वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

महानता का चयन दूरदर्शितापूर्ण है 

आज का दिव्य ज्ञानप्रसाद लेख कल आरम्भ हुए “महानता” के सागर में डुबकी लगाने का प्रयास है। परम वंदनीय माता जी ने अखंड ज्योति के माध्यम से, गुरुदेव के निर्देशों को अपने बच्चों के समक्ष रखा, हम ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से इन निर्देशों को समझने का प्रयास कर रहे हैं। 

जिस प्रकार हमें सोते-जागते, उठते-बैठते, अपने साथिओं को ज्ञानप्रसाद लेखों में समाहित अमृत के पयपान की उत्सुकता रहती है, ठीक उसी तरह वंदनीय माता जी कह रही हैं कि अब समय केवल हमें  सुनने, पढ़ने आदि का नहीं है, अब इस शिक्षा को अपनाने का समय है। विशालकाय युगनिर्माण योजना की प्रथम पायदान “व्यक्ति निर्माण” ही है।  

आज के लेख का समापन बहुत ही सुंदर शब्दों में गुरुदेव की एकांत साधना को रेफर करते किया गया है। गुरुदेव बता रहे हैं कि हमारी एकांत साधना को  जन-कोलाहल रहित सूनेपन की विशेषता नहीं माननी चाहिए बल्कि आकर्षणों-साधनों से सर्वथा मुक्त अकेले ब्रह्मवर्चस के महासागर  में विचरण करने वाले “आत्मबोध (स्वयं को जानने)  की प्रैक्टिस” के रूप में ही देखना चाहिए। आत्मचेतना को मनुष्यों तक सीमित न रखकर प्रत्येक जड़-चेतन में अपनी आत्मा का प्रकाश जगमगाते हुए देखने की दिव्य अनुभूति का इसे “एक प्रयोग” माना जाना चाहिए।”

तो आइये आज फिर शांतिपाठ के साथ आज के ज्ञानामृत की एक-एक बूँद से नवजीवन प्राप्त करें। 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥ 

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हम में से अनेकों साथी, छोटे लोगों की भांति छोटी-छोटी कामनाओं के भंवर में ही उलझे रहते हैं। इन छोटी-छोटी उपलब्धियों में जो छोटापन भरा रहता है,उसी को जुटाते रहते हैं, यही उनकी ज़िंदगी होती है, सारी  ज़िंदगी इसी में मरते खपते रहते हैं लेकिन इतना करने के बावजूद भी उन्हें न तो संतोष मिलता है और न ही उत्साह । 

सारी दुनिया भी यदि बड़े आदमियों से भर जाए तो इन छोटे व्यक्तियों का कुछ भी लाभ होने वाला है और न लोकहित सधने वाला है। अधिक खा-पहन लें और सुख-सुविधाओं की परिस्थिति प्राप्त कर लें तो इतने भर से किसी का क्या बना है ? शरीर से संबंधित भौतिक सुख क्षणिक गुदगुदी पैदा करते हैं और अपने साथ उतनी उलझनें लाते हैं, जिन्हें समेटना-सुलझाना उस क्षणिक गुदगुदी की तुलना में कहीं अधिक भारी पड़ता है। दूरदर्शिता केवल महानता का वरण करने में है। यह शिक्षा और दिशा गुरुदेव को उनके मार्गदर्शक से मिली और वे उस मार्ग पर चलते हुए उस स्थिति में पहुँचे, जहाँ उनके चुनाव को अबुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जा सकता। इस मार्ग पर न चलकर दूसरों की तरह बड़प्पन के ‘थूक-बिलोना’ में लगे रहते तो कितना पाते और अब शौर्य, साहस, विवेक और आदर्श की राह अपनाकर वे कहाँ जा पहुँचे। इसका तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि “बड़प्पन का नहीं, महानता का चयन दूरदर्शितापूर्ण है”; विशेषतया इन परिस्थितियों में जबकि बड़प्पन उगाने-बोने का मौसम बिलकुल चला गया। बदलती हुई परिस्थिति में कोई घृणा, निंदा और ईर्ष्या-द्वेष की आग में जलने का जोखिम उठाकर ही बड़प्पन की राह पर चलने का दुस्साहस कर सकता है।

