23 जून 2025 का ज्ञानप्रसाद- अखंड ज्योति मई 1972
आज सोमवार,सप्ताह का प्रथम दिन,ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के छोटे से समर्पित समूह के लिए,हर बार की भांति अद्भुत ऊर्जा लेकर आया है। हमारी तरह सभी साथी उत्सुक होंगें कि आज परम वंदनीय माता जी,जादूगर की भांति अपने पिटारे में से कौन से दिव्य प्रसाद से हम सबको Mesmerize करने वाली हैं।
आइए,आज का लेख आरम्भ करने से पहले स्मरण कर लें कि पिछले कुछ दिनों से चल रही वर्तमान लेख श्रृंखला में परम वंदनीय माता जी और परम पूज्य गुरुदेव के बीच हुई चर्चा का विवरण है।
परम पूज्य गुरुदेव माता जी के हार्ट अटैक के कारण कुछ समय के लिए अपनी हिमालय साधना को बीच में छोड़ कर शांतिकुंज आये, वंदनीय माता जी को अपने बच्चों के लिए कुछ निर्देश देकर वापिस चले गए। इन निर्देशों में एक पिता की भांति बच्चों के प्रति प्रेमवश, उन्हें ऊँचा उठाने के निर्देश थे। गुरुदेव अपने बच्चों को अपनी तप-शक्ति का कुछ अंश स्थान्तरित करना चाहते थे,लेकिन उसके लिए सुयोग्य, सुपात्र बच्चों की तलाश थी। सुपात्रता और योग्यता के क्या-क्या मापदंड होने चाहिए, उनके लिए कैसी साधना करने की आवश्यकता होती है,इसका विवरण समझना बहुत ही अनिवार्य है।
योग्य गुरु कभी भी अपनी शक्ति का प्रत्यावर्तन, बिना किसी चेकिंग के, किसी को नहीं देता। वर्षों के अथक परिश्रम से अर्जित की गयी सम्पति, पिता केवल उसी बच्चे को सौंपता है जिसे वह समझता है कि इसका दुरुपयोग नहीं होगा। परमपिता परमात्मा ने भी अपनी संतान को,सुपात्र समझते हुए एक विशाल शक्ति का भंडार सौंपा था लेकिन जब उस संतान ने प्रदान हुई सम्पति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया तो परिणाम हम सबके समक्ष हैं ,किसी से छिपे नहीं हैं।
आने वाले लेखों में परम वंदनीय माता जी गुरुदेव द्वारा बताई गयी “प्राण-प्रत्यावर्तन प्रक्रिया के लिए पात्रता” का विवरण दे रही हैं। हमारे परिवार के संकल्पित साथी आदरणीय अरुण वर्मा जी अपने नन्हें मुन्हों के लिए इस तरह का छोटा प्रैक्टिकल कर सकते हैं। प्राण प्रत्यावर्तन साधना की विस्तृत जानकारी,अप्रैल 2022 में इसी मंच पर प्रकाशित सात लेखों की श्रृंखला में समाहित है।
इस संक्षिप्त सी अनिवार्य भूमिका के साथ, विश्व शांति की कामना करते हुए आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ होता है:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
