वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

प्राण-प्रत्यावर्तन एक प्रकार की सर्जरी ही है 

आज का ज्ञानप्रसाद एक प्रकार का पिछले कुछ दिनों से चल रहे वंदनीय माता जी द्वारा प्रदान किये जा रहे अमृतपान का Wrap-up है एवं इस श्रृंखला का अंतिम लेख है। 

परम पूज्य गुरुदेव माता जी के हार्ट अटैक के कारण हिमालय से अपनी तप-साधना छोड़ कर शांतिकुंज आते हैं, माता जी की बीमारी का निवारण करते हैं, विश्वभर में फैले अपने  बच्चों के लिए कुछ निर्देश देकर वापिस चले जाते हैं। इन निर्देशों को वंदनीय माता जी ने मई 1972 की अखंड ज्योति में तो अनेकों लेखों में प्रकाशित किया ही लेकिन जून 1972 के अंक में “अपनों से अपनी बात” के अंतर्गत सारांश रूप में भी प्रकाशित कर दिया। यह सारांश भी इतना विस्तृत था कि पूज्यवर ने हम जैसे अज्ञानी से इस पर भी कई लेख लिखवा लिए, जब प्राण-प्रत्यावर्तन की बात आई तो हम मई अंक में प्रकाशित हुआ लेख देखकर स्वयं को रोक नहीं पाए। साथ-साथ में हम पूर्व-प्रकाशित सात लेखों का रेफेरेंस भी देते रहे ताकि सम्बंधित ज्ञानार्जन में कोई भी कसर रह जाए।

हमारी सबकी प्यारी संजना बेटी ने कल के लेख पर कमेंट करके एवं आदरणीय संध्या जी के समर्थन से हमारा जो उत्साहवर्धन हुआ है उसे शब्दों में वर्णन करना तो असंभव  ही है लेकिन हमारे द्वारा प्रकाशित हो रहे ज्ञान के पीछे जिस दिव्य सत्ता का हाथ है उसके चरणों में शत-शत नमन है। पचास वर्ष लगातार विज्ञान के एक अबोध विद्यार्थी से इतना गूढ़ ज्ञान लिखवाना,अवश्य ही अविश्वसनीय है। गुरुसत्ता का दिव्य मार्गदर्शन एवं सहयोगियों की अदृश्य शक्ति न होती तो हम कहाँ कुछ कर पाते ,नमन करते हैं। 

आज के दिव्य ज्ञानप्रसाद लेख का शीर्षक प्राण-प्रत्यावर्तन प्रक्रिया को एक सर्जरी बता रहा है, अवश्य ही इस शीर्षक को जानना,समझना अति आवश्यक है। यही कारण है कि हमें एक बार फिर से 2022 में प्रकाशित सात लेखों की श्रृंखला का प्रथम लेख अध्ययन करने का अवसर मिल रहा है। साथिओं की पूर्वसहमति से प्रकाशित होने वाला कल वाला ज्ञानप्रसाद लेख इस प्रक्रिया के बारे में जानकारी देने का बड़ा कार्य कर रहा है। 

तो साथिओ यही है आज के लेख की भूमिका, आइए ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के स्टेशन से प्रसारित होने वाले आज के ज्ञान का, विश्वशांति के मूल मंत्र से शुभारम्भ करें:

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

********************
प्रशिक्षण की प्रक्रिया जितनी उनके कंधों पर रखी गई थी वह पूरी कर ली। अब ‘प्रत्यावर्तन’ का क्रम शेष है। अगले दिनों उसी को पूरा करेंगे। 

प्रशिक्षण उसे कहते हैं जो कान या आँख के माध्यम से ग्रहण किया जाता है और मस्तिष्क जिससे प्रभाव ग्रहण करता है। उसे “विचार विनिमय Exchange of ideas” भी कह सकते हैं। प्रत्यावर्तन इससे कहीं ऊँची चीज है। वह अन्तःकरण से दी जाती है और सीधी अन्तःकरण में प्रवेश करती है। इसके लिए लेखनी या वाणी का प्रयोग नहीं करना पड़ता और कानों को, नेत्रों को उसे ग्रहण करने का कष्ट उठाना पड़ता है। इस स्तर पर पहुँचने के बाद पत्र-व्यवहार की भी आवश्यकता नहीं रह जाती। प्रत्यावर्तन वस्तुतः अपनी शक्ति को दूसरे में सीधे प्रविष्ट करा देने की प्रक्रिया है।

