वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

समाज का ऋण चुकाना ही श्रेयस्कर है।

आज का ज्ञानप्रसाद इतना प्रैक्टिकल एवं सरल है कि  लगभग सभी (विशेषकर हमारे वरिष्ठ साथी)  इस विषय से भलीभांति परिचित हैं। बाल्यकाल से अपने बुज़ुर्गों से  मनुष्य जीवन के चार आश्रम ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ एवं सन्यास के बारे में सुनते आ रहे हैं, पालन भी करते आ रहे हैं। यदि वरिष्ठ ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में समयदान करके जीवन के तीसरे आश्रम को निभा  रहे हैं तो युवासैनिक तो  हम सबसे कहीं आगे निकल चुके हैं। ऋण-मुक्त होने की दिशा में वोह हम सबसे कहीं आगे हैं, यह सब गुरुवर  की शिक्षा, माता-पिता द्वारा दिए गए संस्कारों से ही घटित हो रहा है कि यह छोटा सा परिवार,अपनी शैश्वावस्था में होने के बावजूद विश्व पटल पर जाना जा रहा है। 

अखंड ज्योति मार्च 1972 में प्रकाशित दिव्य लेख को समझते हुए,अपनी अबोध बुद्धि से जितना सम्भव हो सका प्रैक्टिकल बनाने का प्रयास किया है। आशा की जा सकती है कि चाहे हम सब मॉडर्न युग में रह रहे हैं, अपनी संस्कृति की रक्षा करना हमारा ही कर्तव्य है। 

यहीं से शुरू होता है आज के दिव्य ज्ञान का अमृतपान जिसकी एक-एक बूँद जीवनदायनी है। 

**********************      

प्रत्येक मनुष्य की अपनी व्यक्तिगत  आवश्यकताएं और इच्छाएं हैं। उनकी पूर्ति के लिए हम सब प्रयत्न करते हैं और अधिकतर इच्छाएं पूर्ण होती भी हैं। लेकिन इस प्राप्ति के पीछे एक बहुत बड़ा सत्य छुपा हुआ है जिसे मनुष्य  ज़्यादातर नकारता ही रहता है। वह सच यह है कि जो कुछ वह प्राप्त करता है वह उसका केवल अपना ही उपार्जन ही नहीं होता उसे जुटाने में “समाज का भारी योगदान” रहता है। यदि समाज का,परिवार का, सृष्टि का,ईश्वर का, माता पिता का, पत्नी का और न जाने किस-किस का योगदान न रहे तो मनुष्य पेट भरने और तन ढकने की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता  भी शायद ही पूरी कर सके । 

मनुष्य को ईश्वर ने बुद्धि तो बहुत दी है लेकिन शरीर इतना शक्तिहीन है,कमज़ोर है  कि वह बिना दूसरों के सहयोग के अपनी बढ़ी-चढ़ी इच्छाओं की पूर्ति किसी भी प्रकार से पूर्ण नहीं कर सकता। इस दृष्टि से वह अन्य जीवों की तुलना में काफी पिछड़ा हुआ है। गाय, हिरन, लोमड़ी, खरगोश, आदि के बच्चे जन्म लेने के कुछ ही देर बाद अपने पाँवों पर खड़े हो जाते हैं। माता का दूध भी अपने प्रयास  से पीने लगते हैं और कुछ ही दिनों में चल-फिर कर घास आदि ढूँढ़ने और पेट भी भरने लगते हैं। मनुष्य के बच्चे में यह योग्यता बहुत वर्ष बीतने के बाद भी नहीं आ पाती । माता दूध न पिलाये तो वह भूखा ही मर जायगा। माँ भी तो उसे रोने के बिना दूध नहीं पिलाती। सोने, खाने, नहाने, मल-मूत्र विसर्जन जैसे छोटे कामों के लिए भी बहुत समय  तक उसे अपने अभिभावकों पर ही  निर्भर रहना होता है। अपने पैरों पर खड़े होने की, अपना गुजारा स्वयं  करने की समर्था प्राप्त करने में उसे 15-16 वर्ष तक लग जाते हैं। हम अपने आसपास अक्सर देखते हैं कि अधिकतर लोग आजीवन माता-पिता पर ही निर्भर रहते है जबकि अनेकों ऐसे भी हैं जो बहुत ही छोटी आयु में आत्मनिर्भर हो जाते हैं। 

