वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव की 1971 की हिमालय यात्रा का उद्देश्य

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से सोमवार से गुरुवार तक प्रकशित होने वाले दिव्य लेख परम पूज्य गुरुदेव द्वारा रचित अथाह साहित्य सागर में से डुबकी मार कर दिव्य रत्न साथिओं के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। गुरुदेव के ही दिव्य मार्गदर्शन से प्रोत्साहित होकर  हमारी अबोध बुद्धि साथिओं के अंतकरण में इस दिव्य ज्ञानप्रसाद को कितना स्थापित कर पाती है, यह तो वही जानते हैं लेकिन हमारा परिश्रम इस दिशा में अनवरत प्रयासरत है। 

आज का ज्ञानप्रसाद लेख मार्च 1972 की अखंड ज्योति में प्रकाशित “अपनों से अपनी बात” लेख पर आधारित है। 20  जून 1971 वाले दिन  परम पूज्य गुरुदेव मथुरा छोड़कर हरिद्वार आ गए,10 दिन यहाँ रहने के बाद गुरुदेव  हिमालय के लिए प्रस्थान कर गए। 

गुरुदेव की अनुपस्थिति में वंदनीय माता जी ने, महाशक्ति ने, सभी कर्त्तव्यों को निभाया, कुंवारी कन्याओं ने अखंड दीप को उपस्थिति में महापुरुश्चरण के लिए कैसे साधना  की एवं सबसे बड़ी बात कि गुरुवर की हिमालय साधना का  उद्देश्य क्या था, आज के लेख का यही सार है। 

आज के लेख का शुभारम्भ करें, उससे पहले सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करना चाहते हैं जिन्होंने कल वाले लेख को, कमैंट्स के माध्यम से, पूरी तरह से Interactive बनाने का कार्य किया। अखंड ज्योति सभी के पास आती है, सभी पढ़ते भी हैं लेकिन ज्ञानप्रसाद लेखों का उद्देश्य इन्हीं लेखों को ऐसे Interactive बनाना होता है जैसे सभी गुरुवर के चरणों में बैठे हों। 

तो आइये गुरुवंदना करें, विश्वशांति की कामना करें और आज के ज्ञानयज्ञ में आहुतियां अर्पित करें। 

 ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो! 

******************              

वंदनीय माता जी बता रही हैं कि शांतिकुंज  में अखण्ड दीपक पर  अखंड जप के रूप में, 24  गायत्री महापुरश्चरणों की श्रृंखला चल रही है। इस अखंड जप को  कुंवारी  कन्याओं द्वारा चलाया जा रहा है। यह कन्यायें डेढ़ घण्टा दिन में और एक घण्टा रात में अर्थात् प्रतिदिन ढाई घण्टा जप  करती हैं। शेष समय में मैं  उन्हें पढ़ाती हूँ , संगीत तथा सिलाई  सिखाती हूँ  ताकि यहाँ से जाने पर, यह बच्चियां हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का परिचय दे सकें;सफल,स्वावलम्बी एवं लोकोपयोगी जीवन जी सकें  ।

जप की इस प्रक्रिया को अब और भी अधिक सुव्यवस्थित किया जा रहा है। लड़कियों के लिये अति उपयोगी प्रशिक्षण गृह-उद्योग, सिलाई,संगीत आदि की शिक्षा व्यवस्था बनाई है। इसके लिये एक “विद्यालय हाल” बनाया जा रहा है। अभी तक वे होस्टल  में ही रहती, पढ़ती थीं। एक ऐसी सहायिका  की भी खोज की जा रही  है जो मेरा हाथ बँटा सके, संगीत, सिलाई आदि जानती हो । यह  सहायिका पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त हो। उसके लिये कुंवारी  होने की शर्त नहीं है। विधवा परित्यक्ता भी उसके लिये उपयुक्त हो सकती है।