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प्रत्यावर्तन वर्ग के अग्रगामी आत्मीयजनों को युग-साधना में नियमित साधनारत होना ही चाहिए। अन्य परिजनों को भी आत्मविकास की दृष्टि से या युगधर्म की पूर्ति की दृष्टि से दिव्य तत्त्वों का अनुग्रह उन पर बरसने में जो अड़चन उपस्थित है, उसे दूर करने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि वे युग-साधना के साधक बनें। उसे मात्र पढ़ते-सुनते ही न रहें। चर्चा और कल्पना का ही विषय न बनाए रहें बल्कि उसे व्यावहारिक जीवन में उतारने और कार्यरूप में परिणत करने का भी प्रयत्न करें। वास्तविक प्रगति का, विभूतिवान बनने का, आत्मसंपदाओं से परिपूर्ण होने का और महानता के वरण करने का “प्रथम चरण” यही है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की कमेंट-काउंटर कमेंट प्रक्रिया इसका प्रारूप है।
माता जी बता रही हैं कि बड़प्पन की आकुल अभिलाषाओं से थोड़ा मुँह मोड़ना ही चाहिए और उस विमुखता को नवनिर्माण के प्रति प्रतीति में नियोजित करना ही चाहिए।
इसी के लिए गुरुदेव गत फरवरी (1972) मास में यह चिंता व्यक्त करते रहे कि यदि परिजन प्रथम चरण की उपेक्षा-अवज्ञा किए बैठे रहे तो वे कुछ भी महत्त्वपूर्ण पा नहीं सकेंगे। उन्हें कुछ दिया जा सकना संभव न हो सकेगा। गुरुदेव बड़प्पन की निरर्थकता और महानता की गरिमा को समझाने के लिए व्याकुल थे। कहते थे, “किसी प्रकार मैं अपना कलेजा, हृदय और मस्तिष्क चीरकर उखाड़ सकूँ और उसे परिजनों के भीतर फिट कर सकूँ तो उन्हें बुद्धिमत्ता का लाभदायक मार्ग एक ही दिखाई पड़ेगा कि निर्वाह भर के भौतिक साधनों से संतुष्ट रहकर अपने भीतर जो कुछ असाधारण है, उस समस्त को समान रूप से महानता प्राप्त करने के लिए नियोजित कर दिया जाए।” उनका कलेजा, हृदय और मस्तिष्क तो दूसरों में ‘फिट’ किया जा सकना कठिन है लेकिन कम-से-कम इतना तो आवश्यक है कि उस प्रक्रिया को अनसुने के गर्त्त में पड़ा न रहने दिया जाए। किसी-न -किसी रूप में अनेक आवश्यक कार्यों की तरह उसे भी आवश्यक कार्यों में सम्मिलित रखा जाए और जितना कुछ न्यूनाधिक बन पड़े, उतना उस प्रयास को निरंतर करते रहा जाए।
ऐसा करने से जहाँ आत्मनिर्माण और लोकमंगल की, स्वार्थ और परमार्थ की पूर्ति होगी, वहीँ वह अड़चन भी दूर होगी जिसके कारण गुरुदेव अपने प्रियजनों को कुछ न दे सकने की व्यथा से उदास, चिंतित और दुःखी रहते हैं।
पात्रता के अभाव में किसी को भी कुछ दे सकना गुरुदेव के बस की बात भी तो नहीं है। आखिर उनके हाथ भी तो किसी उच्चसत्ता ने बाँध ही रखे हैं। यह अड़चन दूर हो सके तो परिजन जितने लाभान्वित होंगे, गुरुदेव उससे 1000 गुना संतुष्ट और प्रसन्न होंगे एवं अनुभव करेंगें कि मार्ग की बहुत बड़ी बाधा अथवा कठिनाई दूर हो गयी।
युग-साधना को अपनाने के लिए आत्मनिर्माण और समाज निर्माण की विधि-व्यवस्था का पालन करना बहुत आवश्यक है। समय-समय पर युगनिर्माण योजना की चर्चा पत्रिकाओं में लेखों द्वारा और गुरुदेव के प्रवचनों के माध्यम से होती रही है। उनकी रूपरेखा भी छपी है, लेकिन सबसे बड़ी यह कमी यह देखने में आई है कि किस कार्य को किस प्रकार किया जाए, इसका स्वरूप निर्धारण और व्यावहारिक मार्गदर्शन कैसे किया जाए ।
