10 जून 2025 का ज्ञानप्रसाद -अखंड ज्योति नवंबर 1971
आज से आरम्भ हो रही 3-अंकीय लेख श्रृंखला में वन्दनीय माता जी नवंबर 1971 की अखंड ज्योति में गुरुदेव के बारे में वोह बातें बता रही हैं जो हम सबने अनेकों बार पढ़ी हैं लेकिन वंदनीय माता जी के मुखारविंद से वर्णन होना साक्षात् First hand information के सिवाय और कुछ नहीं हो सकती।
इस 3-अंकीय श्रृंखला के प्रथम अंक में हमें इस तथ्य को जानने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है कि आज के तथाकथित अध्यात्म की निरर्थकता ने जनमानस में अश्रद्धा और अविश्वास का वातावरण प्रस्तुत कर दिया है। इसी अश्रद्धा एवं अविश्वास को श्रद्धा और विश्वास में परिवर्तित करने के लिए गुरुदेव के जीवन दर्शन का सहारा लिया गया है जिसे एक प्रतक्ष्य शास्त्र का नाम दिया गया है।
कल प्रस्तुत होने वाले दूसरे अंक में हमें वन्दनीय माता जी से यह जानने का सौभाग्य प्राप्त होगा कि “एक स्थूल शरीर होते हुए पांच शरीरों जितना कार्य कैसे सम्पन्न किया।’
तीसरा अंक, पंचमुखी, दशभुजी दिव्य गायत्री को अपने अंतःकरण में कैसे उतारा जा सकता है, इसका सरल एवं संक्षिप्त सा विवरण होगा।
गुरुदेव के जीवन दर्शन की चर्चा,उनकी स्तुति प्रशस्ति के लिए नहीं बल्कि इसलिए करनी पड़ रही है कि आधुनिक परिस्थितियों में उनका जीवन दर्शन आत्म-विकास का सर्वश्रेष्ठ प्रमाणित और प्रत्यक्ष शास्त्र कहा जा सकता है। “आज के तथाकथित अध्यात्म की निरर्थकता ने जनमानस में जो अश्रद्धा और अविश्वास का वातावरण प्रस्तुत कर दिया है”, उसका निराकरण किया जा सके, गुरुदेव को इस धरती पर भेजने का केवल यही कारण था।
भ्रम से भरे हुए इस संसार में हर किसी को इंस्टेंट चाहिए। परिश्रम बिल्कुल न करना पड़े लेकिन जादू की छड़ी प्राप्त सब कुछ करा जाए।
गुरुदेव के जीवन का ठीक से अध्ययन करने से पता चलता है कि ऐसा संभव नहीं है।
आत्मशोधन की तपश्चर्या से अपना उद्धार स्वयं करने के राजमार्ग को छोड़कर जो लोग स्वल्पकाल में एवं स्वल्पश्रम से अपरिमित लाभ पाने के लिये अधीर हो रहे हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि ऐसा कभी भी संभव न हो पाएगा। ऐसे लोग इंस्टेंट प्राप्ति की खोज में तरह-तरह के जादू भरे तंत्र-मंत्र ढूंढ़ते रहते हैं ।वोह यह धारणा बनाए बैठे हैं कि इन तंत्र-मंत्रों के आधार पर मनचाहे लाभ प्राप्त कर सकते हैं ।उन्हें यह नोट कर लेना चाहिए कि बहुमूल्य वस्तुएँ उचित मूल्य चुकाने पर ही मिलती हैं। असली हीरे की अँगूठी दस पैसे की नहीं मिलती, यदि मिलती हो तो समझ लेना चाहिए कि नकली है और बेचे जाने पर एक पाई भी वसूल न होगी। जादू की तरह तुर्त-फुर्त चमत्कार दिखाने वाले तथाकथित धर्मगुरुओं के चेलों को गुरुदेव स्पष्ट बताना चाहते हैं कि सिद्धियों और विभूतियों का,गरिमा और महिमा का, राजमार्ग, आत्मशोधन और आत्मनिर्माण की चाल चले बिना पूरा नहीं हो सकता। कोई भी सीधी पगडंडी ऐसी नहीं है, कोई भी ऐसा शॉर्टकट है ही नहीं जो देवता,मंत्र, गुरु या संप्रदाय का पल्ला पकड़ने से सहज ही परम लक्ष्य तक पहुँचा दे। अध्यात्म एक क्रमबद्ध Step by step, Sequence-wiseविज्ञान है, जिसका सहारा लेकर कोई भी व्यक्ति उसी तरह लाभान्वित हो सकता है जिस तरह बिजली,भाप, आग आदि की शक्तियों का विधिवत् प्रयोग, करके अभीष्ट प्रयोजन पूरा किया जाता है।