विद्यालय हाल बनने एवं सहायक अध्यापिका की व्यवस्था दो तीन महीने में ही हो जायगी। अभी तो जप  करने वाली लड़कियाँ मिलजुल  कर ही अपना भोजन बनाती हैं। आगे उस कार्य के लिये भी सेविका रहेगी ताकि उन्हें अधिक से अधिक समय शिक्षा के लिये मिल सके। 

पिछली लड़कियों में से कई 6 महीने के लिये ही आयी हैं, उन्हें जून में वापिस भेज दिया जायगा। अगले वर्षों के लिये जो लड़कियां आना चाहें अभी से पत्र-व्यवहार करके स्वीकृति प्राप्त कर लें। 24 महापुरश्चरणों का यह अखण्ड जप पूरा होने में 6  वर्ष का समय लगना  है । अच्छा तो यह है कि कन्याएं 5  वर्ष के लिये ही आयें ताकि वे कुछ योग्य बनकर भी जा सकें। कम से कम एक दो वर्ष की बात तो सोचकर ही आना चाहिये। आगे से किसी  को भी 6  महीने की स्वीकृति नहीं मिलेगी ।

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के  सभी साधक महापुरश्चरण की परिभाषा से भलीभांति परिचित तो  हैं लेकिन इस विषय को एक बार फिर दोहरा लेना किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं होगा। 

गायत्री महापुरश्चरण में 24 लाख गायत्री मंत्र का संकल्प लिया  जाता है। अगर यह महापुरश्चरण एक वर्ष में पूरा करना है तो बेसिक  गणित के अनुसार एक दिन में 60 मालाओं का जप किया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह निकलता है कि एक दिन में 60x 108= 6480 बार गायत्री मंत्र जप हो जाता है। इस नंबर को जब 365 से गुना किया जाता है तो परिणाम 23 लाख 72 हज़ार 500 आता है जो लगभग 24 लाख है। 

                     60x 108x 365= 2,372,500 

गुरुदेव का सुनिश्चित एवं पूर्व निर्धारित प्रधान कार्यक्रम यह है कि वे भावी जीवन में अधिक कठोर साधना/तपश्चर्या करके ऐसी शक्ति सम्पादित करेंगे जिसके सहारे जागृत आत्माओं के  नवनिर्माण की महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित कर सकना सम्भव हो सके। “यही कारण है कि गुरुदेव ने  शांतिकुंज को देवमानवों के गढ़ने की टकसाल कहा है।” 

वंदनीय माता जी बता रही हैं कि अभी तक सर्वसाधारण को अध्यात्म के  “ज्ञान पक्ष” की  ही जानकारी है। धर्ममंच की कार्य पद्धति कथा, पुराण, स्वाध्याय, सत्संग तक ही सीमित है। “विज्ञान पक्ष”, जिसके अनुसार सूक्ष्म शक्तियों की मैन्युफैक्चरिंग तथा प्रयोग सम्भव होता है, वह एक प्रकार से लुप्त होने की कगार पर ही है। “विज्ञान के बिना ज्ञान एकाँगी है। शक्ति के बिना धर्म की रक्षा कौन कर सकता है?” प्राचीनकाल में समस्त विश्व अध्यात्म की गरिमा के सम्मुख नतमस्तक था। इसका मुख्य कारण यही था कि हमारे पुरातन ऋषि- मुनियों का अध्यात्म के प्रति उद्देश्य केवल ज्ञानअर्जन ही नहीं बल्कि  विज्ञान अर्जन भी था । यदि आज वह हमारे हाथ होता तो जन समाज का मार्गदर्शन ही नहीं विश्व प्रवाह को मोड़ सकने में कोई शंका न रहती। यही कारण है कि ज्ञान और विज्ञान के परस्पर समन्वय के आभाव में  “अध्यात्म मणिहीन सर्प” की तरह मंद एवं निर्बल हो रहा है। हम सब जानते हैं कि मणियुक्त सर्प की कितनी मान्यता है, सम्मान है।   

