3 जून 2025 का ज्ञानप्रसाद
परम पूज्य गुरुदेव के बारे में अनेकों लोगों से, जीवनदानिओं से, दिव्य साहित्य के माध्यम से जानने का सौभाग्य प्राप्त होता है लेकिन जितना वंदनीय माता जी बता सकती हैं शायद ही अन्य कोई बता सके। अगस्त 1971 की अखंड ज्योति का प्रकाशन गुरुदेव के हिमालय जाने के बाद वंदनीय माता की ने किया था। इस अंक में प्रकाशित “अपनों से अपनी बात” सेक्शन में माता जी ने गुरुदेव के बारे में अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्यों का वर्णन किया है जिसका प्रथम भाग आज प्रस्तुत है।
आज के लेख में वंदनीय माता जी, गुरुदेव की हिमालय जैसी ऊंचाई,धरती जैसी विशालता,धरती मां जैसा अपनत्व और सागर जैसी गहराई को बारीकी से समझा रही हैं। हमने साधारण/सरल विज्ञान के कुछ उदाहरण देकर इन तथ्यों को support करने का प्रयास किया है। जिस प्रकार साधारण व्यक्ति के लिए विश्वास करना कठिन है कि धरती अपने Axis पर 1600 किलोमीटर प्रतिघंटा की गति से घूम रही है,ठीक उसी प्रकार गुरुदेव के विशाल व्यक्तित्व पर विश्वास करना कठिन है। दोनों परिस्थितियों में व्यक्ति की नासमझी उसके अल्प ज्ञान (Limited Knowledge) के कारण है, उसकी पात्रता (Eligibility) के कारण है। अधिकतर लोग गुरुदेव से अपनी तुच्छ सी, छोटी-छोटी समस्याओं की पूर्ति के लिए मनोहार और मिन्नतें करते रहते हैं, गुरुदेव भी उन्हें छोटे बच्चों की तरह लॉलीपॉप देकर उनका दिल बहलाते रहते हैं। बहुत से लोगों को पता ही नहीं कि Santa claus की भांति गुरुदेव के झोले में कैसे-कैसे उपहार पड़े हुए हैं। अधिकतर लोग तो इतना भी नहीं जानते कि मोती प्राप्त करने के लिए सागर के गर्भ में गहरी डुबकी लगानी पड़ती है, पात्रता विकसित करनी पड़ती है, स्वयं को साबित करना पड़ता है।
यदि हम ज्ञानप्रसाद लेखों के माध्यम से इतना सा ही समझ लें तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी, इसी दिशा में हम सब प्रयासरत हैं।
विश्व शांति की कामना के साथ आज के लेख का शुभारम्भ होता है : “ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
परम पूज्य गुरुदेव की विदाई हम सबको शूल की तरह चुभ रही है। जब तक वे साथ थे गहराई से देखने समझने का अवसर ही नहीं मिला। निकटवर्ती वस्तु सदा कम महत्व की लगती है और उसका सही मूल्याँकन करना सम्भव नहीं होता। जिस पृथ्वी पर हम वास करते हैं वह इतनी तेज़ गति से घूमती है कि पता ही नहीं चलता कि वह घूम भी रही है कि नहीं। अन्तरिक्ष यात्रियों ने जब दूर से पृथ्वी के सौंदर्य को देखा तो आश्चर्यचकित और भाव-विभोर हो गये लेकिन हम रोज उसी पृथ्वी पर रहते हुए भी न तो उसकी गति समझ पाते हैं और न ही उसकी आभा का अनुमान लगा पाते हैं।
धरती अपने Axis पर लगभग 1600 किलोमीटर प्रति घंटा की गति से घूमती है और सूर्य के इर्द-गिर्द 1 लाख किलोमीटर प्रति घंटा की गति से घूमती है। बेसिक हाई स्कूल साइंस से पता चलता है कि इन्हीं दो तरह के घूमने से दिन-रात और मौसम बनते हैं। चौथी-पांचवीं कक्षा के विद्यार्थी दिनों में हमारे मस्तिष्क में एक ही प्रश्न उठता था कि यदि इतनी तेज़ गति से धरती घूम रही है तो हम उड़ कर गिर क्यों नहीं जाते। हमारे मन में उठने वाला दूसरा जिज्ञासाभरा प्रश्न तब उठता था जब अमावस की अँधेरी घोर काली रात में बाहिर आँगन में सोते थे। अँधेरी रात में रत्न जैसे चमचमाते विशालकाय थाल (आकाश के तारे) के पीछे का रहस्य क्या है। ऐसे कुछ और भी जिज्ञासा भरे प्रश्न बाल्यकाल से चले आ रहे हैं जिनका उत्तर आज भी ढूंढ रहे हैं।