गत फरवरी में कुछ समय के लिए मेरी बीमारी के सिलसिले में गुरुदेव आए और समय-समय पर उनके जो विचार सुनने-समझने को मिले, उनका उल्लेख मई अंक में कर दिया गया है। उस अंक में उनकी एक ही लालसा उभरी पड़ रही है कि उनके प्रियजन महानता का वरण करें। उनके कंधे से कंधा मिलाकर चलें और उस लक्ष्य तक पहुँचें, जहाँ मानव जीवन सार्थक एवं कृतकृत्य होता है। वार्ता के बीच-बीच में निराशा, क्षोभ, दुःख के भाव भी उनके चेहरे पर झलकते दिखाई पड़े। इसके पीछे एक ही व्यथा थी कि हर आधार पर समझाने के साथ अपना निज का उदाहरण प्रस्तुत करने पर भी उनके प्रियजन उस मार्ग पर चलने के लिए क्यों तैयार नहीं होते? अपनी पात्रता में वृद्धि क्यों नहीं करते? उनकी सहायता के लिए लालाइत देवशक्तियाँ जो उनका दरवाजा कब से खटखटा रही हैं, उनके लिए रास्ता क्यों नहीं खोलते?

वे चाहते थे कि उनके प्रियजन महानता का मार्ग अपनाएँ। उसके लिए पात्रता का चयन करें और ऐसा चिंतन अपनाएँ, जिसे धारणा, ध्यान, प्रत्याहार और समाधि की संज्ञा दी जा सके। यह चिंतन वही हो सकता है,जो व्यक्ति निर्माण-प्रक्रिया के अंतर्गत गुरुदेव आए दिन समझाते रहे हैं। वे चाहते हैं कि उनके हर साथी को इसी जीवन में स्वर्ग और मुक्ति के पग-पग पर भरपूर आनंद मिले। इसके लिए कोई मंत्रानुष्ठान पर्याप्त नहीं हो सकता। इसके लिए लोकमंगल की वह साधना अपने कर्तृत्व में सम्मिलित करनी पड़ती है, जिसे उन्होंने “शतसूत्री युगनिर्माण योजना” के नाम पर अनेकों बार अनेकों ढंग से कहा है। उस पुराने कथन-उपकथन को साररूप में दोहरा देने और उसे चिरंतन अथवा नवीनतम संदेश के रूप में परिजनों तक पहुँचा देने के लिए उन्होंने आदेश दिया था, सो उसी का पालन करते हुए मई अंक की लेखमाला लिख दी गई।

लेकिन मेरा लिख देना और पाठकों का पढ़ लेना ही पर्याप्त न होगा, आवश्यकता उसे समझने, हृदयंगम करने और कार्यान्वित करने की है। उन संदेश-निर्देशों को यदि कार्यरूप में परिणत किया जा सके तो वह क्रियाकलाप “एक उच्चतम युगसाधना” की आवश्यकता पूरी करेगा। देशकाल और पात्र के अनुरूप सदा ही साधना-विधानों में फेर-बदल होता रहा है और उसका संदेश लेकर तत्कालीन अग्रदूत इस पृथ्वी पर आते रहे हैं। 

आज की स्थिति में व्यक्तिगत महानता के अभिवर्द्धन और लोकमंगल के अनुष्ठान की दृष्टि से वही प्रक्रिया सर्वोत्तम रहेगी, जिसे मई के अंक में संक्षिप्त रूप से बताया गया है। आशा है, उसे पढ़-समझ लिया गया होगा।

