20 मई 2025 का ज्ञानप्रसाद
नवंबर 1958 में मथुरा में संपन्न हुए सहस्र कुंडीय यज्ञ पर आधारित लेख श्रृंखला को लिखते-लिखते हमारे अंदर जिस ऊर्जा का संचार हुआ है उसे शब्दों में वर्णन करना तो असंभव है लेकिन परम पूज्य गुरुदेव ने जिस प्रकार से एक-एक लेख, वीडियो, शार्ट वीडियो हाथ में थमा दी उसके बारे में क्या लिखा जाये।
उसी मार्गदर्शन में आज के ज्ञानप्रसाद लेख में अश्वमेध यज्ञ,कलश पूजन एवं कलश यात्रा के महत्व को चरितार्थ करने का प्रयास किया गया है। सभी धार्मिक कृत्यों के पीछे छिपे दिव्य ज्ञान को समझ कर किया जाए तो श्रद्धा और समर्पण में चार चाँद लगने में कोई शंका नहीं रहती।
आज के युग का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही तो है कि गूगल से प्राप्त किये गए Superficial knowledge की आड़ में सदिओं से Established, tried and tested knowledge को नकारा जा रहा है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार द्वारा किया जा रहा प्रत्येक प्रयास इसी दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना है ताकि जहाँ तक संभव हो सके किसी शंका का प्रश्न ही न उठे। जिन सोर्सेज से इस ज्ञान को प्राप्त किया जाता है ,Analyse किया जाता है, शायद साधारण मनुष्य की पंहुच और समझ से बाहिर ही हों, नमन करते हैं ऐसे गुरु को जो हमसे ऊँगली पकड़ कर इस दिव्य कार्य को करवा रहे हैं।
ज्ञान की अनुपस्थिति में अश्वमेध यज्ञ को “अश्व की बलि यानि हत्या” से सम्बंधित भी बताया गया है लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। आज के ज्ञानप्रसाद में पौराणिक तथ्यों पर आधारित जानकारी को compile करने का प्रयास किया गया है। यह जानकारी compile करने से पहले हम कितने ही समय से लगातार स्वाध्याय एवं ऑनलाइन रिसर्च करके तथ्यों को testify करते रहे, जहाँ-जहाँ से जो-जो लिंक्स मिलते रहे उन्हें save करते रहे।
आज के लेख में प्रज्ञागीत के स्थान पर 2019 में आयोजित टोरंटो के उस यज्ञ को अटैच किया है जिसमें हमारी भी उपस्थिति रही थी।
इन्हीं शब्दों के साथ,विश्वशांति की कामना के साथ आज के दिव्य ज्ञानयज्ञ का शुभारम्भ होता है।
“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
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अश्वमेध यज्ञ क्यों किये जाते हैं ?
आसुरी प्रवृत्तियों के निष्कासन और सत्प्रवृत्तियों के लिए प्रेरित करने वाले महायज्ञ का नाम “अश्वमेध महायज्ञ” है। प्राचीन काल से इसी प्रचलित उद्देश्य के लिए अश्वमेध महायज्ञ हुआ करता था। आधुनिक युग में समाज में लगातार बढ़ रही आसुरी प्रवृतिओं को देखते हुए ऐसे “सामूहिक अनुष्ठान” की आवश्यकता इतनी अधिक बढ़ गयी है कि आये दिन गायत्री परिवार द्वारा कहीं न कहीं, कोई न कोई यज्ञ हो ही रहा है। 24 कुंडीय, 51 कुंडीय,108 कुंडीय गायत्री यज्ञ तो होते ही रहते हैं लेकिन अश्वमेध यज्ञ का अपना ही विशेष महत्व है। “अश्व”, जिसका शाब्दिक अर्थ “घोड़ा” होता है, समाज में बड़े पैमाने पर बे-लगाम बुराइयों का प्रतीक है जिसे हम प्रतिदिन देख रहे हैं ,अनुभव कर रहे हैं। “मेधा” सभी बुराइयों और अपनी जड़ों से दोष के उन्मूलन का संकेत है। अश्वमेध यज्ञ का उद्देश्य जन-जन की भाव संवेदना, राष्ट्र की सामूहिक चेतना और निष्क्रिय प्रतिभा को जगाना होता है, एक नई शक्ति का संचार करना होता है जिससे आसुरी प्रवृत्तियों के निष्कासन एवं सत्प्रवृत्तियों को अपनाने का प्रेरणादायक प्रयास होता है।