गुरुदेव की भावी तपश्चर्या का क्रम निर्धारण इसी रिसर्च के लिए हुआ है।

वंदनीय माता जी 1972 में कह रही थीं  कि इस समय गायत्री परिवार स्थूल प्रचार साधनों, रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों द्वारा युगनिर्माण योजना का प्रत्यक्ष संगठन कार्य कर रहा है। विचार क्राँति, नैतिक क्रान्ति, सामाजिक क्रान्ति का प्रचण्ड अभियान चल रहा है लेकिन इसके अग्रगामी और परिणाम देखने के लिये सहायक “सूक्ष्म पृष्ठभूमि” भी चाहिये, वातावरण में अनुकूलता के तत्व भी चाहिये। इस पक्ष को गुरुदेव ने स्वयं सँभाला हुआ है  और युगनिर्माण योजना का बाकी काम हम सब युगसैनिकों को सौंप दिया है । इस तरह एक सुव्यवस्थित कार्य विभाजन की रूपरेखा निश्चित हो गई है। परम पूज्य गुरुदेव को इसी टाईमटेबल  के अनुसार शांतिकुंज से

हिमालय के लिए विदाई लेनी पड़ी और अध्यात्म के अग्रगामी क्षेत्र में प्रवेश करना पड़ा।

गुरुदेव की उपरोक्त  तप साधना के  “तीन मुख्य प्रयोजन” थे। 

आत्मशुद्धि की बात तो गुरुदेव अपने ही अनुकरणीय आदर्श जीवन को प्रस्तुत करके  चिरकाल पूर्व ही पूरा कर चुके हैं। फिर भी उनके कार्यक्रम की “एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता” यह है कि उन्होंने “स्थूल और सूक्ष्म”, “आत्मिक और प्रत्यक्ष” कार्यक्रमों को सर्वथा एक दूसरे से पूर्णतया जोड़े रखा है। 

गुरुदेव ने इसी जोड़ का केन्द्रबिन्दु भगवती भागीरथी के पुण्य तट पर, सप्तऋषियों की तपस्थली और हिमालय के प्रवेशद्वार सप्त सरोवर हरिद्वार में शाँतिकुँज की स्थापना करके पूर्ण की। यह दिव्य आश्रम किन्हीं गतिविधियों के संचालन  के लिये नहीं बल्कि लोकमंगल की रचनात्मक प्रवृत्तियों और आध्यात्मिक उपलब्धियों के दो-तरफा तालमेल एवं आदान-प्रदान के लिए ही बनाया गया है । यहाँ की सारी गतिविधियाँ इसी प्रयोजन के लिये केन्द्रित हैं।

शांतिकुंज  में गोघृत के अखण्ड दीपक पर अखण्ड गायत्री जप के 24 गायत्री महापुरश्चरणों की एक श्रृंखला चल रही है। इन दिनों 10 कन्याओं द्वारा यह क्रम चल रहा है। छः वर्ष में 24 महापुरश्चरण पुरे होंगे। 

इनका प्रयोजन (1) नव निर्माण की प्रवृत्तियों में गति उत्पन्न करना (2) इन प्रवृत्तिओं  में  संलग्न कार्यकर्त्ताओं की भौतिक एवं आत्मिक सहायता करना (3) गुरुदेव की तपश्चर्या का पथ प्रशस्त करना है। इस महापुरश्चरण प्रक्रिया से जो शक्ति उत्पन्न होती है, उसका एक अंश जप करने वाली कन्याओं के भविष्य निर्माण तथा उनकी  व्यवस्था संदर्भ में लग जाता है। शेष तीन अंश उपरोक्त तीन कामों में खर्च कर दिया जाता है। समय-समय पर कुछ विशेष  क्षण भी आते रहते हैं, उनके लिए भी कुछ शक्ति रिज़र्व में रखनी पड़ती है । बँगलादेश की अति उलझी हुई गुत्थी के संबंध में गुरुदेव चिंतित थे। इन दिनों उन्होंने अपना साधना लक्ष्य इस बिन्दु पर भी केन्द्रित किया और  साधना का कुछ अंश इस दिशा में भी लगा। उस संदर्भ में अभी भी  काफी उलझनें शेष हैं, सो कुछ महीने अपनी साधना प्रक्रिया उसी से जुड़ी रहेगी। ऐसी अनेकों  सामयिक परिस्थितियाँ सामने आने पर उन्हें भी प्राथमिकता देनी पड़ती है। लेकिन ओवरआल साधना की सुनिश्चित दिशा वही है जिसका ऊपर वाली पंक्तियों में उल्लेख  किया गया है।