साथिओ यह एक ऐसा विषय है जिसमें अनेकों Exceptions हैं, कोई बात किसी पर फिट बैठती होगी तो किसी अन्य बात का विरोध होगा, इसलिए उचित होगा कि विषय के सेंट्रल आईडिया पर ही टिके  रहें।   

यह एक अटल सत्य है कि पति-पत्नी आजीवन एक दूसरे  के साथ रहते हैं। लेकिन यहाँ एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न उभर कर सामने आता है कि क्या इस आजीवन साथ में केवल मनुष्य का अपना ही योगदान है । माता-पिता  उस लड़की को सुयोग्य बनाते और उदारतापूर्वक ब्याह कर देते हैं। यह सामाजिक योगदान है। अन्य प्राणी काम-उद्देश्य  के लिए क्षणिक दाम्पत्य-जीवन बनाते और बिछुड़ जाते हैं। 

मनुष्य को जो सुव्यवस्थित दाम्पत्य जीवन मिला है उसमें समाज का अनुग्रह बहुत ही महत्वपूर्ण है। भोजन के लिए अन्न, पहने के लिए वस्त्र, निवास के लिए घर, शिक्षा के लिए विद्यालय, आजीविका के लिए उद्योग, यात्रा के लिए वाहन, बीमारी के लिए  दवा आदि आदि, यह लिस्ट इतनी लम्बी है कि कभी भी खत्म न हो।  क्या यह सब उपलब्धियाँ मनुष्य की निजी कमाई हुई हैं ? यदि समाज का सहयोग प्राप्त न हो तो मनुष्य कितना भी  परिश्रम कर ले, उस स्तर की वस्तुएं प्राप्त नहीं हो सकती जितनी कि हममें से प्रत्येक को मिली हुई  हैं। बोलना, लिखना, पढ़ना जो मनुष्य ने सीखा है उसमें माँ, संगी-साथियों का ही नहीं असंख्य पीढ़ी के पूर्वजों का योगदान है। सामाजिक, शासकीय, वैज्ञानिक, बौद्धिक सुविधाओं से जो असाधारण लाभ प्राप्त किया जा सका है, जिनके बल पर मनुष्य सृष्टि का मुकुटमणि बना बैठा है, उन सब में कहीं न कहीं समाज का योगदान और सहयोग तो अवश्य ही है। हाँ, इन उपलब्धियों में मनुष्य का परिश्रम और निजी पुरुषार्थ तो अवश्य है लेकिन वह सब कुछ एक प्रकार से समाज के योगदान की तुलना में नगण्य ही समझा जाना चाहिए।

जिस समाज ने मनुष्य पर  इतना उपकार किया और वह  अनुदान पाकर सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त करता रहा है, वह उस समाज का ऋणी है। इस ऋण को चुकाना एवं सामाजिक शृंखला परम्परा बनाये रखने की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। यह एक ऐसी कड़ी है (Chain reaction) जो जन्म-जन्मांतरों से चलती आ रही है।  यदि समाज के सभी लोग समाज के कोष में से केवल लेते ही रहें, उसका भण्डार भरने की बात न सोचें तो वह सामूहिक कोष खाली हो जायगा। समाज खोखला और दुर्बल हो जायगा उसमें व्यक्तियों की सुविधा बढ़ाने एवं सहायता करने की क्षमता न रहेगी। ऋण न चुका पाने से, कोष खाली हो जाने से, मानवीय प्रगति का पथ अवरुद्ध हो जायगा। 