उस परामर्श, चिंतन एवं निर्देश के बारे में हर परिजन की प्रतिक्रिया जानने की आवश्यकता अनुभव की गई थी, सो गत अंक में अनुरोध किया गया था कि प्रस्तुत विचारधारा से कौन-कितना सहमत है और किस अंश से असहमत है? उसमें सुधार के लिए किसका क्या परामर्श है? कौन उस परामर्श को कार्यान्वित करने के लिए क्या सोच रहा है, क्या कर रहा है और क्या करने जा रहा है? यह जानने की उत्सुकता हम लोगों को होनी नितांत स्वाभाविक है। स्वजनों की गतिविधियाँ अपनी निज की प्रतीत होती हैं और उनकी सहज ही गहरी रुचि जुड़ी रहती है। किसका भविष्य क्या बन सकता है, इसका अनुमान किसी के कर्तृत्व और चिंतन को देखकर ही किया जा सकता है। इसी को सच्चा “हस्तरेखा विज्ञान और सच्ची जन्मकुंडली निरीक्षण” कह सकते हैं। प्रतिक्रिया पूछने का यही प्रयोजन था। अधिकांश परिजनों की प्रतिक्रिया पत्ररूप में प्राप्त हो गई है। जिनकी अभी नहीं आई है, उन सबकी भी गायत्री जयंती से पूर्व आ जाएगी, ऐसा विश्वास है। पूर्वसूचना के अनुसार वे सभी पत्र गुरुदेव के पास भेज दिए जाएँगे या निकट भविष्य में इधर आने वाले हुए तो यहीं देख जाएँगे। यह सर्वविदित है कि गुरुदेव की भावी साधना-तपश्चर्या का आधार युग-परिवर्तन की संभावनाओं को प्रबल करने के लिए सूक्ष्मजगत में असाधारण हलचल उत्पन्न करना है। 

नवयुग का आगमन एक सुनिश्चित तथ्य है। इस मेहमान की आगमन-व्यवस्था करने के लिए गुरुदेव एक  स्वागत अधिकारी की तरह अपनी भूमिका निभा रहे हैं। उनका इन दिनों महत्त्वपूर्ण उपार्जन चल रहा है। जमा करना तो उनकी प्रवृत्ति में है ही नहीं। आने से पहले ही उन पर बाँटने की धुन  सवार हो रही है। इस एक वर्ष में जो कमाया गया है। उसे किसे, कितना, किस प्रकार बाँट दें, इसी उधेड़बुन में वे लगे हैं। अधिक कमाई की बात भी चल रही है लेकिन  उपार्जन से अधिक वे सदा वितरण पर ध्यान  देते रहे हैं । अतः अब भी उसी स्तर पर सोच रहे हैं। फरवरी में जितने दिन वे शांतिकुंज रहे, इसी वितरण की योजना बनाते रहे। यह प्रसंग उन्होंने कितनी ही बार दोहराया  कि “अब बड़प्पन का मौसम चला गया। जो ऋतु के प्रतिकूल प्रयास करेगा, वह तो असफल ही रहेगा और जितना कमाएगा, उससे ज्यादा विपत्ति मोल लेगा।” वह संपदा रह भी न सकेगी। अपनी कुपात्र संतानें, समाज के विद्रोहीतत्त्व तथा सरकारी कानून उसे संग्रहीत न रहने देंगे। उपार्जन में इन दिनों की असाधारण प्रतिद्वंद्विता, अत्यधिक लोभ की पूर्ति के लिए अपनाई गई अवांछनीयता को तप-साधना जैसा कष्ट उठाकर सहन भी किया जाए तो उसके बेतरह नष्ट होने का दुःख और भी विकट होगा। अगले दिनों हर किसी को निर्वाह भर मिलेगा और शक्ति भर अनिवार्य रूप से काम करना पड़ेगा।

