वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

प्राण प्रत्यावर्तन साधना में भोजन एवं प्रक्रिया का संक्षिप्त वर्णन  

परम पूज्य गुरुदेव के सानिध्य में सम्पन हुई प्राण प्रत्यावर्तन साधना केवल एक वर्ष (1973-74 ) ही चली थी।  बाद में यही साधना अन्य नामों से चलती रही और आज 2025  में युगतीर्थ शांतिकुंज द्वारा 5 दिवसीय अन्तः ऊर्जा जागरण सत्र करवाए जा रहे हैं जो इसी साधना से मिलते जुलते हैं। 

चेतना की शिखर यात्रा 3, अखंड ज्योति पत्रिका में समय-समय पर प्राण प्रत्यावर्तन साधना पर आधारित लेख प्रस्तुत किये गए हैं। हो सकता है किसी और पुस्तक या ऑडियो-वीडियो में भी इस महत्वपूर्ण साधना का विवरण दिया गया हो लेकिन जहाँ तक हमारी रिसर्च की सीमा है कोई भी विवरण complete नहीं है। 

कहने को तो हमने प्राण प्रत्यावर्तन साधना श्रृंखला का कल समापन कर दिया था और साथ-साथ में अप्रैल 2022 में पूर्व प्रकाशित विस्तृत सात लेखों का रेफेरेंस भी देते आ रहे थे लेकिन फिर भी हमने इस साधना की प्रक्रिया को प्रस्तुत करना उचित समझा। आज के लेख में हमें इस साधना की दिनचर्या, भोजन,जलपान आदि का वर्णन मिलने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। पंचगव्य जलपान और  हविष्यान्न चरु के बारे में प्रकाशित  जानकारी से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह साधना कितनी कठिन थी। साधना तो अनेकों साधकों ने सम्पन की होगी लेकिन सात साधकों ने अपनी अनुभूतियाँ भी प्रस्तुत कीं जिन्हें पूर्व प्रकाशित लेखों में देखा जा सकता है।  

तो आइये सामूहिक शांतिपाठ करें और आज के ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ करें। 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

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आज का एकाकी ज्ञानप्रसाद लेख वर्ष 1973 के वसंत के दिनों का आँखों देखा हाल वर्णन कर रहा है । विश्वामित्र की तपस्थली शांतिकुंज में एक बार फिर नए प्राणों का संचार हो रहा था, नई ऊर्जा भरी जा रही थी। गुरुदेव हिमालय से वापस आ गए थे और इस बार भी वह देवात्मा हिमालय से तप-प्राण बटोर कर लौटे थे। दादागुरु और ऋषिसत्ताओं ने गुरुदेव को अनेकों नई जिम्मेदारियाँ सौपी थी। उनके वापस आने से शांतिकुंज परिसर मे उल्लास और उत्साह का उफान सा आ गया था। माता जी अपने आराध्य को अपने समीप पाकर प्रसन्न थी । ऋषियुग्म के तप से संचित शक्ति के कारण “शांतिकुंज का समूचा परिसर महाप्राण का निवास” बन गया था । इस युगतीर्थ  का कण-कण गुरुवर की  तप-ऊर्जा से प्राणवान हो उठा था।  पूज्यवर अपनी नई जिम्मेदारियों को अपने सहचरों  में बाँटना चाहते थे। आखिर उन्हें नवयुग के आगमन के लिए नए सरंजाम जो जुटाने थे लेकिन गुरुदेव को परिजनों की दुर्बलता का भी ज्ञान था । उन्हें इस बात का अहसास था कि अपने बच्चों को “प्राणवान” बनाए बिना नवयुग के आगमन का कार्य सम्भव नहीं है । इसलिए उन्होंने नई ज़िम्मेदारियाँ  सौपने से पहले  “प्राण प्रत्यावर्तन (Transfer of Life energy)” की बात सोची।

आइए Step by step प्राण प्रत्यावर्तन साधना को समझने का प्रयास करें।  

प्राणों का नवीनीकरण (upgrade, renewal) करने के लिए वसंत 1973 से प्राण प्रत्यावर्तन सत्र श्रृंखला का आयोजन हुआ। हम सब जानते हैं कि परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में वसंत का क्या महत्व है। 1926 में दादागुरु के प्रकाशपुंज रूप में प्रकट होने से लेकर युगतीर्थ शांतिकुंज की स्थापना तक कोई भी समारोह ऐसा नहीं रहा  होगा जिसका आयोजन वसंत के दिन न हुआ हो। “प्राण प्रत्यावर्तन सत्र श्रृंखला” का नाम ही अपनी गरिमा प्रकाशित करने के लिए पर्याप्त है। 

