वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

मानवी काया काँच की नहीं,अष्ट धातु से बनी है। 

मार्च 1972 की अखंड ज्योति में प्रकाशित सभी लेख इतने उत्कृष्ट हैं कि हम वंदनीय माता जी को महाशक्ति कहे बिना नहीं रह सकते। गुरुवर हिमालय में साधनारत थे, माता जी शांतिकुंज के आरंभिक दिनों में लगभग अकेली ही थीं, ऐसी स्थिति में इतने उत्कृष्ट लेखों से हम सबका मार्गदर्शन करना कोई सरल काम नहीं है। महाशक्ति को नमन करते हैं। 

आज के लेख का एक-एक शब्द यदि अंतरात्मा में उतारते हुए अमृतपान किया जाए तो शायद ही जीवन की कोई समस्या हो जिसका समाधान न मिल पाए। मानवी शरीर को समझना, उसे अध्यात्म के साथ जोड़ना ही आज के ज्ञानप्रसाद लेख का सार है।

लेख के अमृतपान से पहले सभी साथियों से निवेदन कर रहे हैं कि शनिवार के विशेषांक की चर्चा पर आधारित कारणों से कुछ दिनों के लिए संकल्प सूची स्थगित रखना ही उचित रहेगा।

तो आइये आज के  लेख का शुभारम्भ विश्वशांति की कामना से करें और देखें कि गुरुवर का स्वप्न  “भारत भूमि पुनः यज्ञभूमि बनकर रहेगी”, कैसे सार्थक होता दिख रहा है।  

 “ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

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मनुष्य शरीर सामर्थ्यों का पुंज है। उसमें प्रगति की समस्त सम्भावनायें विद्यमान हैं। यदि उन शक्ति स्रोतों (Energy sources) को समझ लिया जाय और कोई मनुष्य प्रयत्नपूर्वक आत्मोन्नति के लिए कमर कस ले तो देखा जा सकता है कि प्रगति के लिए आवश्यक वे सभी विशेषतायें,जिनका उसे पहले अभाव प्रतीत होता था,उसके अपने भीतर ही विद्यमान हैं 

विचारशील,मननशील,बुद्धिमान लोग प्रगति के साधन बाहर नहीं बल्कि अपने भीतर खोजते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने दोष, दुर्गुण सुधारने का प्रयास करते  हैं और अस्त-व्यस्त स्वभाव एवं समय क्रम को इस प्रकार क्रमबद्ध करते हैं कि अभीष्ट दिशा में बढ़ चलने का मार्ग स्वयं ही, बड़ी आसानी से चलता जाता है। भाग्योदय की समस्त संभावनाएं मनुष्य के परिष्कृत व्यक्तित्व में विद्यमान रहती हैं। जिस व्यक्ति ने  इस तथ्य की वास्तविकता समझ ली उसे सबसे पहले स्वयं को सँभालने और सुधारने पर ध्यान देना पड़ता है।

हमारे शरीर में व्याप्त ऊष्मा संचालक नाड़ी संस्थान (Temperature controlling nerve system) इतना Sensitive  है कि डॉक्टर लोग आपरेशन के समय रीढ़ की हड्डी में सुई लगाकर इसे कुछ देर के लिए बेहोश कर देते हैं और बातों ही बातों में मानवीय देह सुन्न हो जाती है। प्रयोगशालाओं में विद्यार्थियों को पशुओं पर प्रयोग करके दिखाया जाता है कि यदि यह नाड़ी केन्द्र बिजली द्वारा ज़रा सा भी उत्तेजित कर दिया जाय तो मनुष्य  घोर शीत की स्थिति में भी गर्मी से व्याकुल हो उठेगा। इसके विपरीत यदि प्रचण्ड गर्मी की स्थिति में उस केन्द्र को शिथिल कर दिया जाय तो मनुष्य  ठण्ड से काँपने लगेगा।

हमारा रक्त एक सफल ऊष्मा वाहक (Heat carrier)  है जो  ताप को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने का अभीष्ट प्रयोजन पूरा करता है। यदि  रक्त दौड़ता (Blood flow) न हो तो गर्मी जहाँ बनती है वहीं बनी रहेगी, शरीर के कुछ अंग  जलने लगेंगें  और शेष शरीर को शीत में ही मरना होगा। रक्त केवल दौड़ने का ही काम नहीं करता, वह स्वयं भी गर्मी पैदा करता और गर्म  भी रहता है। उसकी यह विशेषता  हीटर और कूलर वाले दोनों प्रयोजन पूरे करती है, जब देह को गर्मी लगती है तो Blood Flow द्वारा शरीर से गर्मी बाहर जाती है,पसीना निकलने से  शीतलता उत्पन्न होती  है (Cooling is caused by evaporation)। शीत में टेम्परेचर कण्ट्रोल  का क्रम चलता है और अपना ही रक्त आवश्यक गर्मी की व्यवस्था बना देता है।

