वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव के साधना रथ के दो पहिये-आत्मपरिष्कार और लोकमंगल

आत्मपरिष्कार,लोकमंगल, पात्रता,प्रत्यावर्तन-अनुदान,शक्तिपात,युगसाधना-त्रिवेणी कुछ ऐसे आकर्षक शब्द हैं जिनके अर्थ समझ कर ही आज के जीवनदायनी ज्ञानामृत का पयपान करना उचित रहेगा। ज्ञान के इस दिव्य अमृत की एक-एक बूँद पाठकों के शरीर की लगभग 30 ट्रिलियन कोशिकाओं में से केवल 1 मिलियन को ही प्रभावित कर पाएं तो कायाकल्प होना सुनिश्चित है। 

पिछले तीनों ज्ञानप्रसाद लेखों से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि महानता का अन्य कोई विकल्प नहीं है। अब प्रश्न तो यह उठता है कि महानता की मापदंड क्या है और उसे कैसे अर्जित किया जाए। 

आज के लेख में दिए गए सभी सरल साधन इसी दिशा की और केंद्रित हैं। सबसे बड़ा एवं महत्वूर्ण इशू पात्रता विकसित करने का है। एक बार पात्रता और प्रमाणिकता सिद्ध हो गयी फिर गुरुदेव अपनी तप-शक्ति का शक्तिपात कर ही देंगें। Power of attorney की भांति इस Transfer of power को प्राण-प्रत्यावर्तन कहा गया है। 2022 में हमने प्रत्यावर्तन के  विषय पर सात विस्तृत ज्ञानप्रसाद लेख लिखे थे, यह सातों  लेख हमारी वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। 

तो आइये आज फिर शांतिपाठ के साथ आज के ज्ञानामृत की एक-एक बूँद से नवजीवन प्राप्त करें। विश्वशांति आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता बन चुकी है :  

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

********************            

गुरुदेव के  समस्त जीवन की साधना-तपश्चर्या का निष्कर्ष दो शब्दों में निकाला जा सकता है, “पहला आत्मपरिष्कार (Self-refinement) और दूसरा लोकमंगल का निरंतर प्रयास।” यह साधना-पद्धति आज के समय की युग-साधना है।  जो व्यक्ति इस साधना को कर सके ,समझना चाहिए कि परिपूर्ण साधना और समग्र तपश्चर्या का सही रास्ता उसे मिल गया। गुरुदेव का साधना-रथ इन्हीं दो पहियों पर गतिशील रहा है। वे हृदय से यही चाहते हैं कि उनका हर आत्मीय इसी मार्ग पर चलकर उन्हीं की जैसी महानता का लाभ प्राप्त करे। कभी-कभार छिटपुट मंत्र-तंत्र की उलट-पुलट में व्यस्त, लंबे-चौड़े सपने देखना छोड़कर, युग-साधना के आधार पर अपनी अंतःचेतना में पात्रता का प्रकाश उत्पन्न करे। 

गुरुदेव की पिछली तप-संपदा भी कोई कम नहीं थी। कम होती तो वे लाखों व्यक्तियों को नवनिर्माण जैसे रूखे प्रयोजन में लगाने का उत्साहपूर्ण वातावरण कैसे उत्पन्न कर सके होते? कैसे विविध क्षेत्रों में आश्चर्यजनक सफलताएँ उपस्थित हुई हो पातीं? कैसे परिजनों की व्यक्तिगत कठिनाइयों के अद्भुत समाधान दे सके होते? किस आधार पर उनका व्यक्तित्व जादू जैसे प्रभाव से ओतप्रोत रहा होता? 

परम वंदनीय माता जी बता रही हैं कि उपरोक्त बात  पिछले दिनों की है। इन दिनों तो उनकी सारी एकाग्रता आतिशी शीशे में सूर्य की किरणें इकट्ठी होने की तरह एक बिंदु पर केंद्रीभूत हो गई हैं। स्वभावतः उनकी पूँजी इस अवधि में बढ़ी ही है। इस बार की साधना में बोनस के रूप में प्राप्त हुए अतिरिक्त लाभ को वे अपने सहचरों-अनुचरों को बाँटने के लिए आतुर थे।

“प्रत्यावर्तन अनुदान” की चर्चा अखंड ज्योति मई 1972 अंक में की गई है। वे जब भी हरिद्वार आया करेंगे तो इस उपक्रम से पात्रता-संपन्न परिजनों को लाभान्वित किया करेंगे।  

प्राण-प्रत्यावर्तन कोई  साधना-अनुष्ठान नहीं है। केवल उन 4-5 दिनों में तप शक्ति ग्रहण करने के अनुकूल मनःस्थिति बनाए रखना भर है। स्वयं को हर दृष्टि से, विचारों से रिक्त रखने, कुछ भी न सोचने और चाहने की मनःस्थिति बनाए रखकर उसमें “शक्तिपात” के लिए द्वार खुला रखने भर के लिए आगंतुकों को कहा जाएगा।

