12 जून 2025 का ज्ञानप्रासद-अखंड ज्योति नवंबर 1971
नवंबर 1971 की अखंड ज्योति में प्रकाशित वंदनीय माता जी के मुखारविंद से प्रस्तुत की गयी 3-अंकीय लेख शृंखला के तीसरे एवं समापन अंक का शीर्षक बहुत ही आकर्षक है। आज प्रस्तुत किये गए ज्ञानप्रसाद लेख के शीर्षक “क्या हम गुरुदेव के स्तर की साधना कर सकते हैं ?” से कम से कम निम्नलिखित प्रेरणा तो ले ही सकते हैं:
सामान्य जप, अनुष्ठानों के कर्मकांड पूरे करने के साथ जो कोई भी पंचमुखी,दशभुजी दिव्य गायत्री को अपने प्राण, हृदय,मस्तिष्क और आचरण में घुला लेता है,वह वैसा ही लाभ प्राप्त कर सकता है जैसा कि गुरुदेव ने उपलब्ध किया है।
हमारा व्यक्तिगत मत है कि “कहाँ गुरुदेव और कहाँ हम ?”, इतनी ऊँची छलांग लगाना कोरी शेखी ही है। गुरुदेव ने स्वयं को जिस स्तर तक तपाया,उसकी चर्चा व्यक्तिगत मार्गदर्शन के लिए लाभदायक है,उनके स्तर की उड़ान भर पाना- – – – हमसे तो पूर्ण श्रद्धा के साथ एक सरल सा मापदंड “नियमितता” का ही पालन नहीं हो पाता, बाकी की तो बहुत दूर की बात है।
खैर, जो भी हो आज का ज्ञानप्रसाद सही मायनों में ज्ञान का पिटारा है, इसे धीरे-धीरे, समझकर ग्रहण करने में ही बुद्धिमता है क्योंकि इसे Compile करने में हमारा बहुत परिश्रम लगा हुआ है, इसका सार्थक होना अति आवश्यक है।
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पंचकोशी साधना एक गहन साधना पद्धति है, जिसका उद्देश्य शरीर, मन और आत्मा की शुद्धि और आत्मज्ञान प्राप्त करना है।इसमें ध्यान, योग, प्राणायाम, मंत्र-जप और आत्मनिरीक्षण शामिल होते हैं।
इसे समझने से पहले मानव शरीर और चेतना के निम्नलिखित पांच कोशों अर्थात परतों को जानना जरूरी है:
1.अन्नमय कोश (शरीर):यह हमारा भौतिक शरीर है जो अन्न से बना है। इसमें हड्डियाँ, मांसपेशियाँ, अंग आदि शामिल हैं।
2.प्राणमय कोश (ऊर्जा):यह शरीर में प्रवाहित होने वाली जीवन ऊर्जा है। श्वास, रक्त संचार, पाचन आदि इसी से संचालित होते हैं।
3.मनोमय कोश (मन):यह हमारी सोच, भावनाएँ और इच्छाओं का स्तर है। इससे व्यक्ति की मानसिक स्थिति बनती है।
4.विज्ञानमय कोश (बुद्धि):यह विवेक, निर्णय क्षमता और आत्मचिंतन का स्तर है।यह मन से ऊपर होता है।
5.आनंदमय कोश (आनंद): यह आत्मा के सबसे निकट है, जहां शुद्ध आनंद और शांति होती है। ध्यान और समाधि में इसी का अनुभव होता है।
हमारे प्रसिद्ध ग्रन्थ वृहदारण्यक में एक उपाख्यान आता है कि देवताओं ने “वाणी” से कहा, “आप हमारे उत्कर्ष का माध्यम बनिए।” सत्यव्रती वाणी ने वरदान दिया और देवता शक्तिशाली हो गए। असुरों ने सोचा इस तरह तो देवता हमें जीत लेंगे। उन्होंने देववाणी को पापविद्ध कर दिया, वह उचित-अनुचित कुछ भी बोलने लगी और देवताओं का यह अस्त्र निष्फल हो गया। तब देवताओं ने “गंध” से