11 जून 2025 का ज्ञानप्रसाद-अखंड ज्योति नवंबर 1971
कल से आरम्भ हुई 3-अंकीय लेख श्रृंखला का आज दूसरा अंक प्रस्तुत है। वन्दनीय माता जी नवंबर 1971 की अखंड ज्योति में गुरुदेव के बारे में वोह बातें बता रही हैं जो हम सबने अनेकों बार पढ़ी हैं लेकिन वंदनीय माता जी के मुखारविंद से वर्णन होना साक्षात् First hand information के सिवाय और कुछ नहीं हो सकती।
हमारा अपना व्यक्तिगत विचार है कि किसी ज्ञान को चाहे जितनी भी बार पढ़ा जाए, जब तक उस ज्ञान में समाहित शिक्षा को न समझा जाए तो सब बेकार है। वर्षों पूर्व जब हम सब प्राइमरी कक्षाओं के विद्यार्थी हुआ करते थे, हमारे अध्यापक अनेकों शिक्षाप्रद कहानियां पढ़ाया करते थे जैसे कि Union is strength, इन सब कहानियों की एक विशेषता होती थी कि अंत में एक पंक्ति में कहानी में समाहित ज्ञान को “शिक्षा” ,Moral of the story कह कर अंकित किया होता था। यह “शिक्षा” कहानी का सेंट्रल आईडिया होता था जिसे देखकर एकदम मन के तार झंकृत हो उठते थे जिससे कहानी के बारे में सब कुछ स्मरण हो उठता था।
इसी “शिक्षा” को आज AI के युग में Tagline कह कर सम्मानित किया जा रहा है। तो हम क्यों पीछे रहें ? हम भी अपने ज्ञानप्रसाद लेखों को आकर्षक शीर्षक से, सारांश से, Tagline से संवारते हैं ताकि कोई प्रयास तो सफल हो जिससे हमारे साथी गुरुदेव के दिव्य साहित्य से प्रेरित होकर औरों को प्रेरित करें।
आज के ज्ञानप्रसाद को शीर्षक “गुरुदेव एक दिखते हुए भी पांच थे” एवं Tagline “गुरुदेव एक सजीव प्रयोगशाला -A live laboratory “ से सम्मानित किया गया है। गुरुदेव स्वयं एक प्रयोगशाला थे, एक ऐसी प्रयोगशाला जिसमें उन्होंने हम सबके लिए स्वयं पर प्रयोग किया और प्रमाणित कर दिया कि यदि गायत्री मेरे लिए सिद्ध हो सकती है तो किसी के लिए भी हो सकती है। शर्त केवल एक ही है और वोह इतनी कठिन की अधिकतर लोग उसे सुनकर ही दूर भाग उठते हैं। कितने लोग गुरुवर जैसा जीवन व्यतीत कर सकते है ?
परम वंदनीय माता जी गुरुदेव की निकटतम सहचरी थीं, भला उनसे बढ़कर कौन गुरुदेव की दिनचर्या की चर्चा कर सकता है। शरीर एक लेकिन कार्य पांच के बराबर; आज का ज्ञानप्रसाद लेख इसी ज्ञान का अति सरल Critical analysis प्रस्तुत कर रहा है जिसे कोई भी समझ सकता है। हमारे साथिओं को ज्ञात ही होगा कि जहाँ गुरुदेव एक शरीर के रहते पांच शरीरों जितना कार्य कर जाते थे,वहीँ एक शरीर के रहते एक ही समय में पांच अलग- अलग स्थानों पर भी विद्यमान होते थे। इसी मंच से प्रकाशित गुरुदेव की अफ्रीका यात्रा के दौरान ऐसे संस्मरण प्रस्तुत किये गए थे।
क्षमाप्रार्थी हैं कि आज की भूमिका कुछ लम्बी हो गयी, आइये वंदनीय माता जी के चरणों में समर्पित होकर आज के ज्ञानरस की दिव्य बूंदों से अपना जीवन सफल बनायें, ऐसा दुर्लभ सौभाग्य हर किसी को नहीं मिलता।
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गुरुदेव के निकट संपर्क में आने वाले इस तथ्य को भली-भाँति जानते थे कि वे एक शरीर रहते हुए भी पाँच शरीरों जितना,भिन्न-भिन्न प्रकार के पाँच कार्यों का संपादन एक साथ ही करते रहते थे।
यह सब कैसे हो पाता था, इस रहस्य का पता लगाने वाले एक व्यक्ति को दस घंटे कठोर श्रम का अधिक से अधिक हिसाब लगाने पर यही कहकर चुप होना पड़ा कि इतना काम पाँच शरीरों, पाँच व्यक्तियों द्वारा ही किया जा सकना संभव है। एक व्यक्ति एक शरीर से तो इतना काम कभी भी नहीं कर सकता।
