वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

प्राण प्रत्यावर्तन के माध्यम से गुरु-ऋण से मुक्ति

आज का दिव्य ज्ञानप्रसाद लेख पिछले कुछ दिनों से चल रही वर्तमान लेख श्रृंखला में परम वंदनीय माता जी और परम पूज्य गुरुदेव के बीच हुई चर्चा का विवरण है। बार-बार रिपीट कर रहे हैं कि परम पूज्य गुरुदेव माता जी के हार्ट अटैक के कारण कुछ समय के लिए अपनी हिमालय साधना को बीच में छोड़ कर शांतिकुंज आये, वंदनीय माता जी को अपने बच्चों के लिए कुछ निर्देश देकर वापिस चले गए। इन निर्देशों में एक पिता की भांति बच्चों के प्रति प्रेमवश, उन्हें ऊँचा उठाने के निर्देश थे। अन्य बातों के इलावा गुरुदेव अपने बच्चों को अपनी तप-शक्ति का कुछ अंश स्थान्तरित करना चाहते थे,लेकिन उसके लिए सुयोग्य, सुपात्र बच्चों की तलाश थी। सुपात्रता और योग्यता के क्या-क्या मापदंड होने चाहिए, उनके लिए कैसी साधना करने की आवश्यकता  होती है,इसका विवरण समझना बहुत ही अनिवार्य है। 

आज के लेख में गुरुदेव बता रहे हैं कि प्राण प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया से वह स्वयं को गुरु-ऋण से मुक्त करना चाहते हैं। जिस प्रकार दादागुरु लगभग 100 वर्ष पूर्व (1926 में) आंवलखेड़ा आगरा स्थित गुरुदेव की कोठरी में प्रकट हुए थे, मात्र चार घंटे ठहरे थे, गुरुदेव के  तीन जन्मों को एक चलचित्र की भांति दिखा गए  एवं  अनेकों निर्देश देकर चले गए थे, ठीक उसी प्रकार गुरुदेव अपने बच्चों को अपनी तपशक्ति स्थानांतरित करना चाहते थे। आज के लेख में भी गुरुदेव पात्रता की बात कर रहे हैं, बता रहे हैं कि याचना और  पात्रता दोनों ही अलग-अलग बातें हैं। याचक के बहुत मांगने  पर भी थोड़ा सा ही मिलता है किन्तु सुपात्र के लिए गुरु सब कुछ निछावर करने को विवश हो जाता है,  देवताओं को भी सुपात्र की  मनुहार करनी पड़ती है। जो लोग अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए सोचते और चाहते हैं वे ही अध्यात्म क्षेत्र में सत्पात्र गिने जाते हैं। ऐसे लोगों की दीपक लेकर खोज की जाती रहती है।

इसीलिए इस मंच से बार-बार एक ही सन्देश प्रसारित किया जाता है: अगर आपके पास प्रतिभा है,आप लेने के बजाए देने को संकल्पित हैं तो आपका इस परिवार में बाहें खोल कर स्वागत है। सूझवान साथी इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि ईश्वर ने उन्हें अपार  शक्ति एवं अपरिमित प्रतिभा देकर ही इस संसार में भेजा है। 

याचकों से निवेदन है कि उनके लिए अनेकों प्रचलित प्लेटफॉर्म हैं।        

कल भी बताया था आज फिर  स्मरण करा रहे हैं कि प्राण प्रत्यावर्तन  साधना की विस्तृत जानकारी,अप्रैल 2022 में इसी  मंच पर प्रकाशित सात लेखों की श्रृंखला में समाहित है यह सारे लेख हमारी वेबसाइट पर उपलब्ध हैं, केवल सर्च विंडो में “प्राण प्रत्यावर्तन” टाइप करना है।    

इस संक्षिप्त सी अनिवार्य भूमिका के साथ, विश्व शांति ( जिसकी आज के समय में विशेष आवश्यकता है) की कामना करते हुए आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ होता है: 

 ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

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गुरुदेव जब शांतिकुंज आएंगे तो जनसंपर्क तो बनेगा ही लेकिन वह सीमित और परिष्कृत होगा। कोई ज़रूरी नहीं कि गुरुदेव सबके साथ संपर्क बनाने के लिए वैखरी वाणी का ही प्रयोग करें। कई बार मौन रह कर भी मध्यमा और पश्यन्ती  वाणिओं  से बहुत कुछ कहा जा सकता है। कई बार इस प्रक्रिया से भी इतना ज्ञान, प्रकाश एवं बल मिल सकता है जितना महीनों और वर्षों के प्रवचनों को आत्मसात करने से भी सम्भव नहीं हो पाता। नारद जी कहीं पर भी ढाई घड़ी से अधिक नहीं ठहरते थे लेकिन इतने में ही ऐसा अनुदान दे जाते थे कि ध्रुव, प्रह्लाद जैसे बालकों को एवं वाल्मीकि जैसे डाकुओं को कायाकल्प जैसी प्रेरणा मिल सके। 