कहा,”तुम हमारी सहायता करो।” श्रेष्ठग्राही गंध ने देवों की सहायता की। असुरों ने देवताओं को गिराने के लिए “गंध” को भी पापविद्ध कर दिया और वह शुभ-अशुभ किसी भी “गंध” को ग्रहण करने लगे । वह अस्त्र भी निष्फल हो गया और देव गिरने लगे। तब देवता चक्षु के पास गए और उनसे सफलता की प्रार्थना की। श्रेयदर्शन का व्रत धारण किए हुए चक्षु देवताओं को समुन्नत करने लगे। तब कुटिल असुरों ने दृष्टि को भी पापविद्ध कर दिया और वे उचित-अनुचित कुछ भी देखने लगे ।फलतः उनकी शक्ति भी नष्ट हो गई और देव हतप्रभ हो गए। इसी प्रकार “कानों” को असुरों ने पापविद्ध किया। “मन” ने देवताओं की सहायता की लेकिन पापविद्ध होने पर वह भी असहाय हो गया।
आखिरकार दु:खी देवताओं ने “प्राण” का आश्रय लिया, असुर उसे पापविद्ध न कर सके और देवता विजयी हुए।
जो “प्राण की रक्षा करता है, वह कभी नहीं हारता और मृत्युंजय बन जाता है।”
मनुष्य की इंद्रियां:
मनुष्य की इंद्रियाँ देवशक्तियों से ओतप्रोत हैं। यदि उन्हें पाप कर्मों में निरत न होने दिया जाए, केवल कल्याण को ही ग्रहण किया जाए और श्रेयपथ पर ही चला जाए तो इंद्रियों में सन्निहित “शक्ति भंडार” के सदुपयोग से मनुष्य जीवन-संग्राम के हर मोर्चे पर विजयी हो सकता है। यदि इंद्रियाँ असंयमी, बेइमानी और कुमार्गगामी हो जाएँ तो फिर देवता जैसे वैभववानों को भी पराजय का मुँह देखना पड़ता है। जिस मनुष्य का “प्राण” प्रबल है,संकल्प अडिग है,वही पापविद्ध किए जाने पर भी असुर षडयंत्र को विफल कर सकता है और अजर-अमर मृत्युंजय बन जाता है।
गुरुदेव का जीवन दर्शन:
गुरुदेव के जीवन दर्शन से पता चलता है कि उन्होंने अपने जीवन में उपरोक्त कथानक का मर्म उतार लिया। गुरुदेव इन्द्रियों से दासियों जैसा काम लेते रहे। दूसरों की तरह स्वयं को बेईमान न होने देने के लिए सदा सजग रहे। अभक्ष उन्होंने कभी खाया नहीं,अनीति का अन्न कभी गले से नीचे नहीं उतरने दिया। साधनाकाल में 5 मुट्ठी जौ का आटा और 5 पाव छाछ दैनिक आहार पर निर्वाह करते रहे, इसके पश्चात भी न उन्होंने स्वाद को आगे आने दिया, न अनीति उपार्जित अभक्ष के लिए मुँह खोला। भूख बुझाने के लिए औषधिरूपी अन्न के अतिरिक्त स्वाद के सम्बन्ध में कभी सोचा तक नहीं। वाणी से असत्य बोलने और छल करने की आवश्यकता कभी पड़ी ही नहीं। न किसी को कुमार्ग पर चलाया, न किसी का जी दुखाया। ऐसी निष्पाप और निर्मल जिह्वा पर सरस्वती ही विराजमान रह सकती थीं, सो रही भीं । मां सरस्वती के आशीर्वाद न कभी निष्फल गये, न ही कभी उनके द्वारा दिए गए परामर्श टाले गये।
इस “वाक् पवित्रता” ने उनका अन्नमय कोश जागृत करने में भारी सहायता की। वाक् पवित्रता का अर्थ है शुद्ध, सत्य, और मधुर वाणी का उपयोग करना, नकारात्मक बातें, झूठी बातें, दूसरों को दुःख पहुंचाने वाले शब्द बोलने से बचना।
