वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

वंदनीय माता जी द्वारा गुरुदेव की शक्ति का वर्णन-पार्ट 2, अखंड ज्योति अगस्त 1971 

परम पूज्य गुरुदेव का निर्देश माने यां दिव्य संयोग कि 2025 की गायत्री जयंती,गंगा दशहरा एवं गुरुदेव के महाप्रयाण के लिए वंदनीय माता जी से अद्भुत जानकारी मिल रही है। कई पूर्व सयोगों  की भांति इस बार भी 1971-72 की अखंड ज्योति के वही अंक हमारे हाथों में थमा दिए गए जो इन महान पर्वों के लिए बिल्कुल फिट बैठते थे। वंदनीय माता जी के द्वारा गुरुदेव के बारे में जानकारी प्रदान करना  कोई छोटी बात नहीं हैं, हम सब बहुत ही सौभाग्यशाली हैं कि इस दिव्य ज्ञान का अमृतपान कर रहे हैं। 

गायत्री जयंती, गंगा दशहरा, गुरुदेव के महाप्रयाण को समर्पित तीन दिवसीय कार्यक्रम की जानकारी युगतीर्थ शांतिकुंज के प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है,यहाँ पर रिपीट करने का कोई औचित्य नहीं है। 

आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ,कल वाले लेख के मध्यांतर से ही किया जा रहा है। गुरुदेव के बारे में वंदनीय माता जी द्वारा दिया गया विवरण शत प्रतिशत वैसा ही है जैसा अनेकों जीवनदानिओं से सुना गया है। अपनी अलौकिकअनुभूतिओं एवं सेवा सहायता के बारे में गुरुदेव ने कठोर प्रतिबंध लगाए थे लेकिन माता जी कह रही हैं कि गुरुदेव तो हिमालय चले गए हैं, अब उन्हें कोई भी फर्क पड़ने  वाला नहीं है। साथ ही  साथ वंदनीय माता जी, गुरुदेव के बारे में  बताकर अनेकों को अध्यात्म के बारे में ज्ञान प्रदान कर रही हैं, बता रही हैं कि  आध्यात्मिक जीवन कितना उपयोगी और समर्थ सिद्ध हो सकता है।

इन्हीं पंक्तियों से आज के दिव्य ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ हो रहा है। 

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अपनी उपासना तपश्चर्या का जो पुण्य फल हो सकता था उसका एक कण भी गुरुदेव ने  अपने लिये किसी भौतिक एवं आत्मिक प्रतिफल के लिये बचाकर नहीं रखा। गुरुदेव ने अपनी तप शक्ति से जितना भी पुण्य कमाया,उसका राई रत्ती अंश भी उन्हें ही मिलता गया जो गुरुदेव के सानिध्य में बड़ी आशा लेकर आये थे। 

कभी सम्भव हुआ तो उनके द्वारा की हुई सहायता के कारण लाभान्वित हुए व्यक्तियों की कहानी उन्हीं की जुबानी प्रकाश में लाई जायेगी। इससे विदित होगा कि कितनों के “अन्धकारमय वर्तमान” को गुरुदेव ने “प्रकाशपूर्ण भविष्य” में बदल दिया और कितने उनका सहयोग पाकर धन्य हो गये। गुरुदेव ने अपनी इस उदारता और समर्थता को सर्वसाधारण के सामने प्रकट न होने देने में सदा कठोरता बरती। वे नहीं चाहते थे कि कोई भी उनकी प्रशंसा करे, अहसान माने,उन्हें चमत्कारी, उदार, दानी, तपस्वी एवं सेवाभावी माने। वे इतने में ही संतुष्ट और प्रसन्न थे कि उन्हें सामान्य, सरल और सज्जन भर माना जाता रहे। सो उन्होंने कठोर प्रतिबन्ध लगाये थे कि कोई उनकी अलौकिक अनुभूतियों एवं सेवा सहायताओं की चर्चा न करें। गुरुदेव ने बार-बार कहा है कि यदि उन घटनाओं का वर्णन करना ही है तो उन्हें भगवान् की कृपा भर कहें ,उनके व्यक्तित्व को कोई श्रेय न दे। सो उस प्रतिबन्ध के कारण असंख्यों प्रसंग आज भी अविज्ञात ही बने हुए हैं जिनको सुनने/जानने पर कोई भी व्यक्ति आश्चर्यचकित रह सकता है।