वंदनीय माता भगवती देवी शर्मा जी के मार्गदर्शन में 1992 में प्रथम अश्वमेध यज्ञ जयपुर राजस्थान में 7-10 नवंबर के बीच संपन्न हुआ था। माता जी के संरक्षण में उनके महाप्रयाण तक न केवल भारत में बल्कि इंग्लैंड,कनाडा और अमेरिका को मिलाकर 17 अश्वमेध यज्ञ संपन्न हुए। 31 मार्च से 3 अप्रैल 1994 को कुरुक्षेत्र वाले अश्वमेध यज्ञ में हमें भी शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जब हम यह पंक्तियाँ लिख रहे हैं तो हमारे मस्तिष्क पटल पर उन दिनों की स्मृतियाँ एक चलचित्र की भांति दौड़ रही हैं। लगभग 25 फुट ऊँचे एक विशाल मंच पर वंदनीय माता जी की धुंधली सी छवि ही दिखाई पड़ रही थी। साधकों का तो सैलाब ही उमड़ पड़ा था। इतना बड़ा पांडाल शायद हमने अपने जीवन में पहली और आखिर बार ही देखा था। ऐसा हम इसलिए लिख रहे हैं कि हम बचपन से ही भीड़भाड़ से दूर रहने वालों में से हैं। पास ही किसी स्कूल की बिल्डिंग में हम रात को रहे थे, भूमि पर ही सोने की व्यवस्था थी। उन दिनों कोई CCTV, ड्रोन कैमरा आदि की व्यवस्था तो नहीं थी,शायद कैसेट प्लेयर में play होने वाली Sony / TDK आदि ऑडियो कैसेट का ही रिवाज़ था, माता जी के भजन एवं कुछ और कैसेट लेकर आये थे। तीन दशकों में टेक्नोलॉजी ने जो छलांग लगाई उसे शब्दों में बांधना असंभव तो नहीं लेकिन कठिन अवश्य है।
फ़रवरी 2024 में भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में इस श्रृंखला का 47वां अश्वमेध यज्ञ संपन्न हुआ। इस विशाल आयोजन की लगभग 100 वीडियोस/शार्ट वीडियोस शांतिकुंज के यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं, हमारे फ़ोन में भी कुछ चुनिंदा क्लिप्स सेव की हुई हैं जिन्हें इस छोटे से परिवार में शेयर करते रहते हैं। 2021 में 46वां अश्वमेध यज्ञ भी मुंबई में ही हुआ था।
हमारी रिसर्च पर आधारित विश्व भर में सम्पन्न हुए 42 अश्वमेध यज्ञों की एक लिस्ट आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। 2014 से 2021 के बीच और भी अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न हुए होंगें लेकिन उनका कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है।
अश्वमेध महायज्ञ एक आध्यात्मिक प्रयोग है जिसे सभी को एकजूट होकर संपन्न करना चाहिए । जन-जन की भागीदारी से होने वाला यह आध्यात्मिक अनुष्ठान जनमानस में नवीन प्रेरणा का संचार करता है।
कलश स्थापना एवं कलश यात्रा :
यज्ञों के आयोजन में “कलश स्थापना एवं कलश यात्रा” का अपना ही महत्व है। हमारे साथिओं ने नोटिस किया होगा कि सहस्र कुंडीय यज्ञ में कलश यात्रा के स्थान पर जल-यात्रा शब्दावली का प्रयोग किया गया था। हमारे परिवार के अधिकतर अनुभवी एवं शिक्षित साथियों को अवश्य ही इस महत्व की जानकारी होगी लेकिन बहुत सारे ऐसे भी होंगें जिनके लिए कलश से सम्बंधित जानकारी महत्वपूर्ण हो, तो प्रस्तुत है निम्लिखित जानकारी :
कलश का आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक महत्त्व समझना जरूरी है। वैज्ञानिक ज्ञान को प्रतीकों में बाँधकर धार्मिक आस्था में ओतप्रोत कर देना हिन्दू धर्म की विशेषता है।
समुद्र मंथन की कथा बहुत प्रसिद्ध है। समुद्र एक ऐसा स्रोत है जिसमें जीवन के समस्त दिव्य रत्न उपलब्ध हैं। इस विशाल समुद्र का मंथन ध्वंसात्मक शक्तियों का नाश करने के लिए किया गया था जिसमें मंदराचल शिखर पर्वत की मथानी और वासुकी नाग की रस्सी बनाई गयी थी। पहली दृष्टि में यह कहानी एक मनगढंत काल्पनिक कथा लगती है जिससे छोटे बच्चों का मन बहलाया जा सकता है लेकिन पुराणों में अधिकांश अनेकों कथाएँ हैं जो देखने को तो काल्पनिक लगती हैं लेकिन मर्म बहुत गहरा है।
जीवन का अमृत तभी प्राप्त होता है, जब हम विषपान की शक्ति और सूझबूझ रखते हैं अर्थात जो कठिनाईयाँ झेल सकता हो वही सफ़लता का स्वाद चख सकता है। यही श्रेष्ठ विचार इस कथा में पिरोया हुआ है, जिसे हम मंगल कलश द्वारा बार-बार पढ़ते हैं।