मानव शरीर में इस हीट रेगुलेशन का केन्द्र मस्तिष्क में स्थित  Hypothalamus होता है जिसे वैज्ञानिक लोग शरीर का थर्मोस्टेट कहते हैं । यह auto-controlled होता  है। बाहरी सर्दी-गर्मी बढ़ने पर यह “ताप नियन्त्रण केन्द्र” विशेष रूप से सक्रिय होता है और परिस्थिति के अनुरूप अपने को ढालकर सारे शरीर की स्थिति ऐसी बना देता है कि  शीत ताप की घट-बढ़ का सामना किया जा सके। सारे शरीर में फैले हुए,त्वचा के साथ गुँथे हुए,पतले रेशे, शीत ताप की स्थिति की जानकारी निरन्तर पहुँचाते रहते हैं। मस्तिष्क निर्णय लेता है कि परिस्थिति का सामना करने के लिए किस अंग को क्या करना चाहिए। इसका निर्देश एक आर्मी कमांडर की तरह होता है जिसे अंग  तत्काल शिरोधार्य करते हैं। सचेतन (Conscious) मस्तिष्क को अन्तरंग की इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया का पता भी नहीं चलता लेकिन  अचेतन निरन्तर वह व्यवस्था जुटाता रहता है जिससे जीवन संचार की सारी गतिविधियाँ भली प्रकार सम्पन्न होती रहें।

मनुष्य के शरीर का तापमान 98.6 डिग्री fahrenheit  होता है। यदि वह 19 डिग्री घट जाय अर्थात् 79 के करीब रह जाय तो जीवन संकट उत्पन्न हो जायगा। इसी तरह 9 डिग्री बढ़ जाय अर्थात् तापमान 107 डिग्री पर जा पहुँचे तो मृत्यु हो जायगी। बुखार में तापमान अधिक न बढ़ने पाये इससे इसके लिए डॉक्टर सिर पर बर्फ रखते हैं। इस प्रतिपादन को झुठलाने वाली नर्स है जिसने 110 डिग्री बुखार से कई दिनों तक लड़ाई लड़ी और आखिर वह अच्छी हो गई। डॉक्टर कह चुके थे कि इसका बचना सम्भव नहीं। यदि बच भी गई तो इतनी गर्मी उसे पागल कर देगी लेकिन इस नर्स ने न मौत को अपने पास फटकने दिया न पागलपन को। इस नर्स ने साबित कर दिया कि मृत्यु से जीवन अधिक सामर्थ्यवान है।

यहां जीवन का एक और तथ्य समझने की आवश्यकता है। इस तथ्य के अनुसार जहां ईश्वर ने मनुष्य को प्रगति की अगणित सम्भावनायें देकर मालामाल किया है वहीं उसे जीवन के उतार-चढ़ाव, प्रतिकूलताओं आदि को सहन करने की भी अनन्त सामर्थ्य प्रदान की है। शरीर और मन की बनावट कुछ ऐसी विचित्र है कि उसे साधारण रुकावटें झुका नहीं सकतीं । साहस के धनी और धैर्यवान व्यक्ति विकट परिस्थितियों में मानसिक सन्तुलन बनाये रखते हैं और संकटों से दिल्लगी,मजाक आदि करते हुए अपना मार्ग सरल बनाते  रहते हैं। मनस्वी व्यक्ति को कोई भी विपत्ति झुका नहीं सकती। जीवन का सत्य यही है कि संकट सभी पर आते हैं लेकिन  वे सदा के लिए जमे नहीं रहते बल्कि उड़ते बादलों की तरह छटते रहते हैं। आज जो विपत्ति आई है कल उसका समाधान भी अवश्य सामने आयेगा। जिनका यह विश्वास है उन्हें ज्यादा देर तक प्रतिकूलताओं का सामना नहीं करना पड़ता। एक रास्ता बन्द होने पर वे दूसरा विकल्प ढूंढ ही निकालते हैं।

मन की तरह शरीर की रचना भी ऐसी ही है कि साधारण बीमारियाँ या दुर्घटनायें कुछ बहुत बड़ा अनर्थ नहीं कर सकतीं। मनुष्य के शरीर में ईश्वर ने सहनशक्ति,इच्छाशक्ति इतनी अधिक समाहित की  हुई है कि मृत्युतुल्य संकट उत्पन्न होने पर भी जीवनरक्षा की आशा की जा सकती है। यही कारण है कि बड़े गर्व से उदाहरण दिए जाते हैं कि उस मनुष्य ने अपनी Will-power से कैंसर जैसी भयानक बीमारी को भी हरा दिया। इसी तरह का एक बहुप्रचलित स्लोगन है: जिंदगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं?

