18 जून 2025 का ज्ञानप्रसाद-अखंड ज्योति मई 1972
पिछले दो दिनों से ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रसारित हो रहे दिव्य ज्ञानप्रसाद में परम वंदनीय माता जी, गुरुदेव के साथ हुई चर्चा का सारांश हम बच्चों को समझा रही हैं। वर्तमान शिक्षा “बड़ा बनने” और “महान बनने” के अंतर् का अमृतपान करा रही है। दादा गुरु के निर्देश पर गुरुदेव ने जिस तप शक्ति को अर्जित करके महानता प्राप्त की, हम सब उससे भलीभांति परिचित हैं लेकिन केवल परिचित होने से काम नहीं चलने वाला, उस शिक्षा का कुछ एक अंश तो ग्रहण करना ही चाहिए, तभी पात्रता विकसित होगी। कल रात के दिव्य सन्देश में बताया गया था कि देवशक्तियाँ सत्पात्रों को ढूंढ रही हैं ,गुरुदेव हमें ढूंढ रहे हैं।
आज के युग की बहुप्रचलित बात है कि पढ़े-लिखे युवक शिकायत करते दिख रहे हैं कि नौकरी नहीं मिलती लेकिन Employer की शिकायत है कि “योग्य” कैंडिडेट नहीं मिलते, उनके लिए तो नौकरी देना, कैंडिडेट को Retain करना बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि भटके हुए मानव कहीं एक नौकरी में कहाँ टिक पाते हैं। यही उदाहरण पात्रता के सम्बन्ध में दिया जा सकता है। गुरुदेव बड़ी कठिनता से द्वारा खटका कर, सुपात्र का चयन करके ज्ञानरथ परिवार में शामिल करते हैं लेकिन आते ही उसे कोई अन्य प्रलोभन देकर ले जाता है, भटका हुआ देवता जो ठहरा।
ऐसे ही व्यावहारिक उदाहरणों को लेकर आज का दिव्य ज्ञानप्रसाद प्रस्तुत किया गया है, तो आइये आज फिर शांतिपाठ के साथ आज के ज्ञानामृत की एक-एक बूँद से नवजीवन प्राप्त करें। विश्वशांति आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता बन चुकी है :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
************************
भौतिक बड़प्पन और आत्मिक वर्चस्व की विवेचना करते हुए गुरुदेव ने कहा, “लोग बड़प्पन के पीछे अन्धी दौड़ लगा रहे हैं और महानता की गरिमा भूलते चले जा रहे हैं। आज के मानव में जितनी रूचि साधन जुटाने में दिख रही है यदि उतनी रूचि दिव्यता के अभिवर्धन में लगी होती तो वोह नर-पशु से ऊँचा उठकर नर-रत्न और नर-नारायण का पद प्राप्त करने में समर्थ ।
माता जी बता रही हैं कि इस तथ्य में ज़रा भी शंका की गुंजायश नहीं है कि मनुष्य को निर्वाह के लिये धन की आवश्यकता है लेकिन जिनके पास गुज़ारे के लिये साधन मौजूद हैं वोह लोग संग्रह के पीछे क्यों पड़े हैं? जिनके पास पूर्व संग्रह के इतने साधन मौजूद हैं कि पूरा जीवन निर्वाह हो सकता है, फिर भी वे अधिक कमाई की हविस में जुटे हैं। ऐसे लोग यदि धन-संग्रह की दिशा में लग रही अपनी क्षमता को लोक-कल्याण में लगा सके होते तो कितना अच्छा होता। गुज़ारे भर के लिये उपार्जन-संग्रह करना एवं अनावश्यक, बची शक्तियों को विश्व मानव के चरणों में समर्पण की नीति अपना कर जीवनयापन किया गया होता तो आज का मनुष्य संतुष्ट भी रहता,अनाचार भी न करता और लोक-कल्याण की दिशा में बहुत कुछ कर पाता लेकिन वह तो “बड़ा बनने” की दौड़ में सब कुछ भुला बैठा है। उसे तो “बड़ा बनने” में और “महान बनने” का अंतर् ही मालुम नहीं है।