कलश का पात्र जलभरा होता है। जीवन की उपलब्धियों का जन्म कलश में पड़ा जल,आम के पत्ते और पान के पत्ते की बेल द्वारा दिखाई पड़ता है। जटाओं से युक्त ऊँचा नारियल ही मंदराचल है तथा यजमान द्वारा कलश के कंठ में बंधा कलावा यानि लाल रंग का सूत्र ही वासुकी नाग है। यजमानऔर पुरोहित दोनों ही मंथनकर्ता हैं। पूजा के समय प्रायः उच्चारण किया जाने वाला मंत्र स्वयं स्पष्ट है, Self-explanatory है।
‘कलशस्य मुखे विष्णु कंठे रुद्र समाश्रिताः मूलेतस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मात्र गणा स्मृताः। कुक्षौतु सागरा सर्वे सप्तद्विपा वसुंधरा, ऋग्वेदो यजुर्वेदो सामगानां अथर्वणाः अङेश्च सहितासर्वे कलशन्तु समाश्रिताः।’
अर्थात् सृष्टि के समस्त नियम बनाने वाले ब्रह्मा, विष्णु, महेश त्रिगुणात्मक शक्ति लिए इस ब्रह्माण्ड रूपी कलश में व्याप्त हैं। समस्त समुद्र, द्वीप, यह वसुंधरा, ब्रह्माण्ड के संविधान चारों वेद इस कलश में स्थान लिए हैं। इसका वैज्ञानिक पक्ष यह है कि जहाँ इस कलश का दर्शन “ब्रह्माण्ड दर्शन” कराता है वहीं ताँबे के पात्र में पड़ा जल विद्युत चुम्बकीय ( Electrical attractive energy ) currents से ऊर्जावान बनता है। ऊँचा नारियल का फल ब्रह्माण्डीय ऊर्जा (cosmic energy) का माध्यम बन जाता है। जिस प्रकार विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए बैटरी की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मंगल कलश ब्रह्माण्डीय ऊर्जा केंद्रित कर उसे multiply कर आसपास radiate करने वाला Unified खज़ाना है, जो वातावरण को दिव्य बनाता है। कलश के गले में बंधा हुआ लाल सूत्र Bad conductor होने के कारण ब्रह्मांडीय ऊर्जा को Waste होने से बचाता है। पुराणों में यह वैज्ञानिक Explanations सदियों से दिए जा रहे हैं लेकिन आधुनिक विज्ञान ने कई तथ्यों पर प्रश्नचिन्न लगाए हैं, इसीलिए विज्ञान और अध्यात्म के बीच सदियों से अनवरत घोर युद्ध चलता आ रहा है।
भारतीय संस्कृति में कलश बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। कलश को 33 करोड़ देव शक्तियों का वास माना गया है एवं इसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना जाता है।
कलश के जल जैसी शीतलता एवं कलश जैसी पात्रता अनादि काल से मातृशक्ति के हदय में मानी जाती रही है। नारी का हृदय दया, करुणा, ममता एवं सेवा भाव से परिपूर्ण होता है। नारी में क्षमाशीलता, गंभीरता,एवं सहनशीलता सबसे अधिक होती है, इसीलिए देव शक्तियों को अपने सिर पर धारण करके सुख, सौभाग्य एवं समृद्धि की कामना केवल मातृशक्ति ही कर सकती है। यही कारण है कि धर्मिक आयोजनों में कलश सिर्फ महिलायें ही धारण करती हैं ।
हिन्दू रीति के अनुसार जब भी कोई पूजा होती है, तब मंगल कलश की स्थापना अनिवार्य होती है। बड़े अनुष्ठान,यज्ञों में महिलाएँ बड़ी संख्या में मंगल कलश लेकर शोभायात्रा में निकलती हैं। ऐसी मान्यता एवं आस्था है कि जिस क्षेत्र से कलश यात्रा होकर गुज़रती है,देव शक्तियां वहां के समस्त कष्टों का निवारण कर देती हैं। पूजा में नारी की उपस्थिति बहुत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि नारी सृजन (Creation) और मातृत्व ( Motherhood ) की प्रतीक है।
धरती को भी माँ कह कर पुकारा जाता है, सम्मान दिया जाता है। धरती के बाद अगर कोई सृजन का उत्तरदायित्व निभा सकता है तो वह केवल नारीशक्ति ही है, मातृशक्ति ही है। यज्ञ में पुरुष के दाहिनी ओर बैठकर,नारी ही धर्म के उत्तदायित्व को आगे बढ़कर संभालती हैं।
हमारे ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की शान भी नारियां ही हैं,पुरुषों से सदैव आगे ही होती हैं। हम भाइयों को गौरवान्वित कराने के लिए ह्रदय से धन्यवाद्।
समापन, जय गुरुदेव
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