विधाता ने यह काया काँच की नहीं बनाई जो ज़रा सी ठोकर लगने पर चूर-चूर हो जाए। सच तो यह है कि अष्टधातु (आठ धातुओं) की बनी है और इस अन्दाज में बनाई गई है कि बड़े से बड़े आघात भी सह सके। मनुष्य को विपत्तियाँ नहीं मारती,मारती है तो बुज़दिली। जो डरते हैं वे ही मरते हैं। घबराहट से मरने का प्रभाव पेट में छुरा घोंपे जाने से अधिक बुरा होता है। छूरेबाज़ी के शिकार दर्जनों घावों को सहन करके अस्पताल से हँसते-खेलते डिसचार्ज होते देखे गए हैं जबकि घबराने वालों के लिए एक फुन्सी ही भय और आतंक का कारण बन जाती है और प्राण लेकर हटती है।

हमारे दोनों घुटनों की सर्जरी के समय हमारा भी कुछ ऐसा ही हाल था। सर्जरी के बाद जब हमें होश आई और हमने कहा कि हम तो पिकनिक मनाने आए हैं तो आसपास के सभी लोगों ने जोर के ठहाके लगाए थे।

क्या मनुष्य सच में अष्टधातु (8 धातु, Metals) का बना है तो उत्तर होगा नहीं। ऐसा केवल प्रतीकात्मक (Symbolic) रूप में कहा जाता है। यह भारतीय दर्शन, पौराणिक कथाओं और सांस्कृतिक मान्यताओं से जुड़ा हुआ एक भावात्मक और दार्शनिक कथन है। इस पहलु को समझने की आवश्यकता है। 

1. अष्टधातु का शाब्दिक अर्थ है “आठ धातुओं का मिश्रण”। ये आठ धातुएँ हैं: सोना (Gold),चाँदी (Silver),ताँबा (Copper),सीसा (Lead),जिस्त (Zinc),टिन (Tin),लोहा (Iron),पारा (Mercury) अष्टधातु का उपयोग विशेष रूप से मूर्तियों के निर्माण में किया जाता है। 

2. मनुष्य अष्टधातु का बना है केवल एक प्रतीकात्मक (Symbolic) अर्थ है। इस  कथन से यह दर्शाने का प्रयास किया जाता है कि मनुष्य अनेक तत्वों या गुणों का सम्मिलन है, जैसे सोना, पवित्रता और दिव्यता का प्रतीक माना जाता है; चाँदी, शीतलता, शांति और सौम्यता को दर्शाता है; ताँबा,ऊर्जा और सक्रियता से जुड़ा होता है; लोहा, शक्ति, दृढ़ता और स्थायित्व का प्रतीक है; सीसा,स्थिरता और गहराई को दर्शाता है; टिन,लचीलापन और अनुकूलन क्षमता का प्रतीक है;पारा,चंचलता और परिवर्तनशीलता को दर्शाता है और जिस्त रक्षा और मजबूती से जुड़ा होता है।

वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो मनुष्य का शरीर मुख्यतः ऑक्सीजन,कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, पोटैशियम, सल्फर आदि तत्वों से बना होता है। धातुएँ बहुत ही कम मात्रा में  होती हैं, जैसे रक्त में लोहे की बहुत कम मात्रा  पाई जाती है (हीमोग्लोबिन में), लेकिन”अष्टधातु” के रूप में नहीं।

भारतीय धर्म में सहनशक्ति बढ़ाने पर बहुत बल दिया गया है। अधिकतर तप साधनाओं  का उद्देश्य सहनशक्ति संतुलन ही है। कष्ट की स्थिति आने पर भी मन को असन्तुलित न होने देने का अभ्यास ही तप साधना का मूलभूत प्रयोजन है। व्रत, उपवास, माघ स्नान, धूनी तपना, मौन, कठोर आसन, रात्रि जागरण आदि के पीछे इस अभ्यास की परिपक्वता ही प्रयोजन है जिसके द्वारा कठिन समय आने पर हिम्मत न हारने का मनोबल यथास्थान बना रहे।

यदि मन को सँभाले-सँजोये रखा जाय तो शरीर के बारे में यह निश्चित कहा जा सकता है कि वह सहज ही टूटने के लिए नहीं बनाया गया है । वह कठोरतम परिस्थितियों को सहन कर सकने में सक्षम है। यदि मन की साहसिकता बनी रहे तो मानवी काया की समर्थता अपने ढंग की अनोखी ही पाई जायगी।

भगवान ने हमें अति समर्थ एवं सहनशक्ति सम्पन्न शरीर दिया है,अब यह अपना काम है कि इस शरीर की  सुरक्षा को अनुपयुक्त आहार-विहार से नष्ट न किया जाए। यह हमारी स्वयं की जिम्मेदारी है कि अवरोधों से लड़ने की क्षमता को सदैव बनाये रहने के लिए सहनशक्ति प्रदान करने वाली  तप−साधनाएं करते रहें। यह अपनी जिम्मेदारी है कि मनोबल ऊँचा रखें, हिम्मत न हारें, निराशा को पास न फटकने दें और एक रास्ता बन्द होने पर दूसरा रास्ता खोजें, खोलें और यदि मानसिक दुर्बलता से बचा रहा जाय तो शरीर की  बीमारियों से लड़ते-झगड़ते लम्बी जिन्दगी जिया जा सकता  है और अवरोधों से दिल्लगी मजाक करते हुए सफल और समर्थ जीवन की दिशा में बढ़ता रहा जा सकता है।

समापन, जय गुरुदेव 


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