गुरुदेव सदा सर्वत्र सद्भावना और श्रेष्ठता की गन्ध सूँघते रहे। किसी की दुर्भाव दुर्गन्ध उन्होंने कभी ग्रहण की ही नहीं। निंदा करने वालों को भी बुरा नहीं माना बल्कि उन्हें साबुन का प्रयोजन पूरा करने वाली हितैषी, सफाई करने वाली मानकर दुलारा। दुर्जनों में भी सज्जनता ढूँढ़ी और हर भले-बुरे में ईश्वर का अंश विद्यमान देखते हुए उसे स्वच्छ और सुन्दर बनाने के लिए प्रयत्न करते रहे। गंध देवता को उन्होंने पापविद्ध नहीं होने दिया इसलिए वह उन्हें विजयी ही बनाता रहा जिससे गुरुवर को मनोमय कोश की जागरण-प्रक्रिया को सरल बनाने में भारी सहायता मिली । गुरुदेव ने आँखों से केवल श्रेय ही देखा। नारी के प्रति माता, पुत्री और भगिनी की ही दृष्टि रही। वंदनीय माताजी बता रही हैं कि हम पति-पत्नी होते हुए भी एक सहोदर भाई-बहिन की तरह पवित्रतापूर्वक जिए। लोक-शिक्षण के लिए संतान उत्पन्न करनी पड़ी तो वह कार्य भी धर्मकृत्य की भावना से ही संपन्न हुआ। विकारों को तब भी मन में नहीं उठने दिया। जो पढ़ा वह मंगलमय के अतिरिक्त और कुछ था ही नहीं।आचार्य जी ने दृष्टि को पवित्र रखकर समस्त विशेषताएँ उत्पन्न कर लीं थीं। जिसकी ओर भी उन्होंने भावभरी दृष्टि से देखा वह निहाल होता चला गया। ऐसे दिव्य चक्षुओं से ही अर्जुन ने भगवान के विराट् रूप को देखा था। चक्षु देवता को जिसने सिद्ध कर लिया, उसके लिए प्राणमय कोश में सन्निहित सिद्धियाँ उनकी मुट्ठी में ही समझी जानी चाहिए। गुरुदेव ने आज्ञाचक्र को जागृत करने की, प्राण में प्रखरता लाने की, क्रिया-प्रक्रिया अवश्य की है लेकिन उनमें जो खाद-पानी लगा, वह नेत्रों को पवित्रव्रती बनाए रखने और असुरता द्वारा उन्हें पापविद्ध न होने देना ही सफलता का प्रधान कारण रहा है।
कानों से केवल दिव्य प्रयोजन ही सुनना,निंदा,चुगली,सज्जनों के सदवचनों में ही रुचि रखना, स्नेह संभाषणों को याद रखना और कटु-कर्कशता को भूल जाना, कर्णेन्द्रियों की पुण्य-साधना है। निरर्थक सुनने और सुनाने में जिसे अरुचि रहती है, जो दूसरों की व्यथा वेदना खोजने और सत्परामर्श सुनने को आतुर रहते हैं, वे कान धन्य हैं। उन्हें अमृतकलश कहना चाहिए, इन्हीं से छन-छनकर मस्तिष्क में देवत्व का संचय होता है और आनन्द, उल्लास से अन्तःकरण भरने लगता है। आनंदमय कोश को जागृत करने के लिए नादयोग प्रभृत साधनाएँ करनी पड़ती हैं लेकिन उनकी परिपुष्टि जिस भूमिका पर होती है, वह कर्णेंद्रिय का सदुपयोग ही है। कुंडलिनी शक्ति की प्रचंड क्षमता विज्ञानमय कोष पर केन्द्रीभूत होती है। ब्रह्मरंध्र, क्षीरसागर, सहस्रारकमल में ज्ञानबीज सन्निहित है और मूलाधार चक्र, जननेंद्रिय चक्र में विज्ञान की भौतिक शक्तियों का भंडार भरा पड़ा है। नई सृष्टि उत्पन्न कर सकने की, नया संसार बसाने की कम्पन इसी स्थल