पांच कामों का संक्षिप्त विवरण:
1) जब बाहर रहना पड़े, तब की बात अलग, साधारणतया जब भी वे घर पर रहते थे, छह घण्टा प्रतिदिन उपासना किया करते थे। यह आत्मिक श्रम एक व्यक्ति को पूरी तरह थका देने के लिए पर्याप्त है। शारीरिक श्रम आठ घंटे, मानसिक श्रम सात घंटे और आत्मिक श्रम छह घंटे ही हो सकता है। छह घंटे की उपासना एक व्यक्ति को पूरे दिन थका देने वाली मेहनत के बराबर ही गिनी जानी चाहिये।
2) गुरुदेव के पास देश विदेश से औसतन 500 पत्र आते थे। जिनमें से बहुत से लंबे होते थे और जटिल समस्याओं से भरे रहते थे। इन सबको वे स्वयं खोलते थे। 400 पत्रों के उत्तर कार्यकर्ताओं को नोट कराते हुए लिखाते थे। 100 के लगभग ऐसे होते थे, जो उन्हें स्वयं ही लिखने पड़ते थे। दूसरों को बताकर इतनी जटिल समस्याओं के समाधान लिखाए भी नहीं जा सकते थे। फिर उनमें से कितने ही नितांत गोपनीय भी होते थे। बड़े दफ्तरों में जहाँ पत्र खोलने और उत्तर दिए जाने का ही काम होता है, हिसाब लगाया जाए तो यह काम 10 क्लर्कों का है। अत्यंत मुस्तैदी से करने पर भी कोई एक व्यक्ति 10 घंटे से कम में नहीं निपटा सकता। गुरुदेव की आदत थी कि वे किसी भी पत्र को 24 घंटे से अधिक उत्तर दिए बिना नहीं रोकते थे। देश-विदेश में अगणित लोगों को अति महत्वपूर्ण मार्गदर्शन, प्रकाश एवं समाधान देने के लिए विशाल परिवार का संगठन और उससे संबंध बनाए रखने के लिये यह अति आवश्यक था। देखने वाले और लेखा-जोखा लेने वाले यह जानकर चकित रह जाते थे कि किस प्रकार एकाकी इतना काम वे इस वृद्धावस्था में भी निपटा लेते थे।
3) इतने ग्रंथों का लेखन उनका अद्भुत कार्य है। 20 वर्षों में जो उन्होंने लिखा है, उसका वजन लगभग उनके शरीर के तोल के बराबर है। आर्ष ग्रंथों का आदि से अंत तक अनुवाद, नवनिर्माण के संदर्भ में लिखी गई लगभग 400 पुस्तकें (वर्ष 1971 के अनुसार),100 विज्ञप्तियाँ और भी न जाने कितना क्या-क्या लिखा है।जो लिखा है, वह इतना गंभीर और महत्त्वपूर्ण है कि उसके लिए जो लिखा गया है,उससे सौ गुना अधिक पढ़ने की आवश्यकता पड़ी है। यह पढ़ने-लिखने का काम इतना बड़ा है कि एक व्यक्ति पूरे 24 घंटे सारे जीवन भर यही करता रहे तो भी तुलना नहीं हो सकती। इतना तो मानना ही पड़ेगा कि यह कार्य एक व्यक्ति के पूरे समय और श्रम से कम नहीं है।
4) व्यक्तिगत संपर्क, शिक्षण और सहायता प्राप्त करने, मार्गदर्शन परामर्श के लिए नित्य सैकड़ों व्यक्ति उन्हें निरंतर घेरे रहते थे। प्रातः 8:00 बजे से लेकर शाम 6:00 बजे तक 10 घंटे में से केवल एक घंटा ही मध्याह्न भोजन विश्राम का बचता था, बाकी 9 घंटे उनके आस-पास जमात जुड़ी ही रहती थी। सम्पूर्ण भारत ही नहीं, विदेशों तक से, कष्टपीड़ितों से लेकर नवनिर्माण योजना में संलग्न कर्मठ कार्यकर्ताओं, साहित्यकारों, दार्शनिकों, विद्वानों और साधकों की भारी भीड़ में वे सदा ही घिरे रहते थे। इतना किए बिना इस विश्वव्यापी महाभियान को गति प्रदान कर सकना, संभव भी नहीं था, जिसके लिये वे जन्मे और जिए थे।
