वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

बड़ा बनने में और महान बनने में क्या अंतर् है ? 

आज सोमवार है, सप्ताह का प्रथम दिन, एक नवीन ऊर्जा का दिन, एक नए संकल्प का दिन, एक नए टॉपिक के  दिव्य शुभारम्भ का दिन । अक्सर कहा जाता है कि परम पूज्य गुरुदेव द्वारा  रचित विशाल साहित्य में समाहित ज्ञान में जीवन से सम्बंधित शायद  ही कोई ऐसा विषय हो जिसका समाधान न मिलता हो और वोह भी इतनी सरल प्रैक्टिकल भाषा में कि  किसी भी Layman को समझने में कोई समस्या आती हो।  लेकिन अधिकतर साथी  अज्ञानता एवं उत्सुकता के वशीभूत सारा ज्ञान एक ही दिन में प्राप्त करना चाहते हैं; यज्ञ से लेकर अनुष्ठान तक,गायत्री उपासना से गायत्री महाविज्ञान तक, साधना से सिद्धि से लेकर हिमालय के उच्च शिखर तक छलांग लगाने तक। अलग-अलग सोशल मीडिया साइट्स पर अनेकों, सोशल ग्रुप्स पर मेंबर बढ़ाने को होड़ में भाग रहे अनेकों साथिओं की गतिविधियां उपरोक्त तथ्य का साक्षात् प्रमाण हैं। कितना अच्छा हो इस तथ्य को स्वीकार कर लिया जाए कि ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का प्रत्येक साथी नर्सरी का, घुटनों के बल चलने वाला विद्यार्थी है जिसने अभी पूरी तरह से स्थिर होकर बैठना भी नहीं सीखा है,चलना तो दूर की बात है, गगन में ऊँची छलांग लगाना तो अभी बहुत दूर की बात है। 

हमारी व्यक्तिगत समर्था तो इतने निम्न स्तर की है कि हम अभी अखंड ज्योति के दिव्य विशाल ज्ञान में ही अटके पड़े हैं। किसी भी अंक तो देखते हैं  उसका लिंक अपनी ऑनलाइन लाइब्रेरी में सेव कर लेते हैं। अगर कहें कि हम तो अभी “अपनों से अपनी बात” के टाइटल में ही फंसे हुए हैं तो शायद कोई अतिश्योक्ति न हो। परम पूज्य गुरुदेव के दिव्य व्यक्तित्व को जानने में हमारी जिज्ञासा और रूचि को अतिरिक्त बल इस तथ्य से मिल रहा है कि  गुरुदेव/माता जी स्वयं ही सम्बंधित साहित्य हमारे हाथ में थमाए जा रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि परम पूज्य गुरुदेव एवं परम वंदनीय माता जी हमारे अंतर्मन में विराजमान है और एक-एक करके हमें चैप्टर थमाए जा रहे हैं और हम एक निसिखिये डाकिये की भांति, स्वयं पढ़कर, समझ कर, सरल करके, जिज्ञासुओं को गुरु-प्रेमपत्र दिए जा रहे हैं। 

परम वन्दनीय माता जी ने आज  जिस सन्देश को ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में  वितरित करने का आदेश दिया है उसकी रचना वह स्वयं जून 1972 की अखंड ज्योति में अपने करकमलों से  कर चुकी हैं। “महानता प्राप्त करने की दिशा में एक चरण आगे बढ़ाएँ” शीर्षक वाला यह अद्भुत लेख हम सबके जीवन में ऐसा मार्गदर्शन प्रदान करने वाला है जिसकी हमें बहुत ही आवश्यकता है। दैनिक जीवन की समस्याओं का समाधान प्रदान करता यह लेख, एक लेख शृंखला की भांति आने वाले कुछ दिनों तक चलने की सम्भावना लिए हुए है। 

इस लेख में परम वंदनीय माता जी, मई 1972 के अखंड ज्योति अंक यानि एक माह पूर्व वाले अंक में अनेकों टाइटलस के अंतर्गत प्रकाशित किये गए गुरुदेव के निर्देश और व्यथा का सारांश बता रही हैं। यह सारांश भी लगभग 5000 शब्दों का है जिसे ग्रहण करने में इस सप्ताह के चार दिन भी कम  ही प्रतीत हो रहे हैं। यदि कमैंट्स -काउंटर कमैंट्स के माध्यम से साथिओं का सहयोग मिलता रहा तो मई अंक के सारे नहीं तो कुछ एक लेख तो इस मंच पर प्रस्तुत होने ही चाहिएं। 

आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ करने से पहले साथिओं के साथ शेयर करना उचित समझते हैं कि 1972 में वंदनीय माता जी को एक के बाद एक, तीन हार्ट अटैक हुए, इनके  कारण वन्दनीय माता जी के पुकारने पर गुरुदेव अपनी हिमालय यात्रा छोड़कर फ़रवरी 1972 में शांतिकुंज आये, कुछ समय के लिए रुके  और चले गए। अपने विशाल परिवार के लिए, अपने बच्चों के लिए जो सन्देश दिए उन्हें अखंड ज्योति के मई अंक में प्रकाशित किया गयाथा।  

इसी प्रस्तावना के साथ, विश्वभर में मारकाट से स्थाई शांति  के लिए, मुर्ख आत्माओं के ह्रदय परिवर्तन की कामना के साथ आज के लेख का शुभारम्भ करते हैं : 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥ अर्थात  शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में, अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में, सकल विश्व में अवचेतन में, शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में,शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए !

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बड़प्पन यां महानता?

बड़प्पन का मौसम चला गया। बरसाती फसल बोए और उगाए जाने की रुत  चली गई। अब बैसाखी रबी की फसल बोई जानी है। अब गेहूँ, जौ और चना  ही बोया और उगाया जाएगा। बरसाती अनाज मक्का आदि जिस मौसम में बोए, उगाए और काटे जाते हैं, वह अब रहा नहीं। किसी को वे फसलें अब नहीं बोनी चाहिए, जो झर बादल के दिनों में ही आनन-फानन में तैयार होती थीं। अब लंबी सर्दियाँ सामने आ रही हैं और पानी बरसने की आशा भी कम है। जो ऐसी परिस्थितियों को सहन कर सके, अब उन्हीं फसलों को बोया-उगाया जाना चाहिए।

एक समय था, जब थोड़ी-सी चतुराई के बल पर आसानी से बड़ा आदमी बना जा सकता था। भोले लोगों को उलझाकर किसी भी स्तर पर,किसी भी तरीके से  पैसा बनाया जा सकता था और अपने को भाग्यवान, पुण्यवान, दैवी कृपापात्र सिद्ध किया जा सकता था। भगवान का एकाध मंदिर बना देना और रामनामी ओढ़ लेने से लोग डर जाते थे कि देवता इनके वश में है। ये जो चाहें  सो कर या करा सकते हैं। उन दिनों एक ओर आतंक, निराशा थी, आतंकवादी और भोलेपन की संगति में चतुराई, बड़प्पन का आधार खड़ा कर देती थी। अमीरी को देखकर अनेक अभावग्रस्त चापलूस पीछे-पीछे फिरते थे। उनकी सहायता से मनमानी करना और भी सरल हो जाता था और इस सरंजाम को खड़ा कर लेने वाला सहज ही ठाठ-बाठ का बड़ा आदमी बन जाता था।

अब वह समय बिलकुल चला गया। ( अभी भी अनेकों लोग ऐसे हैं लेकिन बहुतों के हृदय परिवर्तन हो रहे हैं 

जहाँ ध्वंसावशेष खड़े हैं और बालू के किले रच दिए गए हैं, वे आजकल में ढहने ही वाले हैं। जनता काफी सजग और चतुर हो गई है। जिन्हें कुछ मतलब निकालना हो, उनकी बात अलग है। साधारणतया बड़ा आदमी हर किसी की आँख में खटकता है और ईर्ष्या-द्वेष का शिकार बनता है। जनसाधारण की तुलना में बहुत ऊँचा स्तर बना लेना अब निष्ठुर, चोर या डाकू लोगों की तुलना में गिना जाता है; भले ही वह धन ठीक तरीके से  ही क्यों न कमाया गया हो। इस कटु आलोचना में इतना तो तथ्य भी है कि जिस आपत्तिकाल में युग की पुकार एक-एक पैसे एवं एक-एक श्रमबिंदु के लिए थी, उन दिनों ये तथाकथित बड़े आदमी अपना वैभव बटोरने में लगे रहे और विश्वमानव की आवश्यकता को नकारते रहे, निष्ठुरता एवं कृपणता दिखाते रहे ।