विगत आठ महीनों से  चल रहे “साधनात्मक प्रकरण” की यही सूचना और उपलब्धि है। इस बीच आपत्तिग्रस्तों की सहायता करने की, स्वजनों के अवरुद्ध प्रगति पथ को प्रशस्त करने की, हम लोगों की परम्परागत कार्यपद्धति भी यथावत चलती रही है। उसे बन्द कर सकना न अपनी प्रकृति के अनुकूल है और न ही परिस्थिति के। इसलिए उसे चलना भी था और चला भी। 

इन दिनों कुछ ऐसा असन्तुलन बना कि जिस प्रकार खर्च अधिक और  आमदनी कम वाले लोग संकट में फँसते हैं उसी तरह की अड़चन हमारे  सामने भी आ गई और मुझे वह संकट “अस्वस्थता” के रूप में सताने लगा। मुझे अपने स्वास्थ्य को संभालना, देखना आवश्यक था।  साथ ही गुरुदेव ने हम लोगों के लिए कुछ आवश्यक प्रकाश परामर्श भी देने थे । इसलिए  गुरुदेव ने अनुभव किया कि जिस प्रयोजन के लिए शांतिकुंज  का निर्माण किया गया उसका उपयोग करना चाहिये। शांतिकुंज ही गुरुदेव के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष क्रिया-कलापों के पारस्परिक संपर्क एवं आदान-प्रदान का केन्द्र है। इसलिए उन्होंने गत महीने से यानि फ़रवरी 1972 से  अपना वह निर्धारित क्रम भी आरम्भ कर दिया।

गुरुदेव कुछ समय के लिये हिमालय से यहाँ आये और फिर वापिस चले गये। अब वे सुविधा और आवश्यकतानुसार यहाँ आते जाते रहेंगे। नितान्त एकाकी साधना जितने दिन के लिये आवश्यक थी वह अवधि पूरी हो गई। अब वे हम सबके साथ Coordinate करके ही अपनी  प्रक्रिया चलायेंगे। अपनी तपश्चर्या यथावत जारी रखेंगे और शाँतिकुँज के माध्यम से प्रत्यक्ष परामर्श प्रकाश भी प्रदान करेंगे। माता जी बता रही थीं कि अब  वह प्रक्रिया मेरे माध्यम से ही चलेगी। अब गुरुदेव का जनसंपर्क बढ़ाने का तनिक भी मन नहीं है। स्वभाविक है कि  अपना विशाल परिवार गुरुवर से  मिलने एवं दर्शन करने को उत्सुक  होगा। यदि हम सभी को छूट दे दें  तो आप सभी शांतिकुंज आने को दौडेंगें, प्रतक्ष्य है कि  गुरुदेव का अमूल्य समय नष्ट होगा । मथुरा से विदाई के बाद 20 जून से 30 जून तक गुरुदेव को शांतिकुंज में रहना था। यह दस दिन यहाँ की कार्यपद्धति के  निर्धारण एवं  40 भाषण टेप कराने के लिए रिज़र्व किये थे लेकिन  उन्हीं 10  दिनों में लगभग 5000  स्वजन परिजन यहाँ भी आ गये और उनसे थोड़ी-थोड़ी बात करने, निवास,भोजन आदि का प्रबन्ध करने में वे 10 दिन भी निकल गये। जिस काम के लिए वे 10 दिन रखे गये थे वह न के बराबर ही हो सका।

समापन, ऐसा ही दिव्य लेख कल प्रस्तुत किया जायेगा। 

जय गुरुदेव 

*************

कल प्रकाशित हुए लेख को 401 कमेंट मिले,8 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूरा किया है। सभी को बधाई। 


Leave a comment