वंदनीय माता जी इस दिशा में मार्गदर्शन देते हुए कहती हैं कि “समाज से ऋण प्राप्त तो करें लेकिन उसे वापिस करने की नीति अवश्य अपना ली जाय।” कोई भी बैंक जब ऋण देता है तो न केवल ऋण वापिस पाने के लिए किस्तें बनाता है बल्कि उसके ऊपर भारी ब्याज भी वसूल करता है।ऋण देते समय बैंक सारी शर्ते विस्तार से समझा कर, कॉन्ट्रेक्ट साइन के बाद ही पहली क़िस्त आपके अकॉउंट में जमा करता है।  क्या कभी ऐसा कॉन्ट्रैक्ट समाज और मनुष्य के बीच साइन हुआ है ? नहीं न। ऐसी बात नहीं  है, अप्रतक्ष्य कॉन्ट्रैक्ट साइन तो हुआ है लेकिन मनुष्य इतना ढीठ है कि उस कॉन्ट्रैक्ट की शर्तों की अवहेलना करता है। 

अगर बैंक की शर्ते न मानी जाएँ तो मनुष्य Defaulter घोषित कर दिया जायेगा और उस पर कानूनी कार्रवाई होती है। अगर बैंक अपनी शर्तों को मनवाने में असफल रहते हैं तो उसका     

दिवालिया हो जाता है,अर्थव्यवस्था डावांडोल हो जाती है। ऐसी स्थिति में  सरकार खोखली जाती है, व्यापार अस्त-व्यस्त हो जाता है।

इस अस्त-व्यस्तता को संतुलित रखने की दृष्टि से ही संसार की हर कोई गतिविधि Give and take के सिद्धांत पर चलती है। Give and take  की नीति पर ही  सारी व्यवस्था चल रही है। यदि सिर्फ लेने की प्रवृति ही हो, देने की नहीं, तो सारा क्रम ही उलट जायगा, मनुष्य को असामाजिक आदिम युग की ओर वापिस लौटना पड़ेगा।

मनुष्य की बुद्धि और श्रमशीलता का आधा भाग सामाजिक अनुदान का माना गया है, इसीलिए फिलॉस्फ़रों ने व्यवस्था बनाई है कि मनुष्य को अपनी जीवन सम्पदा का आधा भाग अपनी शरीर यात्रा के लिए रखना चाहिए और आधा भाग सामाजिक उन्नति  के लिए लगा देना चाहिए। पेट भरना, तन ढकना, निवास, शिक्षा, चिकित्सा, गृहस्थ, उपार्जन, मनोरंजन आदि वैयक्तिक सुविधा साधनों के लिए उसकी क्षमता का आधे से अधिक भाग खर्च नहीं  होना चाहिए, आधा भाग तो समाज सेवा के लिए सुरक्षित ही रहना चाहिए।

भारतीय संस्कृति आश्रम धर्म की व्यवस्था भी इसी दृष्टि से की गई है। उदाहरण के लिए यदि किसी मनुष्य की आयु 100 वर्ष की हो तो उसका एक चौथाई भाग (25 वर्ष) खेल-कूद तथा ज्ञान और शरीर की वृद्धि के लिए होने चाहिए जिसे यह ब्रह्मचर्य कहा गया है। 25 से 50 वाले 25 वर्ष  विवाह, सन्तान, परिवार उपार्जन, यश, वैभव, मनोरंजन आदि के लिए रखे गए हैं। इसे  गृहस्थ आश्रम कहा गया है। अगले 50 वर्ष में से आधा समय वानप्रस्थ और आधा  संन्यास के रूप में लोकमंगल के लिए आत्मिक उत्कृष्टता अभिवर्धन के लिए नियुक्त किया गया है । 

