5 जून 2025 का ज्ञानप्रसाद
अगस्त 1971 की अखंड ज्योति में एक लेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था “गुरुदेव का अवतरण और कार्यक्षेत्र।” इस लेख का समापन परम वंदनीय माता जी के हस्ताक्षर से हुआ था जो प्रमाणित करता है कि यह लेख माता जी के कर-कमलों से सुशोभित हुआ था। वंदनीय माता जी द्वारा रचित इस लेख में परम पूज्य गुरुदेव के बारे में दी गई जानकारी ने हमें इतना आकर्षित किया कि गुरुसत्ता ने ज्ञानप्रसाद के लिए हमसे तीन लेख लिखवा डाले। तीन लेखों की इस श्रृंखला का आज समापन हो रहा है।
कैसा संयोग एवं सौभाग्य है कि गुरुदेव को और अधिक जानने का दिव्य अवसर उनके महाप्रयाण के दिनों में मिला है। यही है हमारे गुरुदेव की अनुपम शक्ति एवं कृति,जिससे जो कुछ करवाना होता है अपने समयानुसार करवा ही लेते हैं। बारम्बार नमन करते हैं ऐसे गुरु को। गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्म दिवस,गायत्री जयंती,गुरुपूर्णिमा जैसे अनेकों अवसरों से संबंधित लेख/विडियोज आदि हमारे चैनल को शोभायमान कर रहे हैं,कल प्रकाशित होने वाली वीडियो गुरुवर के महाप्रयाण को ही समर्पित करने की योजना है।
ज्ञानप्रसाद लेखों की कार्यशैली के अनुसार प्रत्येक लेख के शुभारम्भ से पहले लेख में समाहित ज्ञान का सार बताया गया होता है जिससे पाठकों में लेख के प्रति रूचि एवं जिज्ञासा उजागर होती है लेकिन आज के लेख का एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति ज्ञान से भरपूर है, सार बताना असंभव सा प्रतीत हो रहा है। साथिओं से निवेदन है कि लेख का ध्यानपूर्वक अध्ययन करके अपने सहपाठिओं का भी मार्गदर्शन करने में हाथ बटाएं।
इन्हीं विचारों से,विश्वशांति की कामना के साथ,आज के लेख का शुभारम्भ करते हैं।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो!
********************
सौभाग्य से मुझे उनके अति समीपवर्ती साथी के रूप में रहने का अवसर लम्बे समय तक मिला है। यों सारा संसार उनका घर था और सभी प्राणी उनके आत्मीय थे। चूँकि वे सबके थे इसलिये कोई एक उन पर अपना अधिकार जमाने की धृष्टता नहीं कर सकता। सूरज पर, समुद्र पर, पवन पर, आकाश पर कोई अपना अधिकार नहीं जताता लेकिन लाभ सभी उठाते हैं। मैं उनकी धर्मपत्नी हूँ, इसलिये कुछ अधिकार तो नहीं जताती लेकिन अपने इस सौभाग्य को, पुण्य प्रारब्ध को भरपूर सराहती हूँ कि मुझे दूसरोँ की अपेक्षा उनके साथ अधिक समय और अधिक निकट रहने का अवसर मिला। वे चले गये इसका दुःख कितना है और उसे अपने दुर्बल नारी हृदय में कितनी कठिनाई से छिपाने का असफल प्रयत्न कर रही हूँ इसकी यहाँ चर्चा न करना ही उचित होगा। उनके लिये मेरी ही तरह न जाने कितनों की आँखें बरसी हैं और कितनों के कलेजे फटे हैं। उनके चले जाने से कितनों ने अपने को अनाथ असहाय समझा है उन्हीं में से एक मैं भी हूँ । अधिक समीप रहने का अधिक सौभाग्य मिलने के कारण बिछुड़न की अन्तर्व्यथा मुझे औरों की तुलना में कुछ अधिक सहनी पड़ रही है। उस कसक को छिपाना इसलिये कठिन पड़ रहा है कि अपनी 50 लाख धर्म सन्तानों की देखभाल करने और स्नेह से सींचते रहने की जिम्मेदारी मेरे दुर्बल कन्धों पर छोड़ कर गये हैं । इन दिनों जब उनकी याद आती है तो पेट बुरी तरह इठता है और लगता है कि इतनी तड़पन सह सकना इस शरीर में रहते संभव न होगा। फिर भी उस महामानव के आरोपित उद्यान के 50 लाख पेड़ पौधों की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है, विशेषकर उनके लिए जिनमें अभी समर्थता नहीं आई हैं उन्हें स्नेह सिंचित रखने के लिए अभी जीना भी पड़ेगा और कुछ करते भी रहना पड़ेगा। इसलिये शरीर और मन को संभाले रखना है।