परिवार पालन एक बात है और परिवार तक ही सीमित हो जाना,परिवार के लिए नीति/अनीति अपना कर, बिना कुछ किये, फ्री बैठे खाते रहने जैसी पूँजी जुटाने में लगे रहना दूसरी बात है। अनीति से धनोपार्जन करने वाले ऐसे माता-पिता अक्सर कहते सुने गए हैं, “हम आपके लिए ही तो दिन-रात, दोनों हाथों से धन कमा रहे हैं। 2022 में ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से ही प्रकाशित लेख श्रृंखला,“यह धन किसका है ?” में महात्मा आनंद स्वामी जी की शिक्षा ने हमें कितना मार्गदर्शन दिया था,अभी भूला नहीं होगा।
परम पूज्य गुरुदेव के संरक्षण में पल रहे इस मंच से प्रकाशित होने वाला कंटेंट ही है जिससे आकर्षित होकर हमारे साथी जुड़ते हैं। इस परिवार में जुड़े साथियों में शायद ही कोई “बड़ा” हो लेकिन “महान” अनेकों हैं, जिनके चरणों में हम सदैव शीश झुकाते हैं । हमारे गुरु का मार्गदर्शन है ही ऐसा कि इसमें महानता समाई है।
परिवार को सुसंस्कृत और स्वावलम्बी बनाना एक बात है और लाड़-प्यार में उनकी हर इच्छा पूरी करना दूसरी बात। एक योग्य माली की तरह भगवान के सुंदर एवं दिव्य उपवन-रूपी परिवार को संभालना, संवारना, सजाना हमारा कर्तव्य तो है ही लेकिन इन्हीं चंद लोगों पर अपनी जीवन सम्पदा को केन्द्रित और न्योछावर कर देना कोई समझदारी नहीं है।
महाउपनिषद के वाक्यांश “वसुधैव कुटुम्बकम्” के अनुसार पूरी धरती एक परिवार की तरह है, और इसमें रहने वाले सभी लोग एक ही परिवार के सदस्य हैं । गुरुदेव ने सारा जीवन इस वसुधा के संरक्षण में ही लगा दिया, तभी तो वह महान कहलाए। दूसरी तरफ वोह व्यक्ति हैं जो अपने परिवार को, बच्चों को “बड़ा” बनाने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगाने में ही व्यस्त है, और न जाने क्या कुछ कर डालते हैं । विडंबना तो तब देखने को मिलती है जब यही संतान जिसको बड़ा बनाने के लिए इतना परिश्रम किया होता है, उनसे सुनना पड़ता है कि “आपने हमारे लिए किया ही क्या है?” कितना अच्छा होता कि “बड़ा बनाने” के बजाय “महान बनाने” की दिशा में भी कुछ प्रयास किया होता ।
कल रात का दिव्य संदेश इसी तरह का दर्शन करा रहा था। दिव्य शक्तियां महान व्यक्तियों को ढूंढ-ढूंढ कर समस्त प्रतिभा प्रदान करने को आतुर हैं। आवश्यकता पात्रता विकसित करने की है, न कि याचना की ट्रेनिंग की।
अल्लामा इकबाल की सुप्रसिद्ध पंक्ति “खुदी को कर बुलंद इतना” से भला कौन परिचित नहीं है। इसका अर्थ है, “स्वयं को इतना महान बनाओ कि हर भाग्य (तकदीर) से पहले, भगवान खुद तुमसे पूछें कि तुम्हारी इच्छा क्या है।” परिवार के सम्बन्ध में हमारा दृष्टिकोण उलझा हुआ नहीं बल्कि सुलझा हुआ स्पष्ट होना चाहिए।