किसी बीमारी की चिकित्सा के लिए टैबलेट भी दी जाती है और इंजेक्शन भी लगाया जा सकता है। टैबलेट देने की प्रक्रिया लंबी होती है क्योंकि उसे पेट में जाकर पचना होता है, रक्त में मिलना होता है, उसके बाद ही प्रभाव दिखता है। इस लंबी प्रक्रिया की तुलना में इंजेक्शन द्वारा प्रवेश की गई दवा क्षण भर में समस्त शरीर की नस-नाड़ियों में फैलती और रक्त में मिलती है। इंजेक्शन वाली प्रक्रिया की “चिकित्सा क्षेत्र का प्रत्यावर्तन” कह सकते हैं। किसी दुर्बल रोगी को बाहर का रक्त देना पड़ता है इसे भी उसे संज्ञा में गिन सकते हैं। गर्भाधान क्रिया भी इसी श्रेणी में आती है। कोई धनी व्यक्ति अपना धन किसी को देकर उसे भी अपने समान ही धनवान बना सकता है। यह “सम्पत्ति परक प्रत्यावर्तन” है। 

अपनी उपलब्धियाँ दूसरों को हस्तान्तरित की जा सकती हैं। विवेकानन्द, शिवाजी, चन्द्रगुप्त आदि कितने ही महापुरुष इसी प्रकार का लाभ प्राप्त करके आगे बढ़े हैं। स्वयं परम पूज्य गुरुदेव की कथा भी ठीक ऐसी ही है, उनकी जीवन साधना और नैष्ठिक उपासना सराहनीय है लेकिन उसका जितना प्रतिफल हो सकता था उससे सहस्रों गुना अनुदान उन्हें अपने गुरु से प्रत्यावर्तन के रूप में मिला है, यह सर्वथा सत्य है। 

इस तथ्य को सार्थक दर्शाती गुरुवर की वाणी में ही अनेकों शॉर्ट विडियोज इसी यूट्यूब चैनल पर अपलोड की हुई हैं।

अधिकतर लोगों के लिए स्वल्प- कालीन मौन सत्संग ही इतना पर्याप्त होगा कि उसे पचाने में बहुत समय लगेगा। दादागुरु ने गुरुदेव को पिछले अज्ञातवास के समय केवल चार दिन ही अपने पास रखा। इसके बाद अभ्यास के लिए कहीं और भेज दिया। इस बार भी वह सामीप्य चार दिन का ही था। इसके बाद उन्हें अन्यत्र रहना पड़ा। दो बार में केवल चार-चार दिन ही समीप रहने का अवसर मिला यानि कुल आठ दिन। अभी एक दिन और बाकी है। माता नौ माह गर्भ में रखती है । गुरु यदि सही मायनों में गुरु हो तो उसके पेट  में नौ दिन रहने से ही जीवन का कायाकल्प हो सकता है। एक दिन ही और गुरुदेव को अपने मार्गदर्शक का सान्निध्य मिलना शेष है। इतनी अवधि में ही वे अपना “प्रत्यावर्तन प्रयोजन” पूरा कर लेंगे। 

इसी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि समर्थ गुरु की समीपता का अधिक लंबा होना कोई आवश्यक नहीं, थोड़े समय में भी बहुत प्रयोजन पूरा हो सकता है।

गुरुदेव कुछ ऐसा भी संकेत कर रहे थे कि कुछ लोगों को तीन या पाँच दिन के लिए अपने समीप रखना होगा। 