आत्म-नियन्त्रण की यह परीक्षा मुझे सीता की अग्नि-परीक्षा जैसी भारी पड़ रही है।
शरीर को आग में झोंकना उतना कठिन नहीं जितना हर घड़ी अन्तर की जलन में गलना।
समीपता का जितना अमृत पिया उसका बदला इस बिछुड़न के विष के रूप में पीना पड़ रहा है। अति के इन दोनों किनारों का तालमेल बिठा सकना और संतुलन कायम रख सकना इन दिनों बहुत भारी पड़ रहा है, फिर भी इतना धैर्य ओर विवेक तो मिल ही रहा है जिसके आधार पर कन्धों पर लदे हुये उत्तरदायित्वों का वहन करने के लिये गिर पड़ने की स्थिति से स्वयं को बचाये रख सकूँ।
यों तो मैं गुरुदेव की धर्मपत्नी समझी जाती हूँ लेकिन वस्तुतः उनकी एक सौभाग्यशालिनी शिष्या ही हूँ । मैने उन्हें पति के रूप में नहीं, देवता के रूप में ही देखा है,सच में वोह इसी योग्य थे। उन्हें इसके अतिरिक्त और कुछ समझा भी नहीं जा सकता। कोई अपनी गन्दी आँखों से उन पर भी गन्दगी थोपे, यह दूसरी बात है लेकिन जब भी कोई निष्पक्ष समीक्षक की दृष्टि से उनका अन्वेषण विश्लेषण (Research and analysis) करेगा तब उन्हें मनुष्य शरीर में विचरण करने वाला एक देवता ही मिलेगा। मनुष्य में देवत्व का उदय करना, यही तो अध्यात्म है ।
इस फिलोसॉफी का सही और प्रैक्टिकल स्वरूप क्या हो सकता है,गुरुदेव इसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए ही सर्वसाधारण के सम्मुख आए और जिए । इसी के लिये उनकी हर साँस,हर विचारणा,हर क्रिया और हर उपलब्धि नियोजित रही। उन्हें समझना आत्म-दर्शन को समझने के बराबर ही है। उनका जीवन एक खुली पुस्तक है जिसे यदि “युगगीता” का नाम दिया जाय तो उचित ही होगा। तमस से भरे आज के वातावरण को हटाने और घटाने के लिये क्या किया जाना चाहिए, उसका उद्घोष उद्बोधन करना ही उनके क्रिया कलाप का एक महत्वपूर्ण पक्ष था। उनकी अनुपस्थिति में, मैने “अपनों में अपनी बात” शीर्षक के अंतर्गत,उन्हीं पृष्ठों के आवरण के साथ, चलाते रहने का निश्चय किया है।
इस अंक में उनके उस प्रत्यक्ष स्वरूप की थोड़ी सी चर्चा की गई है जिससे सर्वसाधारण को मोटे तौर पर गुरुदेव का परिचय मिला है। उन्हें एक सहृदय, सज्जन और तप साधना संलग्न ब्रह्मवेत्ता समझा जाता रहा और लोग यह समझते रहे कि उनकी तप साधना का लाभ कोई भी बिना हिचक उठा सकता है, सो उठाया भी गया। अभावों, संकटों, उलझनों, अवरोधों से निबटने में सहायता प्राप्त करने के लिये उनके पास अनेकों लोग आये, न कोई खाली हाथ गया, न निराश। जटिल एवं पूर्व जन्मों के प्रारब्धों को पूर्णतया समाप्त कर देना तो एकमात्र ईश्वर के हाथ में ही हो सकता है। मनुष्य तो अपनी सामर्थ्य भर से दूसरों की सहायता ही कर सकता है। सो गुरुदेव ने इस संदर्भ में सदा असीम सहृदयता और उदारता का ही परिचय दिया। हर किसी ने पूरा/ अधूरा कुछ न कुछ सहयोग अवश्य पाया। जिनकी आवश्यकता पहाड़ जितनी थी लेकिन टीले जैसी सहायता मिलने से सन्तुष्ट हुए।