हमारे साथी चार प्रकार की वाणीओं  से अवश्य ही परिचित होंगें, फिर भी Revise करने में को हर्ज़ नहीं है। भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में, वाणी (Speech) को चार प्रकारों में विभाजित किया गया है: परा, पश्यन्ती, मध्यमा, और वैखरी। 

चार प्रकार की वाणी इस प्रकार हैं:

  • 1. परा वाणी:
    यह वाणी का सबसे सूक्ष्म रूप है, जो आत्मा के साथ एकरूप है और व्यक्त नहीं की जा सकती । 
  • 2. पश्यन्ती वाणी:
    यह परा वाणी से थोड़ा व्यक्त रूप है, जहां विचार और भाव उत्पन्न होते हैं। इसे गहन, निर्मल, निश्छल और रहस्यमय माना जाता है। 
  • 3. मध्यमा वाणी:
    मध्यमा,  वाणी का वह स्वरूप है जहां विचार और भाव शब्दों के रूप में संगठित होते हैं, लेकिन अभी तक व्यक्त नहीं हुए हैं।  
  • 4. वैखरी वाणी:
    यह वाणी का सबसे स्थूल रूप है यानि जो हम बोलते हैं। वाणी के इस प्रकार में  शब्द और अर्थ दोनों स्पष्ट रूप से व्यक्त होते हैं। वाणी की सबसे प्रचलित प्रकार यही है।   इस प्रकार देखा जा सकता है कि वाणी का सबसे सूक्ष्म स्वरूप “परा” और सबसे स्थूल स्वरूप वैखरी है।

यह सच है कि बौद्धिक विचार विनिमय (Intellectual thought exchange) के लिए घण्टों का संपर्क चाहिए लेकिन “आत्मिक समाधान” के लिए तो कुछ क्षण ही पर्याप्त हैं। इसी आधार पर जब कभी भी गुरुदेव शांतिकुंज आएंगे अपना “अनुदान वितरण” करेंगे। ऐसे समय में लम्बे सत्संग या परामर्श की कोई गुंजाइश नहीं होगी। थोड़े समय में ही बड़ा प्रयोजन पूरा हो जाय तो बहुमूल्य समय की बर्बादी क्यों हो?

स्वाभाविक है कि प्राणों से भी प्रिय गुरुदेव के लाखों परिजन उनके आगमन के अवसर पर मिलने के लिए आतुर होंगे और अनियन्त्रित रूप से बहुत बड़ी संख्या में चल भी पड़ेंगे। ऐसी ही स्थिति के कारण कुछ दिन पूर्व इलाहाबाद कुम्भ में सैंकड़ों व्यक्ति भीड़ के पैरों तले कुचले गए थे। पिछले वर्ष (1971) की  21 से 30 जून तक के दिन ऐसे ही बीते। किसी से भी ढंग की बात न हो सकी और हिमालय प्रस्थान से पहले गुरुदेव का शांतिकुंज रुकने का प्रयोजन भी नष्ट हो गया। भविष्य में यह भूल कभी भी नहीं  दोहराई जायेगी। मिलन/दर्शन के लिए बहुत पहले से ही तिथि तथा समय की स्वीकृति प्राप्त करनी होगी। यहाँ आने पर भी गुरुदेव  प्रायः 20 घंटे अपनी एकान्त साधना में निरत रहेंगे। हर दिन,संपर्क के लिए एक सीमित समय ही निर्धारित रहेगा। उतने में भी कई व्यक्ति मिलने होंगे। सम्भवतः हर व्यक्ति के हिस्से में अधिक से अधिक आधा घण्टा ही आएगा । इतने से ही हर किसी को सन्तोष करना होगा। उनके प्रेम और अमृत तुल्य सान्निध्य से विरत रहने को कोई भी सहन नहीं कर पाएगा । प्रत्येक परिजन अधिक से अधिक समय किसी भी बहाने उनके साथ रहने में सुख अनुभव तो अवश्य ही करेगा लेकिन  अब उनके कंधों पर जो महान उत्तरदायित्व है उसे देखते हुए वैसी सम्भावना है नहीं। 