समीप से मतलब शांतिकुंज की इमारत में एकान्त साधना के लिए निवास। 

एकान्त-सेवन,एकाकी-निवास, मौन-मस्तिष्क,विचार-रहित, क्रिया रहित शरीर।सर्जरी के समय रोगी को बेहोश ही तो किया जाता है। उसे हिलने डुलने नहीं दिया जाता। यह प्रत्यावर्तन साधना क्रम भी लगभग उसी स्तर का होगा। दुर्बल रोगी के शरीर में जिस प्रकार ग्लूकोज या नया रक्त चढ़ा कर प्रवेश सामर्थ्य प्रदान की जाती है उसी प्रकार का यह साधना उपचार भी होगा।

सामान्य संपर्क सान्निध्य में आधा घन्टा से अधिक अवसर किसी को नहीं मिलेगा। समय पर जोर देना व्यर्थ है। महत्ता समय की नहीं, वस्तु की उत्कृष्टता की है। एक-एक पैसा करके एक महीने तक निरन्तर देते रहा जाय तो मुश्किल से हजार रुपये दिये जा सकेंगे। इसके विपरीत पाँच मिनट में ही दस लाख का चैक दिया जा सकता है। समय का आग्रह नहीं किया जाना चाहिए। अनुदान की उत्कृष्टता परखी जानी चाहिए।

जिन्हें अधिक समय साधना करनी है उन्हें तीन दिन उस मिट्टी की तरह बने रहना होगा जिस पर पानी बरसता रहता है और वह उसे पीकर गीली होती रहती है। एक दो दिन हरिद्वार ऋषिकेश आदि घूमने फिरने को मिलें और तीन दिन साधनारत रहना पड़े तो वे पाँच दिन पर्याप्त होंगे। बालक नचिकेता आचार्य यम के दरवाजे पर तीन दिन भूखा पड़ा रहा था और पंचाग्नि विद्यायें सीखकर आया था। इस साधना में किसी के शरीर को भूखा नहीं रखा जायेगा। जो मुझसे बन पड़ेगा अपने हाथों बनाकर खिलाया करूंगी लेकिन  आत्मिक भूख जागृत ही रखनी चाहिए। आत्म-कल्याण की उत्कृष्ट अभिलाषा न हो तो कुछ काम बनने वाला नहीं है। नचिकेता जैसी पेट की नहीं, आत्मिक भूख लेकर जो आयेंगे वे उपरोक्त साधना से तृप्त होकर जायेंगे।

यह साधनाक्रम कब आरंभ होगा, कितने लोग एक साथ उसमें भाग ले सकेंगे अभी गुरुदेव ने इसकी स्पष्ट रूपरेखा नहीं बताई। इस विषय का स्पष्टीकरण अभी अनुपलब्ध है। संभवतः वह छपेगा भी नहीं। व्यक्तिगत सूचनाओं का आदान-प्रदान ही उस साधना संदर्भ का माध्यम रहेगा।

स्वल्प-सान्निध्य की अथवा तीन पाँच दिन वाली साधना प्रक्रिया के साथ एक और भी अति महत्वपूर्ण प्रकरण जुड़ा हुआ है। वह प्रकरण है:इस जीवन में जानबूझ कर किए गए पापों का प्रायश्चित पूर्व जन्मों के संग्रहीत पाप जो प्रारब्ध बन चुके उन्हें सरलता पूर्वक भोगा जा सके। ऐसा मार्ग निकाला जायेगा कि इस जन्म में बन पड़े दुष्कृत्यों का प्रायश्चित द्वारा निराकरण किया जायेगा।