ईश्वर व्यक्ति नहीं है। जिसे कुछ खिला-पिलाकर, दे दिला कर, कह-सुन कर,रिश्वत देकर प्रसन्न किया जा सके। विश्व मानव विश्व वसुधा को ही भगवान का साकार रूप माना जाय और ईश्वर-अर्पण, ईश्वर-पूजन का व्यावहारिक स्वरूप लोकमंगल के लिए बढ़−चढ़ कर अनुदान देने के रूप में प्रस्तुत किया जाय। अपने साधनों को ईश्वर का समझना, ईश्वरार्पण करने का सीधा-साधा अर्थ है अपने को समाज की एक अविच्छिन्न इकाई भर मानना और जो कुछ योग्यता तथा सम्पदा है उसे संसार को अधिक समुन्नत बनाने के लिए प्रत्यक्षतः समर्पण करना है।
“तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा” तो सुबह-शाम दो बार रटते हैं लेकिन व्यवहार में पूरे कृपण कंजूस बने रहना, यह ढोंग आत्मवादी को नहीं आत्म-प्रवंचक को ही शोभा देता है।
ईश्वर पूजन अर्थात् उत्कृष्टता के अभिवर्धन में किया गया त्याग बलिदान है । संकीर्णता और लिप्सा को नियंत्रित किये बिना, सेवा और परमार्थ का व्रत लिए बिना सच्ची ईश्वर भक्ति न किसी के लिए संभव हुई है न आगे होगी। ईश्वर को एक प्राणी मान कर उसे बहलाने फुसलाने के ढोंग रचते रहने वाले न तो भक्ति का स्वरूप समझते हैं और न ही उसका प्रतिफल प्राप्त करते हैं।
भौतिक सम्पदाओं की मात्र इतनी भर आवश्यकता है जिससे अपना और अपने परिवार का पोषण हो सके । कबीर जी ने बार-बार हमारी आँखें खोलने के लिए “साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय। मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाय।” की शिक्षा दी है। इस सुप्रसिद्ध दोहे का अर्थ है कि हे प्रभु! मुझे इतना दीजिए कि मेरे परिवार का पेट भर सके, मैं भी भूखा न रहूँ और कोई भी साधु-संत मेरे द्वार से भूखा न जाए।” लेकिन संचय की तृष्णा, बड़ा बनने की लालसा मनुष्य को कहां कुछ सोचने देती है।
बड़ा बनकर,दूसरों पर आतंक जमाने, आकर्षित करने और उन पर अपनी दृश्यमान विशेषताओं की छाप डालने की बाल-क्रीड़ा, भावात्मक बचपन की निशानी है। रूप, शृंगार, कौशल, वैभव पद का प्रदर्शन करके केवल “अहम” का ही पोषण/प्रदर्शन होता है।
आदरणीय चंद्रेश जी ने 99.99 % लोगों को बड़ा बनने की केटेगरी में डाला है। इस गणित के अनुसार 0.01 % लोग महान की केटेगरी में आते हैं। इस गणित का और विश्लेषण करने पर दिखता है कि सारे विश्व की 8 बिलियन जनसँख्या में से केवल 8 लाख लोग ही महान है। चलो विश्व की बात एक तरफ रख देते है, अपने आस-पास ही देख लेते हैं, ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में ही झांक लेते हैं, कितनों को देवशक्तियाँ अपने अनुदान देने को आतुर हैं, कितनों के घरों के द्वार गुरुवर ने खटखटाए हैं ? इन प्रश्नों के उत्तर ईमानदारी से ह्रदय को खोल कर रखने के बिना सम्बह्व नहीं है।
आत्म कल्याण और ईश्वर-प्राप्ति के लिए, देवत्व की महानता उपलब्ध करने के लिए अनमने भाव से कुछ पूजा-पत्री कर लेना पर्याप्त न होगा बल्कि उनके लिए मनोयोग वैभव और वर्चस्व का सर्वोत्तम अंश नियोजित करना पड़ता है। बड़प्पन के आकाँक्षी महानता प्राप्त नहीं कर सकते,महानता के उपासकों को बड़प्पन की अभिलाषा को नियंत्रित ही रख कर चलना होता है।
कल तक के लिए मध्यांतर।