पर विराजमान है। गुरुदेव ने इस शिवकेन्द्र को पवित्रतम देव प्रतिमा की तरह ही समझा और उस शक्ति-स्त्रोत का एक भी कण फिजूल न करके खाद की तरह ब्रह्मभक्ति में ही प्रयुक्त किया। पाँच-तत्त्वों के प्रकाश को प्रस्फुटित करने वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ वस्तुतः पाँच देवियाँ हैं । जो मनुष्य उन्हें व्यभिचारिणी वेश्या के कुपथ को ओर आकर्षित होने से रोकता है, मातृवत् श्रद्धा के साथ इन ज्ञानइन्द्रियों की पूजा करता है, उसके पास सिद्धियों की कोई कमी नहीं रहती।
मन, बुद्धि, चित, अहंकार और प्राण यह पाँच देवता पाँच शक्तिकोशों के अधिपति हैं।
इन अधिपतियों को भी इंद्रियों की तरह ही संभालना पड़ता है। मन की चंचलता, अयोग्य भोगविलास के लिए भटकने न पाए, वासनाओं में रमण न करने लगे, तृष्णाएँ अयोग्य मार्ग में संपदा और सुख एकत्रित करने के लिए मचलने न लगें आदि नियंत्रण से मन को कण्ट्रोल किया जाता है। बुद्धि अपने साथ पक्षपात, दूसरों के साथ अन्याय, रुचिकर का समर्थन और अरुचिकर का विरोध करने लगती है। चित्त की प्रवृत्ति, उत्कृष्टता की अभिरुचि छोड़कर निकृष्ट अभिव्यंजनाओं में भटकने लगे तो समझना चाहिए कि उसकी दिव्यशक्ति का नाश हो चला। मनुष्य स्वयं को ईश्वर का दिव्य अंश,सृष्टि की सुव्यवस्था का उत्तरदायी,आदर्शों का प्रतिष्ठापक मानने के स्थान पर शरीर और संपदा का अहंकार करने वाली उद्धत और उच्छृंखल आचरण करने वाली असुरी बन जाए तो समझना चाहिए कि उसका देवत्व नष्ट हो गया है । सन्मार्ग पर चल सकने का साहस और कुमार्ग पर किसी भी भय या लोभ के कारण उत्पन्न होने वाले आकर्षण को ठुकरा देना ही देवत्व का स्वरूप है।जो मनुष्य जीवनोद्देश्य की पूर्ति और ईश्वर की आज्ञा का पालन करने में बड़े से बड़ा त्याग-बलिदान प्रस्तुत कर सके वही सच्चे अर्थों में प्राणवान है। “प्राण देवता” की आराधना सन्मार्गगामी शूरवीर बनकर की जाती है।
इंद्रिय देवियों की तरह,गुरुदेव इन पाँचों आत्मदेवताओं को भी उसी तरह साधते रहे। गायत्री माता के पाँच मुख और दस हाथ अलंकारिक दृष्टि से चित्रित किए जाते हैं। कितनी ही मूर्तियाँ तथा तस्वीरें इस प्रकार के चित्रण समेत मिलती हैं। यह पाँच मुख अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, आनन्दमय कोश और विज्ञानमय कोश हैं। दश भुजाएँ उपरोक्त पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच देवियों और पाँच मन से संबंधित पाँच देवता है। इन दोनों को मिलाकर गायत्री महाशक्ति की दश भुजायें बनती हैं।
सामान्य जप, अनुष्ठानों के कर्मकांड पूरे करने के साथ जो कोई भी पंचमुखी,दशभुजी दिव्य गायत्री को अपने प्राण, हृदय,मस्तिष्क और आचरण में घुला लेता है,वह वैसा ही लाभ प्राप्त कर सकता है जैसा कि गुरुदेव ने उपलब्ध किया है।
भगवती देवी शर्मा