर होता है।  


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