प्राण की परिभाषा हम कई लेखों में जान चुके हैं फिर भी हम कहना चाहेंगें कि प्राण का अभिप्राय किसी व्यक्ति की परिधि में अवरुद्ध चेतना से है।  महाप्राण अर्थात् समाधि की अनन्त सीमा में विस्तृत ब्रह्मसत्ता से है । दोनों का एक दूसरे में आदान-प्रदान हो, आत्मा अपनेआप को परमात्मा में समर्पित करे, शिष्य स्वयं की चेतना को गुरु में उड़ेले और  परमात्मा (गुरु) अपने आनन्द-अनुग्रह को भावभरी आत्मीयता के साथ साधक पर, जीवात्मा पर बरसा दे । शिष्य अपनी तुच्छता का, स्वार्थ-भरी सकीर्णता का, गुरु में विसर्जन करे और गुरु उसे अपनाकर अपनी विभूतियों से उसके व्यक्तित्व का श्रृंगार कर  दे।

व्यक्तिगत तुच्छता की बूंद को जिन्होनें विश्व के विशाल सागर मे घुलाया है वे ही तो महामानव, देवदूत और ऋषिकल्प कहलाने के अधिकारी हुए हैं । अभाव-ग्रस्त एवं दुःखी मानव को अनन्त और असीम के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेने को  विराट के ब्रह्मलोक से टपकने वाले अमृत का रसास्वादन कहते हैं । सही मायनों में आध्यात्मिकता का सार, ब्रह्मविद्या का उद्देश्य ही प्राण प्रत्यावर्तन में छुपा हुआ है।

प्राण का महाप्राण के साथ आदान-प्रदान सम्भव हो सके, आत्मा और परमात्मा के परस्पर मिलन की अनुभूति होने लगे, यही है प्रत्यावर्तन प्रक्रिया, जिसकी व्यवस्था इन दिनों शांतिकुंज में की गई थी। इन प्रत्यावर्तन सत्रों में उपयुक्त साधकों को क्रमशः थोड़ी-थोड़ी संख्या में बुलाया गया। एक सत्र में अधिकतम चौबीस साधकों की व्यवस्था ही थी। इन सत्रों की अवधि 4 दिन की थी । एक दिन आने का, एक दिन जाने का जोड़ लें तो 6 दिन कहा जा सकता था लेकिन  साधना काल 4 दिन अथवा 96 घण्टे का ही रखा गया था।

इस अवधि में साधकों को अपनी एकान्त कोठरी में अकेले रहना पड़ता था। चार दिनों में प्रतिदिन 6 घण्टे साधना के लिए अनिवार्य थे। 1 घण्टा मध्याह बौद्धिक प्रवचन द्वारा आत्मबोध की शिक्षा दी जाती थी और सायंकाल 1 घण्टा भाव गीतों द्वारा अन्तःकरण में उच्चस्तरीय उत्कृष्टता को उमगाया जाता था। 6 घण्टे साधना, 2 घण्टे प्रशिक्षण; इस प्रकार 8 घण्टे का नियमित और अनुशासित कार्यक्रम इन सत्रों में रहता था । दिनचर्या इतनी सुगठित कि फौजी अनुशासन का पालन करने वाले ही उस में  फिट बैठते थे । अस्तव्यस्तता के आदी लोग इसमें नहीं रुक सकते थे। साधना वाले चार दिनों मे प्रत्येक साधक को शांतिकुंज की मर्यादा में रहना पड़ता था । शांतिकुंज के परिसर से बाहर निकलने की कतई छूट नहीं थी। जिस प्रकार सीता जी की सुरक्षा के लिए लक्ष्मण रेखा खींची गई थी लगभग वैसी ही शांतिकुंज की सीमाएँ प्रतिबंध रेखा बन जाती थीं ।