गुरुदेव के निर्देशों पर चलना, उनके मस्तिष्क और हृदय के साथ जुड़े रहना ही सर्वसाधारण के लिए उपयुक्त है लेकिन यदि किन्हीं को कुछ विशेष प्रयोजन हो तो उसके लिए मुझे नाम और प्रयोजन नोट करा देना चाहिए। सुविधानुसार उन्हें बुला लिया जायेगा। जिन्हें वे स्वयं बुलाना चाहेंगे उन्हें स्वयं सूचना भेज दिया करूंगी शांतिकुंज  में ठहरने की स्वल्प व्यवस्था और गुरुदेव का मिलन समय स्वल्प रहने के कारण इस प्रकार का प्रतिबन्ध अप्रिय लगते हुए भी अनिवार्य रूप से आवश्यक हो गया है। यह विवशता-भरी लाचारी है। किसी की उपेक्षा अवज्ञा नहीं। तथ्य को न समझा गया और स्वयं ही अधिक समय मिलने का आग्रह किया गया तो इसका स्पष्ट अर्थ दूसरों को इस लाभ से वंचित करना ही होगा। मोहवश ऐसी आकुलता अवाँछनीय ही मानी जायेगी।

गुरुदेव को जो मिला है वह उनके मार्गदर्शक का अनुदान है। वह परम्परा आगे भी बढ़ाने का अवसर आ गया। गुरुदेव को अपनी उपार्जित विभूतियाँ दूसरों को देनी हैं अन्यथा गुरु ऋण से मुक्ति कैसे मिलेगी? समर्थ आत्मवेत्ता का कर्तव्य कैसे पूरा होगा? अनुदान देने से पूर्व पात्रता की परख नितान्त आवश्यक है। याचना और  पात्रता दोनों ही अलग-अलग बातें हैं। याचक के बहुत मांगने  पर भी थोड़ा सा ही मिलता है किन्तु पात्रता के ऊपर बहुत कुछ निछावर करने के लिए देवताओं को भी उलटी मनुहार करनी पड़ती है। जो लोग अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए सोचते और चाहते हैं वे अध्यात्म क्षेत्र में सत्पात्र गिने जाते हैं। ऐसे लोगों की दीपक लेकर खोज की जाती रहती है। ऐसे लोग  सिद्ध पुरुषों के पास नहीं जाते बल्कि दिव्य-शक्तियाँ उनका द्वार खटखटाती हैं। गुरुदेव का द्वार ऐसी ही एक दिव्य शक्ति ने 1926 की वसंत पंचमी वाले दिन खटखटाया था। अब गुरुदेव की बारी है, वे ऐसे ही सत्पात्रों के द्वार-द्वार पर उनकी मनुहार करते हुए,फिरते हुए दृष्टिगोचर होंगे।

शांतिकुंज में बुलाकर जिन्हें वे परामर्श अनुदान दिया करेंगे उनमें ऐसे ही लोगों की संख्या प्रधान रूप से होगी। यों उनका यह क्रम सूक्ष्म शरीर से ही चलता रहता लेकिन कभी कुछ अतिरिक्त प्रकाश देना अभीष्ट होगा तो उसके लिए उन्हें बुलाना भी पड़ेगा। अब गुरुदेव लम्बी बातें किसी से नहीं करेंगे, न विचार-विनिमय, न शंका- समाधान। केवल उस प्रकाश की चिनगारियाँ देंगे जिसके प्रकाश में समस्याओं को सुलझाया जाना, शंकाओं का समाधान और दुर्बलताओं का निराकरण स्वयंमेव हो सके। वाणी से जितना कहना आवश्यक था कह चुके हैं, भाषण बहुत हो गये, विचार गोष्ठियाँ और शंका समाधान में उन्होंने कुछ कमी नहीं रखी है, लिखना भी कम नहीं हुआ, उनके विनिर्मित ग्रन्थ उनके शरीर से अधिक भारी हैं। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद पर अखण्ड-ज्योति के माध्यम से निकट भविष्य में निकलते रहने वाले लेख अभी वर्षों के लिए पहले से ही लिखे रखे हैं। अब वे अपना अनुभव लिखने के लिए ही आवश्यकतानुसार लेखनी उठाया करेंगे और प्रेरणायें अन्तःकरणों में उतारने के लिए ही वाणी का उपयोग किया करेंगे। पिछले दिनों जो किया जाता रहा है उसे ही आगे भी दोहराते रहना,पिसे को पीसने के बराबर है। उस प्रचार कार्य को करते रहने के लिए उन्होंने हजारों वक्ता, हजारों लेखक, हजारों प्रचारक और हजारों संगठनकर्त्ता खड़े कर दिये हैं, वे स्वयं भी अब क्यों उसी पृष्ठ पोषण में लगे रहें?

आज के लेख का कल तक के लिए यहीं पर  दूसरा  मध्यांतर होता है।


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