यह सर्वविदित है कि कर्म का फल मिलना अनिवार्य है/निश्चित है। कर्मों का फल न तो क्षमा माँगने से छूटता  है और न ही  किसी मन्त्र-तन्त्र से इनकी निवृत्ति सम्भव है। बालि को छिपकर मारने का कर्मफल भगवान् राम को कृष्ण जन्म में भुगतना पड़ा। बालि ने बहेलिया बनकर उनके पैर में तीर मारा और प्राणहरण किया, श्रवण कुमार को तीर मारने के फलस्वरूप राजा दशरथ को पुत्र वियोग में बिलख-बिलख कर मरना पड़ा। पुत्र एवं भगवान होते हुए भी श्रीराम अपने पिता का वह कर्मफल भोग मिटा न सके। भारतीय धर्मशास्त्रों में सर्वत्र पाप के फल से बचने के लिए ‘प्रायश्चित्य’ विधान का वर्णन किया है। ईश्वरीय विधान द्वारा दण्ड मिले इससे  यही अच्छा है कि साहसपूर्वक अपनी भूल को प्रकट करके उसके लिए निर्धारित दण्ड भुगत लें। दूसरों को क्षति पहुँचाई है, उसकी पूर्ति समाज में सत्प्रवृत्तियों को बढ़ा कर की जा सकती है। पापों की तुलना में पुण्य का पलड़ा बड़ा करके भी उद्धार पाया जा सकता है। भगवान् परशुराम ने अत्याचारी राजाओं के शीश काट दिये तो उन्हें प्रायश्चित करना पड़ा कि जितनी हत्यायें की हों उतने ही उद्यान लगायें। वध-प्रक्रिया की अपेक्षा हजार गुने समय तक,उस सृजन काल में संलग्न रह कर पाप का प्रायश्चित करते रहें।

आत्म-शोधन के लिए जहाँ भावी जीवन की गतिविधियाँ शुद्ध करने की आवश्यकता है वहाँ भूतकाल में हुई भूलों के लिए प्रायश्चित करना भी आवश्यक है। इस अन्तःशुद्धि की प्रक्रिया को अपनाये बिना साधना का समुचित लाभ न मिल पाएगा। इसलिए  आत्म-लाभ के लिये आने वाले आगंतुकों से उनके इस जन्म की भूलें सुनकर तदनुरूप प्रायश्चित भी बता दिया जायेगा। जीवन-मुक्ति के लिए यह नितान्त आवश्यक है क्योंकि पिछले जन्मों के कर्म इस जन्म में प्रारब्ध बन कर भुगतने पड़े और जन्म लेना पड़ा। यदि इस जन्म के पाप यथावत बने रहे, उनका प्रायश्चित/निराकरण न हो सका तो अगले जन्म के लिए वे प्रारब्ध बन जायेंगे और उन्हें भुगतने के लिए न जाने किस योनि का जन्म लेना पड़ेगा। यदि इस स्थिति में अनुपयुक्त वातावरण मिला तो फिर अधःपतन का पथ और भी प्रशस्त होता जायेगा और क्रमशः अधिक पतित स्थिति के गर्त में गिरना पड़ेगा।  विपत्ति की इस स्थिति से बचने के लिए यही उपयुक्त है कि इन्हीं दिनों इस जन्म के पापों का प्रायश्चित करके, भविष्य के लिए निश्चिन्त हो लिया जाय। जन्म मरण के बन्धनों से मुक्ति पाने के लिए ही नहीं, साधना का रंग पवित्र अन्तःकरण ही बढ़ सकने वाली बात को ध्यान में रखते हुए भी यह किया जाना नितान्त आवश्यक है। 

भली-भाँति स्मरण रखना चाहिए कि तप- साधना का प्रयोजन जहाँ आत्म-शक्ति का विकास करना है वहीं पापों का प्रायश्चित करना भी है। इसे अलग रख कर केवल पूजा उपासना भर से किसी बड़ी आत्मिक-सफलता की आशा नहीं की जा सकती।

गुरुदेव द्वारा मिले संकेतों से प्रतीत होता है कि वे आत्मबल संग्रह करने और आत्म-कल्याण के लिए ऊँचे हृदय से इच्छुक परिजनों को शांतिकुंज आने का अवसर देंगे और उन्हें स्वल्प-कालीन सान्निध्य अथवा पाँच दिवसीय प्रत्यावर्तन- साधना का लाभ देंगे। उसी के साथ प्रायश्चित द्वारा आत्मशोधन की तप साधना का निर्धारण भी जुड़ा हुआ होगा।

वर्तमान श्रृंखला का समापन, धन्यवाद् 


Leave a comment