यदि व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में लगी हुई जनता को गुरुदेव की सरल सी शिक्षा समझ आ जाये तो बहुत कुछ हो सकता है । महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति से थोड़ा हटकर यदि समय और धन बचाया जा सके तो  उस बचे हुए समय, मनोयोग एवं धन की मात्रा से संभव है कि आज की आपत्तिकालीन आवश्यकता की पूर्ति हो सके। 

ऐसा केवल मानसिक परिवर्तन से ही संभव हो पाएगा। इस प्रकार के “हृदय परिवर्तन” के बाद ही महानता के पथ पर चलने के लिए साहस जुटा पाना संभव हो सकेगा। 

पदार्थों की असीमित चाह/इच्छा यदि कुछ कम हो सके तो नवनिर्माण की दिशा में कुछ सोचा जा सकता है। गुरुदेव यहां पर स्वयं के निर्माण की, व्यक्ति के निर्माण की बात कर रहे हैं। व्यक्ति निर्माण ही परिवार निर्माण, समाज निर्माण,युग निर्माण जैसी सीढ़ी की प्रथम पायदान है। इस तथ्य को वे बहुत बार, बहुत गंभीरता से कहते और बताते आ रहे हैं  कि, “जिन पर अपना थोड़ा सा भी प्रभाव हो या जिनमें महानता की दिशा में चलने की तनिक भी वास्तविक आकांक्षा हो, उन्हें सबसे पहला मंत्र यही दिया जाना चाहिए कि “बड़प्पन का मौसम चला गया।” अब उस दिशा में पैर पीटने से लाभ कम और हानि अधिक है। जीवन कृतकृत्य बनाने और ईश्वरीय प्रवाह में बहते हुए रीछ-वानरों की भूमिका प्रस्तुत करने का ठीक यही अवसर है।” हर परिजन में महानता प्राप्त करने की व्याकुल तड़पन उठनी चाहिए। 

महानता के इस प्रथम चरण के बाद ही आगे की कुछ बात बनेगी। उन्होंने जो कहा था, उसी को इन पंक्तियों में फिर अधिक जोर देकर कह दिया गया है। जिन्हें यह तथ्य उचित लगा हो, वे इतना साहस और करें कि इस दृष्टिकोण को दैनिक व्यावहारिक गतिविधियों में परिणत करने के लिए कदम बढ़ाएँ। केवल पठन-पाठन और सोच-विचार करते रहने से बहुमूल्य समय ऐसे ही बीतता चला जाएगा, जैसे कि अब तक का जीवन बालक्रीड़ाओं में बीत गया।

गुरुदेव ने कहा था कि, “आज की परिस्थितियों में सर्वोत्तम तप-साधना वही हो सकती है, जो स्वयं उन्हें करनी पड़ी। उनकी साधना का बाहरी स्वरूप भर देखना पर्याप्त न होगा। चौबीस लाख के चौबीस पुरश्चरणों की जप संख्या को महत्त्वपूर्ण नहीं मानना चाहिए। महत्वपूर्ण तथ्य तो उसे  मानना चाहिए जिसके अनुसार हर मंत्र-जप के साथ-साथ ऋतंभरा प्रज्ञा का प्रकाश अपने रोम-रोम में भरने और उसी प्रकाश का अनुगमन करते हुए अपनी मानसिक और शारीरिक गतिविधियों को एक विशेष दिशा में लगाए रहने का साहस कर दिखाया। गुरुदेव की उस समय की  एकांत साधना को जन-कोलाहल रहित सूनेपन की विशेषता नहीं माननी चाहिए बल्कि आकर्षणों-साधनों से सर्वथा मुक्त अकेले ब्रह्मवर्चस के महासागर में विचरण करने वाले आत्मबोध की प्रैक्टिस के रूप में ही देखना चाहिए। आत्मचेतना को मनुष्यों तक सीमित न रखकर प्रत्येक जड़-चेतन में अपनी आत्मा का प्रकाश जगमगाते हुए देखने की दिव्य अनुभूति का इसे “एक प्रयोग” माना जाना चाहिए।”

अगले लेख तक मध्यांतर। 


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