हमारे साथिओं के स्मरण होगा कि 2022 में हमने अनेकों पुस्तकों, अखंड ज्योति अंकों,यूट्यूब वीडियोस एवं अन्य साधनों का सहारा लेकर प्राण-प्रत्यावर्तन विषय पर 7 ज्ञानप्रसाद प्रस्तुत किये थे, हमारी वेबसाइट पर यह सातों लेख उपलब्ध हैं, जिस किसी को भी इस प्रक्रिया को विस्तार में जानने की जिज्ञासा हो, उसके लिए वेबसाइट को विजिट करना लाभदायक होगा।   

गुरुदेव के प्रत्यावर्तन अनुदान में शरीर और मन को अनिवार्य नित्य क्रिया करने के अतिरिक्त पूर्ण विश्राम करके निर्मल रखने के लिए कहा जाएगा। इस मनःस्थिति में आदान-प्रदान सफल और संभव हो जाता है। गुरुदेव आगंतुकों से यही अभ्यास कराएँगे और इस से उपक्रम का बीजारोपण कर देंगे। इस बीज को वृक्ष बनाने के लिए बहुत प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। यही परंपरा उन्हें स्वयं भी मिली है। 

गुरुदेव को 15 वर्ष की आयु में मात्र 4 घंटे ही अपने मार्गदर्शक का सान्निध्य मिला। 24 वर्ष की तपश्चर्या के उपरांत 1959 में एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए चले गए। उस समय भी दादा गुरु के सानिध्य का अवसर मात्र 4 दिन का ही मिला। 1971 में भी 4 दिन की ही समीपता मिली है और शेष समय अन्यत्र बिताने का निर्देश-पालन करना पड़ा है।

सानिध्य छोटा/बड़ा होने का कोई औचित्य नहीं होता क्योंकि  बीज तो एक दिन में ही, कुछ मिनटों में ही बो दिया जाता है लेकिन समय तो उस बीज को सींचने-सँभालने में ही लगता है। गर्भधारण की क्रिया कुछ मिनटों में ही हो जाती है लेकिन गर्भवती महिला 9 माह तक अपने गर्भ में पल रहे भ्रूण को गर्मी-सर्दी एवं सभी प्रकार के  वातावरण से विकसित करती है। गुरुदेव अपने मार्गदर्शक के अनुदान और अपने कर्त्तव्य को अक्सर इसी भौंडे उदाहरण  के साथ समझाया करते हैं।प्रत्यावर्तन प्रक्रिया में भाग लेने वाले साधकों को इसी परंपरा के लिए अग्रसर होना पड़ेगा। गुरुदेव नहीं चाहते कि परिजनों को लंबी कष्ट-तपश्चर्या में उलझाया जाए । उस प्रयोजन की पूर्ति वे अपने अनुदान से स्वयं ही पूरी कर देंगे, जैसी कि उनकी खुद की पूर्ति की गई। उनकी निज की साधना तो सिंचन-पोषण भर है।

गुरुदेव ने जितना प्राप्त किया  है,उसका 90 प्रतिशत भाग को अनुदान ही कहना चाहिए। यदि ऐसा न होता तो लोकमंगल की दिशा में इतना बड़ा कार्य कैसे बन पड़ता। सारा समय जप-तप में ही लग जाता तो फिर ईश्वरीय निर्देश और मार्गदर्शक के आदेश को पालन करते हुए नवयुग की संभावनाओं को साकार करने में इतनी तत्परता के साथ लगा रहना कैसे संभव होता?

गुरुदेव की यह प्रक्रिया ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के एक-एक साथी के लिए मार्गदर्शन/निर्देश की तरह कार्य करनी चाहिए, विशेषकर उनके लिए जो हमारे निवेदन को तो नकारते ही आ रहे हैं। गुरुकार्य में निष्ठापूर्वक,नियमितता से, छोटे से छोटा पुरषार्थ बड़े पुरस्कार की सम्भावना लेकर आता है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से कभी भी कोई बड़ी याचना नहीं की जाती,दिन के विशाल 24 घण्टों का एक छोटा सा अंश समयदान के रूप में देने के लिए कहा जाता है। 

यहाँ पर स्मरण रखने की बात है कि नचिकेता थोड़े ही समय में आचार्य यम से पंचाग्नि विद्या सीखकर आ गए थे। विवेकानंद और छत्रपति शिवाजी को ऐसे ही कुछ ही समय में बहुत कुछ मिल गया था। स्वयं रामकृष्ण परमहंस ने इसी प्रकार का अनुदान स्वल्पकाल में उपलब्ध कराया था। 

यही प्रत्यावर्तनक्रम है जिसे गुरुदेव कभी-कभी,जिस-तिस के लिए प्रयुक्त किया करेंगे। अभी तो इस प्रक्रिया के इच्छुकों के नाम भर ही नोट किए जा रहे हैं ताकि जब जैसी संभावना हो, वैसा उन्हें सूचित किया जा सके। इसके लिए अभी तो हरिद्वार में निवास-आवास आदि का प्रबंध भी करना है, क्योंकि उस प्रत्यावर्तन अवधि में साधकों को अकेले रहना पड़ेगा। भोजन जो दिया जाएगा, वही खाना पड़ेगा। जिस तरह रखा जाएगा, उसी तरह रहना पड़ेगा। यह झंझट-भरा क्रियाकलाप अनेक व्यवस्थाएँ बनाने की मांग कर रहा है जो अगले कुछ दिनों में बनेंगी। इसके उपरांत ही गुरुदेव के हरिद्वार आगमन के अवसर पर वह आदान-प्रदान अर्थात प्रत्यावर्तन संभव हो पाएगा। एक समय में कुछ ही व्यक्ति बुलाए जाया करेंगे ताकि “सीमित शक्ति का सीमित लोगों में समुचित वितरण संभव हो सके।” 