“जैसा खाये अन्न वैसा बने मन” के सिद्धांत का पालन करते हुए प्रत्यावर्तन सत्रों में आहार की विशेष मर्यादा रखी गयी थी। प्रातः काल जलपान में सर्वप्रथम आहार के रूप मे “पंचगव्य ” ही साधकों को दिया जाता। गाय के दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर के पानी को सामूहिक रूप से पंचगव्य कहा जाता है। पंचगव्य बनाने के लिए गोबर व 1.5 लीटर गोमूत्र में 250 ग्राम देशी घी अच्छी तरह मिलाकर मटके या प्लास्टिक की टंकी में डाल दिया जाता है । अगले तीन दिन तक इसे रोज हाथ से हिलाया जाता है। अब चौथे दिन सारी सामग्री को आपस में मिलाकर मटके में डाल देते हैं व फिर से ढक्कन बंद कर देते हैं । इसके बाद जब इसका खमीर (Fermentation) बन जाय और खुशबू आने लगे तो समझ लेते हैं कि पंचगव्य तैयार है। दोपहर को जौ, चावल और तिल की रोटी दी जाती थी, यों साथ मे चावल, दाल, दलिया जैसे सात्विक आहार की मात्रा रहती पर प्रथम आहार “हविष्यान्न चरु” का ही करना पड़ता था। यह एक ऐसा आहार होता है जो यज्ञ आदि के लिए बनाया जाता है ,उदाहरण के तौर पर हम कह सकते है कि अगर खीर बनानी है तो छिलके वाले चावल या रोटी पकानी है तो भूसा(High fibre) वाले आटे से बनाई जाती थी। दोपहर और और सायंकालीन भोजन मे गंगाजल ही प्रयोग किया जाता और आहार के साथ पीने को गंगाजल ही दिया जाता।

साधको को आहार बनाने और परोसने के लिए साधना-परायण हाथों का ही उपयोग करना होता था। इस क्रम को वंदनीय माता जी के साथ पुरश्चरण में संलग्न कन्याएँ ही सम्पन्न करती थीं। ब्रह्मचर्य से रहने वाले शरीर ही इस आहार का स्पर्श करते। इससे पूर्व उसे और भी सुसंस्कारी बनाने के लिए आध्यात्मिक उपचारों से सम्पन्न किया जाता। उस पर निरीक्षण दृष्टिपात उन आखों का रहता जिन्होनें प्रत्यावर्तन सत्र श्रृंखला का आधार खड़ा किया था अर्थात गुरुदेव का। हविष्यान से बनी रोटी के साथ एक विशेष तरह की औषधि गुणों से युक्त चटनी भी दी जाती। इस चटनी में ब्राह्मी, आँवला का विशेष योग रहता लेकिन इसके साथ ही शतावरी, शंखपुष्पी, गोरखमुण्डी का भी उपयुक्त मिश्रण रहता। इस प्रकार इसे एक मस्तिष्कीय बलवर्धक Product  भी कहा जा सकता है। रोटी के साथ दी जाने वाली यह चटनी स्वास्थ्य की दृष्टि से तो एक महत्वपूर्ण आहार थी ही परन्तु उसका मुख्य लाभ अन्तःकरण का चौतरफा विकास था। मन, बुद्धि, चित्त, अहकार का स्तर तमोगुण, रजोगुण को भूमिका से ऊँचा उठाकर सतोगुणी स्तर तक पहुँचाने का था जिसे इसका उपयोग करने वाले साधक अपने अतर्मन में अनुभव करते।

आज के ज्ञानप्रसाद लेख का समापन करते हुए यह बताना उचित रहेगा कि परम पूज्य गुरुदेव के सानिध्य में सम्पन्न हुई यह  साधना केवल एक वर्ष (1973-74 ) ही चली थी।  बाद में यही साधना अन्य नामों से चलती रही और आज 2025  में  5 दिवसीय अन्तः ऊर्जा जागरण सत्र युगतीर्थ शांतिकुंज द्वारा करवाए जा रहे हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के कई समर्पित सहकर्मी  शांतिकुंज द्वारा आयोजित सत्रों में समय-समय पर न केवल भाग लेते रहते हैं बल्कि अपने अनुभव शेयर करके First hand information भी प्रदान करते हैं। ऐसे साथिओं के हम सदैव ऋणी रहेंगें।   

अवधेश प्रताप,नरेन भाई, राधावल्लभ, माधवाचार्य, योगमाया, स्वयं प्रकाश और दयाशंकर, यह कुछ एक  साधकों के नाम हैं जिन्होंने गुरुदेव के सानिध्य में प्राण-प्रत्यावर्तन सत्र सम्पन्न किये एवं अपनी अनुभूतियाँ प्रस्तुत करके ज्ञान का प्रसार किया। यह सभी अनुभूतियाँ हमारी वेबसाइट पर उपलब्ध हैं।

समापन, जय गुरुदेव  


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