हमारे पाठक “अद्भुत, आश्चर्यजनक किंतु सत्य” सीरीज के अंतर्गत प्रकाशित हुई अनेकों अनुभूतियों से भलीभांति परिचित हैं।

वंदनीय माता जी बताती हैं कि अब जबकि गुरुदेव हिमालय चले गये है तो उनकी प्रशंसा के लिये नहीं बल्कि इसलिये इन प्रसंगों की चर्चा आवश्यक अनुभव होती है कि सर्वसाधारण को यह विदित हो सके कि “आध्यात्मिक जीवन कितना समर्थ और उपयोगी सिद्ध हो सकता है।” आध्यात्मिक जीवन का सहारा लेकर कोई व्यक्ति अपना एवं दूसरों का कितना भला कर सकता है। सर्वसाधारण में उन प्रसंगों के प्रकाश में आने से एक बड़ा लाभ यह होगा कि “आत्म-साधना” का प्रतिफल समझा जा सकेगा और उस मार्ग को अपनाने के लिये उनमें  उत्साह उत्पन्न किया जा सकेगा। 

माता जी बताती हैं कि गुरुदेव की उपासना पद्धति में जितना स्थान जप-तप का था उससे हजार गुना महत्व वे जीवन-साधना को देते थे। गुरुदेव अपनी आत्मिक उपलब्धियों का श्रेय आन्तरिक काषाय कल्मषों के उन्मूलन और बाहरी जीवन की आदर्शवादिता को देते थे। जब भी उन्होंने कहा,यही कहा:

“ऐसा अध्यात्म यदि सर्वसाधारण की रुचि का विषय बन जाय और लोग उसे अपनाने में  सर्वतोमुखी प्रगति अनुभव करने लगें तो निस्सन्देह उत्कृष्टता की जीवन-साधना अपनाने का आकर्षण असंख्यों लोगों को होगा और फलस्वरूप चारों ओर महान् व्यक्तित्वों के उपवन लहलहाने लगें। 

माता जी कहती हैं कि उस दृष्टि से अब जब कि गुरुदेव चले गये हैं तो यह अनुभव करा ही दूँ कि उनके सहयोगी जिन्होंने  अपनी जीवन यात्रा में प्रकाश पाया, भौतिक एवं आन्तरिक कठिनाइयों से छूटे तथा प्रगति पथ पर चल सकने योग्य अनुदान उपलब्ध किए, उनके अनुभवों का एक संकलन प्रकाशित करने की व्यवस्था जुटाने में हर्ज नहीं है। गुरुदेव होते तो वे अप्रसन्न होते और रोकते जैसा कि वे अब तक इस विचार को सदा निरुत्साहित करते रहे लेकिन अब उनकी प्रशंसा निन्दा का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है । गुरुदेव इस परिधि से बहुत आगे निकल गये  हैं, कोई हर्ज नहीं दिखता कि वे प्रसंग इस उद्देश्य से प्रकाशित कर दिये जाएं कि आत्म-साधना की समर्थता और सार्थकता क्या है l उसे प्राप्त करने के लिये साधक को किस प्रकार की गतिविधियाँ अपनानी होती हैं। 

इस प्रकाशन से यदि गुरुदेव के चरण चिन्हों पर चलते हुए महामानव बनने की प्रेरणा कुछ एक  व्यक्तियों को भी मिल सके तो यह उपलब्धि निस्सन्देह एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना होगी। 