हमारे पुरातन ग्रंथों  के अनुसार जीवन सम्पदा का यही श्रेष्ठतम विभाजन है। भारतीय धर्म और संस्कृति की यह एक अति महत्वपूर्ण व्यवस्था है जिस पर उसकी महान सामाजिक व्यवस्था की आदर्श परिपाटी निर्भर रही है। सामाजिक उत्कृष्टताओं के अभिवर्धन, सत्परम्पराओं के संचालन और विकृतियों के निवारण के लिए निरन्तर प्रयत्न किया जाना आवश्यक है। यह प्रयोजन, सुयोग्य, अनुभवी और निस्पृह लोगों के द्वारा ही पूरा हो सकता है। अनेक सत्प्रवृत्तियों के गतिशील रहने से ही समाज की श्रेष्ठता और महानता सुदृढ़ रह सकती है। 

ऊपर लिखे सभी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए ज़रूरी है कि ढलती आयु के व्यक्तियों को अपना जीवन उदारता, दान, परमार्थ, धर्म पुण्य आदि के लिए समर्पित कर देना चाहिए । ऐसा करने से ही मनुष्य  ऋण-मुक्त हो सकता है। इस  परम्परा के चलते रहने से ही सुयोग्य समाजसेवियों की आवश्यकता पूरी हो सकती है और सामाजिक महानता बनी रह सकती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी को शास्त्र मर्यादा या ईश्वरीय आज्ञा के रूप में ढलती आयु में “वानप्रस्थ” ग्रहण करके अपना श्रम, समय और मनोयोग लोककल्याण के लिए लगाना चाहिए । शास्त्रकारों ने पग-पग पर इस परम्परा के पालन का निर्देश किया है। धर्म ग्रन्थों में अनेकों जगह इसी प्रकार के निर्देश की भरमार है।

जब तक भारतीय समाज में इस वानप्रस्थ परम्परा का निर्वाह ठीक तरह होता रहा, तब तक यहाँ की सामाजिक स्थिति अति उच्चकोटि की बनी रही और उससे प्रभावित होकर घर-घर में मानव रत्न उत्पन्न होते रहे, जिन्होंने समस्त विश्व में श्रेष्ठता की मर्यादाओं को स्थापित करने में महान योगदान दिया।

जब से हम संकीर्ण और स्वार्थी होते चले गये। समाज का ऋण भार लेने की निर्लज्जता अपना बैठे, मरते समय तक पैसा, बेटे, पोतों की ही बात सोचने वाले निम्न  स्तर पर आ गये तभी से  समाज में से सुयोग्य और निस्वार्थ प्रतिभाएं लुप्त होना शुरू हो गयीं । उनके बिना सामाजिक स्तर कैसे ऊँचा रहता।  इस अभाव की पूर्ति के बिना कोई राष्ट्र और समाज प्रखर और महान रह ही नहीं सकता।

इस अभाव की पूर्ति की जानी चाहिए। जनसाधारण का दृष्टिकोण बदला जाना चाहिए। परम पूज्य गुरुदेव ने इसी को विचार क्रांति का नाम दिया है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का एक-एक सदस्य समयदान करके गुरुवर की क्रांति में योगदान दे रहा है। सारा जीवन पैसे और परिवार के लिए ही लगाया जाना “सामाजिक अपराध घोषित” किया जाना चाहिए। हर व्यक्ति को यह अनुभव कराना चाहिए कि आधा जीवन ‘गौ ग्रास’ है। वह समाज सेवा की अवधि है। उसका अपहरण करके निजी सम्पदा बढ़ाते रहना, बेटे/ पोतों की सेवा टहल चाकरी करते रहना गौ के मुख से ग्रास को छीन कर गधे को खिलाने के बराबर है।

समापन, जय गुरुदेव  

*****************

कल वाले लेख को 355 कमेंट प्राप्त हुए,मात्र 6 साथी ही संकल्प पूरा कर पाए। सभी को शुभकामना। 


Leave a comment