जो लोग इस भ्रम में हैं कि किसी समर्थ मार्गदर्शक, देवता या मंत्र की कृपा से अद्भुत शक्तियाँ मिलती हैं यां साधना से चमत्कारी आत्मिक प्रगति का अवसर मिल जाता है तो उन्हें इन पंक्तियों को बहुत ही ध्यान से, इन पंक्तियों का एक-एक शब्द अपने अंतःकरण में उतारना चाहिए। हम तो कहेंगे कि न केवल अंतःकरण में उतारना चाहिए बल्कि उसमें समाहित ज्ञान का प्रयोग भी करना चाहिए
“यही है साधना की सफलता का पहला कदम।अगले कदम स्वतः ही उठते जाएंगे।”
यदि गुरु की शक्ति से होने वाले चमत्कार का तथ्य सच हो,तो भी उसके मूल में साधक की “पात्रता वाली शर्त” अनिवार्य रूप से जुड़ी रहती है।
गुरुदेव ने उसी गायत्री मंत्र की उपासना की, जिसे संध्यावंदन के समय आमतौर से सभी धर्मप्रेमी हिंदू लगभग रोज़ ही जपते हैं। परम पूज्य गुरुदेव का इष्ट भी वही सविता देवता था जिसकी उपासना करने वाले सामान्य मनुष्य नित्य ही जल चढ़ाते हैं,प्रणाम करते हैं।
यह सच है कि दादागुरु परम पूज्य गुरुदेव को मिले लेकिन यह भी सच है कि यह पृथ्वी ऐसे सिद्ध पुरुषों से रहित नहीं है। यह भी निश्चित है कि उनका द्वार सभी के लिए खुला पड़ा है। बादल सर्वत्र बरसते रहते हैं, तालाब लाखों मन पानी जमा कर लेते हैं लेकिन पत्थर की चट्टान पर एक बूँद भी नहीं ठहरती। सूर्य सबके लिये गर्मी और रोशनी लेकर उदय होता है लेकिन जिसने अपनी खिड़कियां,दरवाजे बंद कर रखें हैं,उसे सूर्य देवता भी कोई लाभ नहीं पहुँचा पाते। मंत्र और देवताओं में कोई शक्ति न हो, साधना-उपासना का कोई परिणाम न निकलता हो, सो बात नहीं है। प्रश्न “पात्रता” का है। अधिकारी के पास उपयुक्त साधन स्वयं ही खिंचते चले आते हैं। फूल के पास कितनी ही मधुमक्खीयां और भौंरे बिना बुलाए ही मंडराने लगते हैं। चुम्बक अपने समीपवर्ती लोह-कणों को सहज ही खींच लेता है।
साधक की “पात्रता” में ही चमत्कार भरा रहता है जिसके आधार पर मंत्रदेवता और सहायक को सहज ही द्रवित होकर अभीष्ट सामर्थ्य प्रदान करने का वरदान देना पड़ता है।
गुरुदेव गायत्री महामंत्र के माध्यम से ऋतंभरा प्रज्ञा और ब्रह्मवर्चस्व की साधना करते थे। इन तत्वों को वे आत्मदेवता में ही समाविष्ट मानते थे। कहते थे “सबसे निकट तपोवन अपना अन्तःकरण ही है”, यहीं एक ब्रह्मचेतना में तादात्म्य स्थापित करने का जो प्रयत्न किया जाता है वही सच्ची साधना है। विश्वव्यापी देवसत्ता का प्रतिनिधित्व अपनी अन्तःचेतना करती है सो उसे ही मना लिया जाए, उठा लिया जाए, तो फिर इस संसार की कोई ऐसी वस्तु शेष नहीं रह जाती जो प्राप्त न की जा सके। ईश्वर के राजकुमार, मनुष्य के लिए अपने पिता की हर संपदा का अधिकार सहज ही प्राप्त रहता है। पात्रता के उपयोग के प्रयोजन की उत्कृष्टता सिद्ध करके कोई भी विभूतियों के भंडार में से कुछ भी प्राप्त कर सकता है। ऐसा गुरुदेव का विश्वास था, वह ऐसा ही कहते मानते रहते थे।