अब वह कमी दूर कर दी गई है। युगनिर्माण योजना की सांगोपांग क्रमबद्ध रूपरेखा और उसे कार्यान्वित करने की शैली को इन्हीं दिनों पुस्तक आकार में प्रकाशित किया गया है। तीन-तीन रुपये मूल्य के तीन खंडों में “हमारी युगनिर्माण योजना” नाम से यह ग्रंथ छप रहा है। 30 जून तक छपकर तैयार हो जायगा। नौ रुपया मूल्य और पोस्टेज देकर वह गायत्री तपोभूमि, मथुरा से मँगाया जा सकता है।
अनुरोध है कि अखंड ज्योति का प्रत्येक सदस्य इस ग्रंथ को मँगा ले और ध्यानपूर्वक कई बार उसे पढ़े। पढ़कर यह देखें कि उसमें से कितना अंश आज की स्थिति में वह कार्यान्वित कर सकता है। जितना संभव हो, उसका शुभारंभ अविलंब,आज से ही किया जाना चाहिए। एक भी ऐसा सदस्य न रहे, जिसे पत्रिका का मात्र पाठक भर कहा जा सके। विचारों की सार्थकता तब है, जब वे कार्यरूप में परिणत होने की दिशा में अग्रसर हो सकें। यही कारण है कि ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के अनेकों प्रयास गुरु-शिक्षा को प्रैक्टिकल बनाने की दिशा में सदैव कार्यरत रहते हैं।
अखंड ज्योति के लेखों का परिजनों की मनोभूमि को अब इस कसौटी पर कसे जाने का अवसर आ गया। हमारे यह दोनों ही पक्ष तभी खरे कहे जा सकते हैं, जब उनमें सक्रियता का दर्शन हो सके।
तीन खंडों वाला नवीन प्रकाशित ग्रंथ “हमारी युगनिर्माण योजना” को किसने पढ़ा, किसने समझा और किसने उसे प्रैक्टिकल रूप दिया, अक्टूबर में इसके संबंध में एक प्रश्नपत्र अखंड ज्योति में प्रकाशित किया जाएगा, उसके उत्तर माँगे जाएँगे जिनसे पता चल सके कि कौन कितनी गहराई में उतर सका।
विजय दशमी का पर्व 17 अक्टूबर का है। उस अवसर पर उस ग्रंथ के संदर्भ में पूछताछ की जाएगी। उन उत्तरों के आधार पर “वर्तमान परिजनों की प्रामाणिकता एवं पात्रता” सुनिश्चित की जायगी। आरंभिक परिजन तो कोई भी हो सकता है लेकिन अंतरंग स्तर का उन्हें ही माना जाएगा जो युगनिर्माण योजना के आदेश, उद्देश्य, स्वरूप एवं क्रियाकलाप को पूरी तरह समझ सके होंगे। समझ ही नहीं, उसे कार्यान्वित करने के लिए भी कुछ कदम बढ़ा चुके होंगे। इस पत्र में अंतरंग सदस्यों का एक वर्ग उबलते दूध के ऊपर तैरने वाली मलाई की तरह ऊपर आ जाएगा और उस वर्ग को लेकर गुरुदेव अपनी प्रत्यावर्तन-प्रक्रिया तथा उसकी सूक्ष्म उपलब्धियों को कार्यान्वित कर सकेंगे।
प्रायः सभी युगनिर्माण शाखाएँ पिछले दिनों युगनिर्माण विद्यालय चलाती आ रही हैं और उनका शिक्षा-परीक्षा क्रम अपने ढर्रे पर चलता आ रहा है। इस बार उसमें एक सामयिक अतिरिक्त परिवर्तन यह कर लिया जाए कि 1 जुलाई से 30 सितम्बर तक का 3 महीने का विशेष शिक्षण सत्र चलाया जाय। इसमें नवीन प्रकाशित ‘हमारी युगनिर्माण योजना’ के तीन खंड पढ़ाए जाएँ। जहाँ हर दिन क्लास चलाने में कठिनाई हो, वहाँ ऐसा भी किया जा सकता है कि सप्ताह में एक दिन रविवार को अगले सप्ताह के पाठ्य पृष्ठ निर्धारित कर दिए जाएँ । अगले रविवार को उनके संबंध में प्रश्नोत्तर कर लिए जाया करें। जो बात समझ में न आई हो, उसे समझा दिया जाया करे और फिर पहले की तरह अपने घर पर ही एक सप्ताह तक अगला पाठ्यक्रम पढ़ते, समझते और उनमें से आवश्यक नोट संग्रह करते रहने के लिए कह दिया जाय । इस प्रकार हर सप्ताह का क्रम चलता रहे। 