इन दिनों इस संदर्भ में जितना अधिक विचार किया है उतना ही यह लगा है कि उसमें अनुचित कुछ भी नहीं, उचित ही उचित है कि गुरुदेव के संपर्क में आने वालों की उत्साहवर्धक अनुभूतियों, भौतिक एवं आत्मिक उपलब्धियों को इक्कठा करने एवं प्रकाशित करने के लिये कदम बढ़ाया जाय। अस्तु यह कार्य हाथ में लिया ही जा रहा है। इस प्रकार के प्रसंग, चित्रों सहित मेरे पास हरिद्वार के पते पर भेजे जा सकते हैं। यथा समय उनके सम्पादन एवं प्रकाशन की व्यवस्था की जायेगी।

गुरुदेव का जीवन आध्यात्मिकता और मानवता का एक समग्र एवं व्यावहारिक दर्शन है। इस दर्शन को गुरुदेव की बढ़ाई के लिये नहीं बल्कि मानव तत्व की महानतम उपलब्धि “दिव्यता” को लोक रुचि का विषय बनाने के लिये प्रकाश में लाया जाना चाहिए। आज के समय में ऐसे प्रकाशन की उपयोगिता इस दृष्टि से भी अत्यधिक है कि धर्म और अध्यात्म का बिगड़ा स्वरूप ही सर्वत्र फैला पड़ा है। इस  विडम्बना के फलस्वरूप उस मार्ग पर चलने वाले मानव बनावटी और नीच धोखेबाजों   के शिकार होते चले जाते हैं। कोल्हू के बैल की तरह चिरकाल तक चक्कर काटते रहने और कठोर श्रम करने एवं कष्ट सहने पर भी किसी के हाथ कुछ लगता नहीं। असफलता की लज्जा छिपाने के लिये लोग कपोल कल्पित कुछ भी मिलने की चर्चा तो करते रहते हैं लेकिन  वस्तुतः यदि उनका अन्तरंग पढ़ा जाय तो खाली हाथ ही पाये जायेंगे। वास्तविकता छिपी कहाँ रहती है, वह मनुष्य के रोम-रोम से फूटती है और अन्ततः पकड़ में आ ही जाती है। असफल अध्यात्मवादी दूसरों पर बुरा असर छोड़ते हैं। इस दिशा में निराशा और उपेक्षा की छाप छोड़ते हैं, शिक्षित और समझदार लोगों में जब इस प्रसंग की चर्चा होती है तो उपहास और व्यंग ही व्यक्त होता है। अशिक्षित और अविकसित लोगों तक यदि यह आत्मवाद सीमित रहे, केवल अन्ध विश्वास ही यदि मात्र श्रद्धा का आधार रह जाय और परीक्षा की कसौटी पर खरा साबित न हो तो ऐसे दुर्बल आधार को कब तक जीवित रखा जा सकेगा। ठहरती वही चीज है जिसमें वास्तविकता हो और जिसे परीक्षा की हर कसौटी पर खरा सिद्ध किया जा सकता हो। आज सर्वत्र आत्म-विद्या का उपहास उड़ाते देखा जा सकता है, इसका प्रधान कारण यह है कि उसकी उपयोगिता और यथार्थता सिद्ध नहीं की जा सकी। यों तर्क ओर प्रमाण को सदैव मान्यता मिलती रही है लेकिन  यह तो विशेष रूप से “बुद्धिवाद का युग” है इसमें उन्हीं तथ्यों को मान्यता मिल सकती है जिन्हें प्रामाणिक सिद्ध किया जा सके। विज्ञान, शिल्प, शिक्षा, कृषि, व्यवसाय, कला, चिकित्सा आदि तथ्यों का कोई मजाक नहीं उड़ाता क्योंकि उनकी यथार्थता प्रत्यक्ष है। प्राचीनकाल की तरह यदि अध्यात्म भी अपनी प्रामाणिकता और उपयोगिता सिद्ध कर सका होता तो कोई कारण नहीं कि इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य को अपनाने के लिये लोग लालायित न होते और उसे प्राप्त करने के लिये समुचित पुरुषार्थ न करते।