5) पाँचवाँ कार्य उनका प्रचारकार्य और जनसंपर्क था। उपलब्ध सूचनाओं से यही प्रमाणित होता है कि प्रायः पूरे वर्ष उन्हें बाहर रहना पड़ता था। अन्यथा इतने सम्मेलनों, आयोजनों, गोष्ठियों,व्यक्तिगत परामर्शों तथा शोधसंपर्क के लिए महत्त्वपूर्ण प्रवासों की बात कैसे बन पाती। विगत 20 वर्षों में से एक भी दिन ऐसा नहीं मिलेगा,जबकि उनके बाहर रहने की सूचना न मिली हो।
वंदनीय माता जी बता रही हैं कि गुरुदेव के यह पाँचों ही कार्य अनवरत रूप से चलते रहे। इनमें से प्रत्येक कार्य का विवरण इतना विस्तृत है कि उसे वर्ष के पूरे 365 दिन लगाए बिना निपटाया ही नहीं जा सकता। किसी भी दृष्टि से हिसाब लगा लिया जाए, किसी भी कसौटी पर परख लिया जाए, पाँचों प्रकार का प्रत्येक कार्य उनके निज के द्वारा ही संपन्न किया हुआ मिलेगा। इस पांच कार्यों में से प्रत्येक कार्य उतना विशाल एवं विस्तृत है, जो पूरे शरीर से समग्र तत्परता के साथ पूरे वर्ष में ही निपटाया जा सकता है। इस बात को यों भी कह सकते हैं कि “गुरुदेव एक दिखते हुए भी पाँच थे।”
गायत्री माता के पाँच मुख और दस भुजाएँ कहे-बताये भर जाते हैं लेकिन उसके अनन्य उपासक (गुरुदेव) ने प्रत्यक्ष करके दिखा दिया कि एक शरीर से पाँच गुनी क्रियाशक्ति कैसे संभव हो सकती है। इसके अतिरिक्त अभी उन रहस्यों पर पर्दा ही पड़ा रहना चाहिए,जो इतने अद्भुत हैं कि उन पर सहसा विश्वास करना किसी के लिए भी कठिन होगा क्योंकि जब विश्वास नहीं होता तो संशय के सिवाय और कुछ किया भी नहीं जाता, लेकिन हैं वे अक्षरशः सत्य। समय आने पर उन रहस्यों से आवरण, सप्रमाण सर्वसाधारण के समक्ष उठ कर ही रहेगा।
यह चर्चा इसलिए करनी पड़ी कि गुरुदेव, मात्र व्यक्ति न थे, “एक सजीव प्रयोगशाला ( Live laboratory)” के रूप में अध्यात्म विद्या की समर्थता और सार्थकता प्रमाणित करने आए थे और उनके प्रयोगों से सर्वसाधारण को परिचित होना ही चाहिए। निंदा,स्तुति से वे बहुत ऊँचे उठे हुए थे। निंदा और स्तुति दोनों को उन्होंने समान समझा और लोग क्या कहते हैं,इस पर उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया। वे अपने अन्तःकरण के अतिरिक्त और किसी को अपनी गतिविधियों की समीक्षा कर सकने लायक मानते ही न थे। ऐसे वीत (मोहमाया से मुक्त) राग की कोई क्यों प्रशंसा/स्तुति करे तो उससे क्या प्रयोजन सोचे ? फिर जबकि वे आँख से ओझल हैं तो उन पर इसका क्या प्रभाव पड़ने वाला है।
यह चर्चा तथ्यों पर प्रकाश डालने की दृष्टि से की गई और यह प्रकट करने का प्रयत्न किया गया है कि “व्यक्ति सचमुच में ही ईश्वर का राजकुमार, युवराज है।” सचमुच ही पिंड में ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियाँ बीज रूप में विद्यमान हैं और साधनात्मक प्रयत्नों द्वारा उन्हें उठाया जा सकता है। पाने लायक जो कुछ इस संसार में है, उसे आत्मदेव को जगाकर सहज ही पाया जा सकता है।
गुरुदेव कहते थे पाँच ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति को समझना और उनका सदुपयोग कर सकना ऐसा प्रयोग है, जिसके द्वारा अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, आनन्दमय कोश, विज्ञानमय कोशों को जगाया जा सकता है और उनके सहारे समर्थ सिद्ध पुरुष जैसा लाभ उठाया जा सकता है। वे यह भी कहते थे कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और प्राण की पंचधा सूक्ष्म काया स्थूल शरीर से भी असंख्य गुनी सामर्थ्यवान है।
दूसरे अंक का समापन,जय गुरुदेव