3 महीने के 12 सप्ताह में उपरोक्त ग्रंथ के तीन खंड पूरे कर लिए जाएँ। 1 अक्टूबर की अखंड ज्योति में छपने वाले प्रश्नपत्रों के उत्तर वे सब लोग लिखें, जिन्होंने पाठ्यक्रम पूरा किया हो। इस प्रकार इस बार की विशेष शिक्षा और विशेष परीक्षा नवीन प्रकाशित ग्रंथ के आधार पर संपन्न हो सकेगी और उत्तीर्ण शिक्षार्थियों को युगनिर्माण योजना परिवार के अंतरंग सदस्यों में सम्मिलित करके उसका प्रमाणपत्र भी दिया जा सकेगा।
इस प्रकार प्रशिक्षित और सक्रिय परिजनों को विशेष रूप से आगे बढ़ाया जा सकना और उन्हें महानता के लक्ष्य तक पहुँचाया जा सकना संभव होगा।
गुरुदेव इस संदर्भ में विशेष सहायता करने के लिए आतुर हैं। अब पात्रता विकसित करने के लिए एक ठोस कदम आगे बढ़ाना प्रिय परिजनों का काम है।
प्रशिक्षण क्रम की समाप्ति- प्रत्यावर्तन’ का आरम्भ:
माता जी बता रही हैं कि गुरुदेव जब कभी भी शान्तिकुंज आया करेंगे,उस समय का उपयोग वे परिजनों में “शक्ति का हस्तान्तरण (Transfer of power)” करने के लिए किया करेंगे। साहित्य के माध्यम से विचार तो दूर-दूर तक पहुँच भी सकते हैं और रचयिता की मृत्यु की बाद भी दूसरों को प्रभावित करते रह सकते हैं। लेकिन विचारशक्ति से भी बढ़कर है-प्राणशक्ति। यह ऐसी शक्ति है जो व्यक्ति के साथ ही जुड़ी रहती है। प्राणशक्ति ऐसा तत्व है जो “समीपता” ही नहीं “निकटता” से भी संबंधित है।
इन पंक्तियों को लिखते समय जानने की जिज्ञासा हुई कि “समीपता” और “निकटता” में क्या अंतर है। ये दोनों शब्द हिन्दी में एक-दूसरे जैसे लग सकते हैं लेकिन इनके अर्थ और प्रयोग में हल्का-सा अंतर है। सरल भाषा में समीपता स्थानिक,भौगोलिक दूरी के सन्दर्भ में प्रयोग होता है जैसे कि मंदिर की समीपता में एक बगीचा है अर्थात मंदिर के पास/नजदीक एक बगीचा है। स्कूल की समीपता में एक अस्पताल है अर्थात स्कूल के पास एक अस्पताल है। निकटता शब्द ज़्यादातर भावना एवं संबंध से जुड़ा है। गुरु और शिष्य के बीच गहरी निकटता थी। (भावनात्मक संबंध की निकटता) उदाहरण के लिए कहा जा सकता कि हम पटना से शांतिकुंज (समीप) तो आ गए लेकिन गुरुदेव के पास (निकट) न पहुंच पाए। ऋषियों के आश्रमों में सिंह और गाय का एक ही घाट पर पानी पीने वाला उदाहरण निकटता ही दर्शाता है। आश्रम से दूर जाते ही दुष्प्रवृत्तियों का प्रकोप साक्षात् दिखना आरंभ हो जाता है।
यही कारण है कि गुरुवर बार-बार युगतीर्थ शांतिकुंज की पावन भूमि पर आने, यहां के दिव्य वातावरण में समय बिताने एवं बैटरी चार्ज करने का आग्रह करते आए हैं।
आज के लेख का कल तक के लिए यहीं पर पहला मध्यांतर होता है।