जहाज़ लगभग 800 किलोमीटर प्रति घंटा की गति से उड़ता है, तो उसमें बैठे यात्री इधर-उधर क्यों नहीं गिर जाते। जहाज़ के यात्रिओं की तरह धरती पर रहने वाले सभी वासी भी धरती के साथ उसी गति से घूमते हैं जिस गति से धरती और जहाज़ चल रहे हैं। जिस प्रकार इस साधारण से तथ्य को समझने के लिए अनेकों उदाहरण, अनेकों वैज्ञानिक लॉजिक दिए जा सकते हैं, ठीक उसी तरह गुरुदेव जैसे महान व्यक्तित्व को समझने के लिए, अपनी अंतरात्मा में उतारने के लिए अनेकों तथ्यों का सहारा लेकर, अपने साथिओं के ज्ञान की सहायता से प्रत्येक ज्ञानप्रसाद लेख एक दिव्य अमृत बनाने का प्रयास रहता है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रकाशित होने वाले प्रत्येक लेख, ऑडियो/वीडियो, कमेंट,काउंटर-कमेंट,किसी भी गतिविधि के पीछे केवल एक ही उद्देश्य छिपा पड़ा है कि गुरुवर के ज्ञान को कैसे समझें,कैसे समझा पाएं,कैसे हम सब इस ज्ञान से लाभान्वित होकर घर-घर में स्वर्गीय वातावरण स्थापित कर पाएं।
आइये आगे बढ़ते हैं।
धरती की अद्भुत आभा की भांति मानव काया भी ऐसी अद्भुत है कि उसके अंग-प्रत्यंगों में ऐसे-ऐसे अद्भुत यन्त्र लगे हुए हैं, उनका न तो स्वरूप दिखता है और न ही कृत्य। जिस प्रकार मोती वही ढूँढ़ पाते हैं जो गहराई तक डुबकी मारने का सामर्थ्य रखते हैं ,पुरुषार्थ कर सकने की क्षमता रखते हैं, ठीक उसी प्रकार स्वयं को वही पहचान पाते हैं जो जानने की क्षमता रखते हैं -यही आत्मज्ञान है।
जिन लोगों ने गुरुदेव को केवल बाहर से ही देखा,उनके स्थूल शरीर के ही दर्शन किये हैं, वोह केवल दर्शन-मात्र का लाभ ही प्राप्त कर सके लेकिन जिन्होंने उनके अन्तरंग को परखा और प्रकाश ग्रहण किया वोह इतिहास-प्रसिद्ध महामानव बनने में सफल हो गये। हम में से बहुत कम ऐसे साथी हैं जिन्होंने पू. आचार्य जी की हिमालय जैसी ऊंचाई,धरती जैसी विशालता,धरती मां जैसा अपनत्व और समुद्र जैसी गहराई को बारीकी से समझने का प्रयत्न किया हो।
गुरुदेव का साहित्य उनके अंतरंग का ही प्रतिबिम्ब है। हम अखिल विश्व गायत्री परिवार का ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं जिसने अनेकों माध्यमों से आज तक गुरुदेव को हम सबके साथ जोड़े रखा है और अनेकों ऐसे साथिओं को दर्शन करा रहे हैं जो गुरुदेव के दर्शन से वंचित रह गए।
वंदनीय माता जी अगस्त 1971 की अखंड ज्योति में बता रही हैं कि आमतौर पर गुरुदेव को उतना ही समझा जाता रहा जितना कि उनके स्थूल क्रिया-कलाप चमड़े की आँखों से दिख पड़ते थे। गुरुदेव के बारे में लोगों को जो कुछ भी समझ में आता है, जब विश्लेषणकर्ता उसका Deep analysis करते हैं तो पता चलता है कि यह देह जो मोटी दृष्टि से देखने पर तुच्छ लगती है, सही मायनों में कितने भारी आश्चर्य भाण्डागार के रूप में विनिर्मित हुई है।
धरती माँ और मानवी काया की तरह ही परम पूज्य गुरुदेव का महान् अस्तित्व हम लोगों के बीच लम्बे अरसे से विद्यमान था। वे कितने अद्भुत, कितने महान् थे इसकी जानकारी का मात्र एक अंश ही हम अति निकटवर्ती सहचरों को मिल सका। जो लोग थोड़ा दूर के फासले में रह रहे थे उनकी जानकारी कितनी कम रही होगी, तो इसमें आश्चर्य क्यों हो ? चमड़े की आँख से वही देखा जा सकता है जो स्थूल या प्रत्यक्ष है। अधिकतर लोग सागर के किनारे खड़े रह कर, नित्य उसकी पूजा, उपासना, साधना, तपश्चर्या करते रहे, उसका फल बालकों को मिठाई बाँटने में खर्च करने जैसा आनन्द लेते रहे। यही कारण था कि गुरुदेव के इर्द-गिर्द मिठाई खाने वालों की,बाँटने वाले बालकों की भारी भीड़ लगी रहती थी। वन्दनीय माता जी यहाँ पर “बालकों” शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग कर रही हैं जो भौतिक प्रगति के लिए लालायित और उलझनों से उद्विग्न व्यक्ति थे/हैं जो अपने पुरुषार्थ से अपनी गुत्थी सुलझा सकने में समर्थ नहीं हो पा रहे थे और किसी दूसरे की (गुरुदेव की) समर्थ सहायता की आशा करते थे।