हरिद्वार में तपोभूमि जैसे शिविर नहीं लगेंगे। उँगलियों पर गिनने जितनी संख्या में ही एक समय में कुछ व्यक्ति बुलाए जाया करेंगे और उन्हें 4-5 दिन भर रोककर वापिस कर दिया जाया करेगा। इस अनुदान से कौन-क्या प्राप्त कर सकेगा, कितना ऊँचा उठ सकेगा और  कितना आगे बढ़ सकेगा, इसकी समय से पूर्व चर्चा अनुपयुक्त ही होगी। 

यह कोई भेंड़चाल नहीं है,जो चाहे वही घर से दौड़ भागे। ऐसा संभव न होगा। मात्र इच्छा से कुछ नहीं होता है। चाहने भर से क्या कोई कलक्टर बन सका है? इसके लिए “पात्रता की दीर्घकालीन साधना” अनिवार्य रहती है। जो लोग पात्रता को  पुष्पहार, दंडवत् प्रणाम या फल-उपहार जैसी सस्ती वस्तु समझते हैं, वोह बहुत बड़े भ्र्म में हैं। पात्रता किसी मंत्र की कुछ मालाएँ घुमा-फिरा देने जितनी सरल भी नहीं है। मँहगी उपलब्धियाँ सदैव मँहगे मूल्य पर ही मिलती हैं। गुरुदेव ने स्वयं समुचित मूल्य चुकाकर अपने मार्गदर्शक का,अपने परमेश्वर का, अनुग्रह खरीदा है। दूसरों के लिए भी यही मार्ग खुला है। खाली हाथ, आसानी से ही बहुत कुछ पा लेने की लालसा लेकर हाट में जाने वालों को खाली हाथ ही लौटना पड़ता है, उनके पल्ले निराशा ही बँधती है।

मनुष्य के खुद के प्रबल पुरुषार्थ से लेकर किसी दिव्य सत्ता के अनुग्रह-अनुदान तक में एक अनिवार्य तथ्य हमेशा प्रस्तुत रहता है कि व्यक्ति अपनी पात्रता और प्रामाणिकता सिद्ध करे। कल्पना की उड़ानें उड़ने से नहीं, हवाई किले बनाने से नहीं, व्यावहारिक जीवन को साधनामय बनाने से ही वह उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं क्योंकि व्यावहारिक जीवन की तरह साधना में कोई सिफारिश, रिश्वत आदि नहीं चलती। इस प्रक्रिया में कोई शॉर्टकट नहीं है, कोई क्रैश कोर्स नहीं है। यहां पर इस तथ्य पर बल देने की आवश्यकता है कि हमारे साथियों को उन बाजारू बाबाओं से सावधान रहना चाहिए जो भांति-भांति के प्रपंचों से भोले-भाले, अज्ञानियों को ठगते रहते हैं । इस गर्म बाजार से दूर ही रहना चाहिए। 

ऐसे प्रचलनों ने गुरुदेव को इस दिव्य  प्रक्रिया के बारे में बताने के लिए मज़बूर कर दिया है। गुरुदेव के ऐसा करने पर आत्मवादी परिजन भी उसी प्रकार लाभान्वित हो सकेंगें जिस प्रकार गुरुदेव स्वयं हुए थे । इस अड़चन को दूर करना ही होगा। गुरुदेव द्वारा बताए गए  “श्रमसाध्य राजमार्ग” को छोड़कर कोई सीधी-सरल पगडंडी नहीं है। परिजनों को युग-साधना को अपनाना ही चाहिए। उस दिशा में कदम बढ़ाना ही चाहिए। परम वंदनीय माता जी बता रही हैं कि  व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण की त्रिविधि साधना-पद्धति को नवनिर्माण की  “युग-साधना त्रिवेणी” कहना चाहिए। निश्चित रूप से यह एक योग-साधना और तपश्चर्या है। एकांत में प्राणायाम करना ही एकमात्र योगाभ्यास नहीं है। गीता में कहे गए कर्मयोग का यह श्रेष्ठतम और सामयिक स्वरूप है। इस युग-साधना में जहाँ व्यक्ति के निज का अंतःकरण योगियों जैसा निर्मल होता है, वहीँ  उनकी तप-साधना के प्रकाश से असंख्यों को अपना उद्धार करने का लाभ मिलता है। इस प्रकार यह दोहरा  लाभ प्रस्तुत करने वाली “आध्यात्मिक-साधना” का ही प्रयोजन पूरा करती है।

जय गुरुदेव, सोमवार तक मध्यांतर 


Leave a comment