जो भी हो,अब हर दूरदर्शी का दृष्टिकोण बदलना चाहिए। उसे बड़ा आदमी बनने की महत्त्वाकांक्षाएँ छोड़नी चाहिए और महान बनने की राह पकड़नी चाहिए। आज समझदारी का तकाजा इसी परिवर्तन की आशा कर रहा  है। 

महानता का मार्ग घाटे का नहीं, बल्कि दोहरे लाभ का मार्ग है। उसमें “आत्मसंतोष” के साथ “लोकमंगल”  की वे संभावनाएँ भी जुड़ी हुई हैं, जिनके कारण इतिहास बदलता है और व्यक्ति को “नायक”  बनने का अवसर मिलता है। आमतौर से इस मार्ग को  घाटे का सौदा  समझा जाता है लेकिन यह भ्रांति है। 

गाँधी, बुद्ध, नेहरू, पटेल, तिलक, मालवीय, राजेंद्र,सुभाष  आदि ने विशेष रूप से महानता के पथ पर ही चरण बढ़ाए थे लेकिन  उन्हें बड़प्पन की उपलब्धियाँ भी कहाँ कम मिलीं। बड़े आदमी एक कोठी-बँगला भर बना पाते हैं लेकिन महामानव जनता के हृदय में चिरकाल तक अपना भाव भरा राजमहल  बनाए रहते हैं। परम पूज्य गुरुदेव इस तथ्य के साक्षात् उदाहरण हैं। वर्षों से हमारे सबके ह्रदय में स्थान बनाये हुए हैं, बनाते रहेंगें। 

गुरुदेव सदैव अपने प्रियजनों के लिए महानता की उपलब्धियाँ प्रस्तुत करने के लिए आकुल और आतुर रहे हैं। उन्होंने “एक उच्चस्तरीय जौहरी” का धंधा किया है और यही बात  अपने अनुयाइयों को भी सिखाना चाहते हैं। 

यह दुर्भाग्य ही है कि लोग तुच्छ, छोटे-छोटे  भौतिक लाभों के पीछे भागते रहते हैं एवं उनसे प्राप्त होने वाले बड़प्पन-रुपी दलदल में धसते ही जाते हैं, बाहर निकलने को तैयार नहीं होते,प्रयास ही नहीं करते। 

हमारी  जान पहचान के एक 85  वर्षीय साथी रियल एस्टेट,फाइनेंसियल एडवाइजर के क्षेत्र में  कार्यरत हैं। कुछ दिन पहले किसी समारोह में पहली बार मुलाकात हुई, एक ही टेबल शेयर कर रहे थे। बातचीत में उनके व्यवसाय पर चर्चा चली  तो कहने लगे, “बहुत काम है, सांस लेने तक का  समय नहीं है। हम तो काम छोड़ना चाहते हैं लेकिन काम हमें नहीं छोड़ता।” ऐसे बता रहे थे जैसे उनके बिना संसार एकदम Collapse हो जायेगा, Multi-million dollar में पति -पत्नी, केवल दो जीव ही रह रहे हैं,बच्चे अपनी-अपनी जगह  सेटल हैं,कोई Liability नहीं है फिर भी धन के पीछे भागना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? यही है जीवन का दलदल जिसमें मनुष्य धंसता ही जाता है और ठीकरा दूसरों पर फोड़ता है। इसी छोटे से पहले और अंतिम संपर्क में हमारे बारे में, हमारी दिनचर्या के बारे में  उन भाई साहिब ने जो व्यंग्यात्मक डायलाग प्रस्तुत किये थे,हमारे साथी स्वयं ही अनुमान लगा सकते हैं।

आज के ज्ञानप्रसाद लेख का Abrupt मध्यांतर यहीं पर करना उचित समझते हैं, कल के लेख का शुभारम्भ यहीं से करेंगें, इस आशा के साथ कि जिन साथिओं ने परम पूज्य गुरुदेव एवं परम वंदनीय माता जी का स्थूल दर्शन किसी प्रारब्धवश मिस कर दिया था, यह लेख श्रृंखला उनके साक्षात् निर्देश जैसी है। 

जय गुरुदेव, धन्यवाद्             


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