आत्मिक दृष्टि से प्रौढ़ व्यक्ति, अपने पुरुषार्थ से अपनी मंजिल स्वयं पूरी करने में समर्थ होते हैं और प्रारब्ध की जटिलता को साहस और धैर्यपूर्वक सहन करते हैं। बालकों की मनःस्थिति इन प्रौढ़ व्यक्तिओं से भिन्न होती है। वे अभिलाषा तो बहुत करते हैं लेकिन उस उपलब्धि के लिए आवश्यक क्षमता नहीं रखते। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर इसी क्षमता की बार-बार “पात्रता” शीर्षक के अंतर्गत चर्चा की गयी है।
गुरुदेव के अनुसार मिठाई देने का मतलब इस वर्ग के अबोध,नासमझ,नन्हें-मुन्हें बालकों की छोटी-छोटी, तुच्छ सी आवश्यकताओं को उपहार स्वरूप पूरी करना है। क्रिसमस में सैंटा क्लॉस से लॉलीपॉप प्राप्त करना, बच्चों का खुश होना,उत्साहित होते देखना, गुरुदेव को बड़ा आनन्द देता था।
गुरुदेव स्वभावतः खाने में बहुत उदासीन और खिलाने में बहुत रस लेने वाले ही थे। अपने भोजन को सस्ते से सस्ता और कम से कम रखने में उनकी जितनी अखरने वाली कंजूसी देखी जाती थी उतनी ही सराहनीय उदारता दूसरों को खिलाने में मिलती थी। हमारे चौके में सदा दर्जनों अतिथि उपस्थित रहते थे। अकेले तो शायद ही हमने कभी खाया हो। जब कभी बिना अतिथि का दिन आ जाता तो दुःखी होकर गुरुदेव उस श्रुति वचन को याद करते जिसमें कहा गया है, “जो अकेला खाता है सो पाप खाता है।”
वंदनीय माता जी गुरुदेव के उपासना क्षेत्र में प्रवेश करने के बारे में बता रही हैं कि जब उन्होंने अभाव-ग्रस्त, शोक-संतप्त उलझनों में जकड़ा हुआ मानव देखा तो उसकी मनोव्यथा समझने में देर न लगी। करुणा से भरा हुआ गुरुदेव का हृदय ठीक उसी तरह देखते ही पिघल गया जिस प्रकार धूप से तपने और सताने पर हिमखण्ड गलते और पिघलते हैं। सन्त तो पराई व्यथा को अपनी व्यथा मानकर, सहज ही अपनी सम्वेदना से व्यथित होकर गलते/ पिघलते रहते हैं। गुरुदेव का रहन-सहन और वेषभूषा देखकर उन्हें एक अति सामान्य व्यक्तित्व समझा जा सकता था लेकिन सही मायनों वे बहुत ऊँचे थे। बालकों जैसी निर्मलता और बादलों जैसी उदारता गुरुदेव के मुख्य आधार थे। यों तो गुरुदेव न जाने कितने ही दैवी गुण लेकर जन्में और कितने ही साधु स्वभाव बढ़ाते संजोते चले गये लेकिन उनकी माता जैसी ममता इतनी विस्तृत थी कि जो भी संपर्क में आया उनके सहज स्नेह में सराबोर होता चला गया। प्रथम बार अपरिचित के रूप में आने वाले ने भी यही समझा हम आचार्य जी के चिर–परिचितों और सघन आत्मीयजनों में से ही हैं।
हर कोई मनुष्य समझता है कि पवन उसके ऊपर ही पंखा झुला रहा है, सूर्य को हर कोई यही मानता है कि वह केवल उसी के घर में रोशनी और गर्मी बखेरने आता है लेकिन सच में पवन और सूर्य इतने विशाल और महान है कि एक नहीं असंख्यों को उनकी सहायता का लाभ समान रूप से मिलता रहता है। बाधित और प्रतिबन्धित तो वे होते हैं जो स्वार्थी और संकीर्ण हैं। ऐसे लोग जिन्हें न मोह है न लोभ, जिनके लिये राग−द्वेष का, अपने पराये का प्रश्न ही नहीं उठता, उनके लिए गुरुदेव की करुणा, ममता एवं आत्मीयता बरसाती रहती है। नर-तन धारियों की तो बात ही क्या, जो भी गुरुदेव से सहायता प्राप्त करने की आशा में सामने आये किसी को भी निराश नहीं लौटना पड़ा, गुरुदेव ऐसा कर ही नहीं सके।अमिट प्रारब्धों से ग्रस्त कुछ एक लोगों को छोड़कर गुरुदेव ने प्रायः उन सभी की भरपूर सहायता की जो तनिक भी सहयोग पाने की इच्छा से उनके संपर्क में आयें थे।
इस दिव्य ज्ञानप्रसाद का यहीं पर मध्यांतर होता है, इसके आगे का रोचक विवरण कल तक स्थगित करना पड़ेगा।
जय गुरुदेव