वंदनीय माता जी बता रही हैं कि गुरुदेव की साधना-पद्धति को जितना मैंने देखा-समझा है इतना अवसर शायद ही और किसी को मिला हो।
गुरुदेव 24 वर्ष तक हर वर्ष 24 लक्ष का गायत्री महापुरश्चरण करते रहे। सर्वसाधारण को इस संदर्भ में केवल इतनी ही जानकारी है कि वह प्रतिदिन छः घंटा बैठकर 11 माला प्रति घंटा के हिसाब से 66 माला का गायत्री जप करते थे। परम सात्विक पाँच मुट्ठी आहार पर निर्भर रहते तथा अनुष्ठानकाल में प्रयुक्त होने वाले बंधन प्रतिबंधों का कठोरता से पालन करते थे। वस्तुतः यह तो उनकी स्थूल और प्रत्यक्ष साधना थी। आम लोगों ने यही देखा, मोटे तौर से जितना देखा जाता है, उतना ही तो समझा जा सकता है। बाहरी-उपासना में इतना ही दिखता था, सो समझने वाले उतना ही समझ सकते थे लेकिन सही मायनों में उनकी साधना इन क्रियाकलापों तक ही सीमित नहीं थी बल्कि
काया के कर्मकाण्डात्मक क्रियाकलापों से बहुत आगे बढ़कर “मन और प्राण की
सूक्ष्म और कारण शरीर की परिधि प्रवेश कर गई थी।”
गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, आनन्दमय कोश, विज्ञानमय कोश जागरण, अनावरण की विधि-व्यवस्था है। इस पांच कोशों की साधना को पंचकोशी साधना कहते हैं।
इस आसान के कर्मकांड और विधि-विधान तो समयानुसार गुरुदेव स्वयं ही बता देंगे लेकिन उनकी अतिनिकिटवर्ती सहचरी होने के कारण मैं इतना ही कह सकती हूँ कि अपनी पाँचों इन्द्रियों और पांचों मनः संस्थानों का परिष्कार करने में उन्होंने अथक परिश्रम किया था और निरन्तर यह प्रयत्न किया था कि इन दसों देवताओं को विनाश के मार्ग पर एक इंच भी न गिरने दिया जाए बल्कि उन्हें पवित्रता और प्रखरता के पथ पर ही अग्रसर रखा जाए। इस प्रकार अन्तरंग की देव शक्तियों को परिमार्जित कर उन्होंने देवता, मंत्र और गुरु का अनुग्रह प्राप्त किया और उन पाँच शक्तिकोशों को जागृत करने में सफल हो गए, जिन्हें अनेक अद्भुत ऋद्धि सिद्धियों का केन्द्र माना जाता है।
आत्मशोधन, आत्मनिर्माण, इंद्रियनिग्रह और मनोजय के साथ जुड़ी हुई अपनी उच्चस्तरीय गायत्री साधना के माध्यम से आत्मदेव को सजग बनाकर गुरुदेव ने क्या पाया, इसकी अविज्ञात उपलब्धियाँ इतनी अधिक और इतनी अद्भुत हैं कि उन पर सहसा किसी को विश्वास नहीं हो सकता। इसलिए जिन्हें आज प्रमाणित न किया जा सका, उन पर अभी पर्दा पड़ा रहना ही उचित है। समय आने पर वे आज के अविज्ञात तथ्य कल विज्ञात और प्रमाणित तथ्य होंगे तब यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाएगी कि इस संसार का, इस मानव का सर्वोपरि पुरुषार्थ एवं साफल्य आत्मसाधना के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। अभी तो उन सर्वविदित विशेषताओं को दोहरा देना ही पर्याप्त होगा जो सिद्धियों की दृष्टि से आकर्षक ही नहीं अद्भुत भी हैं।
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प्रथम अंक का समापन करने के साथ ही बताना चाहेंगें कि ड्राइव लिंक केवल एक दिन के लिए ही उपलब्ध होते हैं, उसके बाद उन्हें डिलीट कर दिया जाता है। अगर आपको कोई वीडियो आदि अच्छी लगती है तो उसे डाउनलोड करना ही उचित होगा। पीडीऍफ़ copies तो इंटरनेट आर्काइव पर उपलब्ध कराई हुई हैं।
जय गुरुदेव, धन्यवाद्