चर्चा न करने का प्रतिबन्ध था लेकिन मन की बात सदा छिपाए रखना भी मानसिक दुर्बलता होती है । सभी लोगों के लिए तो संभव नहीं लेकिन जितनों ने भी उपलब्ध अनुदानों की चर्चा की, एक से दूसरे के कानों तक पहुँचती रही और इस आकर्षण में सुनने वालों से अधिक व्यक्ति उनके पास आते रहे जिनकी संख्या का लेखा-जोखा रखा जाय तो उसे अनुपम एवं अद्भुत ही कहा जा सकता है। 50 लाख तो उनके दीक्षित शिष्य ही हैं। संपर्क साधने वालों और लाभान्वित होने वालों की संख्या करोड़ों में गिनी जा सकती है। मोटे तौर पर गुरुदेव को उदार,अनुदानी और सन्त-तपस्वी के रूप में समझा जाता रहा है।
कई बार मैने कुपात्रों की सहायता न करने के लिए कहा तो उन्होंने इतना ही कहा: “बार-बार काटने वाले बिच्छू को भी पानी में बहने/डूबने से बचाना सन्त का धर्म है।” अनुचित लाभ उठाने के इच्छुक अपनी आदत से पीछे नहीं हटते तो हमीं क्यों अपनी सहायता को सीमाबद्ध करें। तर्क की दृष्टि से उनसे बहस की जा सकती थी लेकिन जिसके मन में करुणा, ममता और आत्मीयता के अतिरिक्त और कुछ हो ही न, जो सबमें अपनी ही आत्मा समायी देखता हो ऐसे अवधूत की भाव गरिमा को चुनौती देने में न तर्क समर्थ हो सकता था न गुण-अवगुण का विश्लेषण। वस्तुतः वे इन परिधियों से बहुत आगे निकल चुके थे। सो किसी ने पात्र-कुपात्र की चर्चा की भी और समझाने रोकने का प्रयत्न किया भी तो कुछ परिणाम न निकला।
गुरुदेव की महानता में जितनी तपश्चर्या सहायक हुई उससे हज़ार गुनी प्रभावी थी उनकी आन्तरिक निर्मलता और निर्बाध उदारता। जीवन साधना के इन दो पक्षों के आधार पर ही वे गरुड़ की तरह ऊँचे आकाश में उड़ पाने में सफल हो सके।
गुरुदेव के व्यक्तित्व एवं दिनचर्या का विश्लेषण करने वाले देखते हैं कि उनकी अधिकतम उपासना 6 घण्टे नित्य थी। संसार में अनेकों कर्मकाण्डी एवं जप-तप करने वाले मौजूद हैं जिनकी साधना गुरुदेव से भी कठिन होगी लेकिन उनकी उपलब्धियाँ नगण्य ही हैं। अब प्रश्न उठता है कि गुरुदेव के लिये इतनी उच्स्तरीय उपलब्धियों का उपार्जन कैसे सम्भव हुआ? उनकी अति निकटवर्ती एवं अनुगामिनी होने के नाते इतना ही कह सकती हूँ कि उन्होंने निर्मलता और उदारता की प्रवृत्तियों को विकसित करने की ओर अत्यधिक ध्यान दिया और पुरुषार्थ किया। अपने व्यक्तित्व को उपजाऊ क्षेत्र की तरह विकसित करने में यदि इतनी सतर्कता न बरती होती तो सम्भवतः उनके 24 वर्षों के 24 गायत्री महापुरश्चरण तथा सामान्य समय के जप-तप उतने प्रभावी न होते जितने कि देखे और पाये गये।
गुरुदेव हिमालय चले गये। दूर जाने पर उनका अन्वेषण-विश्लेषण (Research and analysis) हम सबके लिये अधिक सम्भव हो सकेगा। उन्हें गहराई तक समझने का जितना प्रयत्न किया जायगा उतना ही अधिक हम अध्यात्म का वास्तविक स्वरूप समझ सकने और उसके महान् परिणामों को उपलब्ध कर सकने का पथ प्रशस्त कर सकेंगे।
भवगती देवी शर्मा
******************
कल वाले लेख को व्हाट्सप्प पर पोस्ट करते समय हमसे जो गलती हुई उसके लिए करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं, आद सुमनलता बहिन जी एवं सुजाता उपाध्याय बहिन जी ने तो नोटिस भी कर लिया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। शनिवार के स्पेशल सेगमेंट में इस विषय पर विस्तृत चर्चा करेंगें ताकि भविष्य में अगर ऐसी गलती होती है तो कैसे निवारण करना होगा।
जय गुरुदेव