आज आत्म-विद्या एक प्रकार से अप्रमाणिक, उपेक्षित और उपहासास्पद बनी हुई है और इस अवसाद के कारण व्यक्ति तथा समाज को महती क्षति उठानी पड़ रही है। 

ऐसी परिस्थिति में यह और भी अधिक आवश्यक हो जाता है कि आत्म-विज्ञान को उसकी उपयोगिता और प्रामाणिकता के साथ सर्वसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया जाय और साथ ही यह भी बताया जाय कि अध्यात्मवाद का जो ढाँचा इन दिनों खड़ा दिखता है वह अवास्तविक, शंकित  एवं बिगड़ा हुआ  है। इसमें प्राचीन काल के आत्मवेत्ताओं के स्थूल क्रिया-कलाप की भोंड़ी नक़ल  मात्र है, उसमें वास्तविकता न  के बराबर रह गई है। यही कारण है कि उस अध्यात्मवाद का कोई भी रिजल्ट प्रतक्ष्य दिखाई नहीं दे रहा। ऐसी स्थिति में हैरान होना,अविश्वासी होना स्वाभाविक है। 

गुरुदेव एक व्यक्ति के रूप में नहीं एक फिलॉसफी  के रूप में जिए । 

जिन्होंने ने भी गुरुदेव को  चर्मचक्षुओं से देखा, एक देहधारी मानव प्राणी समझा लेकिन जिसने उन्हें बारीकी से परखा और गहराई तक प्रवेश करके जाँचा उसने उन्हें युगप्रवाह की मूर्तिमान प्रेरणा के रूप में पाया। 

आत्म-विद्या इस संसार की सबसे बड़ी विद्या और विश्व मानव की सुख-शान्ति के साथ प्रगति पथ पर अग्रसर होते रहने की सर्वश्रेष्ठ विधि व्यवस्था है लेकिन दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि संसार में इस की ऐसी दुर्गति हो रही है और इस विडम्बना के कारण समस्त मानव जाति को कितना नुक्सान उठाना पड़ रहा है।  इस अवाँछनीय परिस्थिति को वाँछनीयता में परिणत करने के लिये, अवास्तविक के स्थान पर वास्तविकता को प्रतिष्ठापित करने के लिये यदि गुरुदेव आये हैं यां  भेजे गए  हों तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। यह कहना अत्युक्ति न होगी कि वे एक आदर्श मानव का, एक सच्चे अध्यात्मवादी का क्या स्वरूप हो सकता है और क्या होना चाहिये इसका उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये अवतरित हुए। गुरुदेव की वाणी और लेखनी से बहुत कुछ कहा और लिखा जाता रहा है। एक दूसरे को उपदेश देने का ढर्रा मुद्दतों से चल रहा है लेकिन उसका कोई स्थिर प्रभाव तब तक नहीं पड़ सकता जब तक उन आदर्शों उपदेशों पर चलकर यह न बताया जाय कि इस आधार को अपनाने में किस प्रकार लाभान्वित हुआ जा सकता है। प्रत्यक्ष से ही प्रेरणा मिलती है। आदर्श सम्मुख होने पर ही उसके अनुकरण या अनुगमन की इच्छा उत्पन्न होती है। जीभ से कुछ भी कहा जा सकता है और कान से कुछ भी सुना जा सकता है लेकिन  जब तक प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत न किया जाय तब तक सर्वसाधारण को उस मार्ग पर चलने का साहस नहीं हो सकता। इस आवश्यकता की पूर्ति करने के लिये गुरुदेव इस धरती पर अवतरित हुए  और उनकी समस्त गतिविधियाँ लोकमंगल के लिये, अध्यात्मवाद की उपयोगिता एवं आवश्यकता सिद्ध करने के इर्द-गिर्द घूमती रहीं।

यहाँ पर आज के दिव्य लेख का एक और मध्यांतर होता है, कल यहीं से आगे की चर्चा का शुभारम्भ होगा। 

जय गुरुदेव  


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